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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन (४) शौच-लोभ, तृष्णादि वृत्तियों का त्याग करना तथा भोजन में गृद्धि नहीं रखना शोच है ।' अन्तर्बाह्य शुचिता का ही महत्त्व है।
(५) सत्य-आचार का पालन करने में असमर्थ होते हुए भी झूठ नहीं बोलना, आप्तवचनों को असत्य नहीं मानना तथा कठोर, निन्द्य बात न कहना ही सत्य है ।
(६) संयम--प्राणियों को पीड़ा न पहुँचाना तथा इन्द्रिय-विषयों में आसक्ति नहीं रखना संयम है।
(७) तप--तप का तात्पर्य अपनी इंद्रियों के विषयों को तपाकर आत्मशुद्धि करने से है और तप की आराधना अनेक प्रकार के कायक्लेशों द्वारा होती है जिनमें इहलोक या परलोक के सुख की अपेक्षा नहीं होती।
(८) त्याग-चेतन एवं अचेतन समस्त अन्तर्बाह्य परिग्रह की निवृत्ति ही त्याग है ।" त्याग का स्थूल अर्थ दान भी है।
(९)आकिंचन्य-मन, वचन एवं काय से सब प्रकार की धन-सम्पत्ति, गृह-वैभव आदि परिग्रह में ममत्वबुद्धि न रखना ही आकिंचन्य है । ६ त्याग और आकिंचन्य में अन्तर यह है कि त्याग करने के बाद भी त्यक्त पदार्थ में आसक्ति रह जाती है। त्याग करने के बाद साधक जब अपने को अकिंचन, शून्य बना लेता है, तभी उसके आकिंचन्य धर्म होता है।
(१०) ब्रह्मचर्य-स्त्री-सहवास, भोगे हुए कामभोगों का चिंतन
१. स्वामिकात्तिकेयानुप्रेक्षा, ३९७ २. जिणवयणमेव भासदि तं पालेंदु असक्क माणोवि ।
ववहारेण वि अलियं ण वददि जो सच्चवाई सो ॥-वही, ३९८ ३. समितिषु प्रवर्तमानस्य प्राणीन्द्रियपरिहारः संयमः।
___-तत्त्वार्थराजवार्तिक, पृ० ५९६ ४. इह पर लोयं सुहाणं णिखेक्खो जो करेदि समभावो। . विविहं कायं-किलेसं तव-धम्मो णिम्मलो तस्स ।।
__ - स्वामिकात्तिकेयानुप्रेक्षा, ४४० ५. परिग्रहनिवृत्तिस्त्यागः।-तत्त्वार्थराजवार्तिक; पृ० ५९५ ६. स्वामिकात्तिकेयानुप्रेक्षा, ४०२
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