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________________ योग के साधन : आचार १२३ स्मरण, स्त्री के रूप एवं अंगादि का दर्शन, कामोत्तेजक साहित्य का पाठ आदि प्रवृत्ति से दूर रहना तथा आत्मचर्या में लीनता ही ब्रह्मचर्य है।' इस तरह इन उत्तम धर्मों का पालन करने से दीर्घकाल से संचित राग-द्वेष, मोहादि का शीघ्र ही उपशमन हो जाता है तथा अहंकार, परीषह, कषाय का भी भेदन होता है। अतः योग-साधना में दस धर्मो का आत्यन्तिक महत्त्व है, क्योंकि योग के लिए बाह्य आचारों की अपेक्षा अन्तरंग परिणामों, भावों की शुद्धता ही परम आवश्यक है। बारह अनुप्रेक्षाएँ जिस प्रकार योगदर्शन में क्लिष्ट और अक्लिष्ट दो वृत्तियों का उल्लेख है, उसी प्रकार जैनदर्शन में भी सकषाय और अकषाय इन दो मार्गों का निर्देश है। जैसे क्लिष्ट वृत्ति में अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेष एवं अभिनिवेश ये पाँच क्लेश आते हैं, वैसे ही सकषायवृत्ति में भी मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग का वर्णन है। इस प्रकार संसार के मूल कारण में अज्ञान अथवा मिथ्यात्व ही है। जैन-दर्शन के इस मिथ्यात्व को ही योग-दर्शन में अविद्या तथा बौद्ध-दर्शन में अज्ञान कहा गया है । इसी मिथ्यात्व अथवा मोह के कारण जीव इस संसार में अनंत काल से भटकता आ रहा है। इसी संसार-बंधन में पड़कर जीव रागद्वेष, कषाय आदि के कारण स्वभाव को भूलकर जन्म-मरण करता रहता है। अतः पिछले जन्म के कर्म-संस्कारों तथा वर्तमान जन्म के कर्मों को नष्ट करना जीव के लिए अत्यंत आवश्यक है, ताकि वह मोक्ष प्राप्त करने १. वही, ४०३ २. दशविधधर्मानुष्ठायिनः सदा रागद्वेषमोहानाम् । दृढरूढधनानामपि भवत्युपशमोऽल्पकालेन ॥ १७९ ॥ ममकाराहंकारत्यागादतिदुर्जयोद्धतप्रबलान् । हन्ति परीषहगौरवकषायदण्डेन्द्रियव्यूहान् ॥ १८० ॥--प्रशमरतिप्रकरणम् ३. योग-दर्शन, २०१२ ४. सकषायाकषाययोः साम्परायिकेर्यापथयोः । -तत्त्वार्थसूत्र, ६०५ ५. वही, ८१ ६. कषाय चार हैं-क्रोध, मान, माया और लोभ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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