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________________ योग के साधन : आचार १२१ अनेक क्रियाओं के परिमार्जन तथा क्षमादि भावों की प्राप्ति के लिए धर्म का चिन्तवन एवं अभ्यास किया जाता है। अर्थात् साधु वही है जो लाभ, अलाभ, शत्रु, मित्र आदि में न द्वेष रखता है न रागादि भाव । वह सदा रत्नत्रय से युक्त क्षमादि भावों में लीन समताभाव का पोषक अथवा अभ्यासी होता है। धर्म दस प्रकार का है२-(१) क्षमा, (२) मार्दव, (३) आजव, (४) शौच, (५) सत्य, (६) संयम, (७) तप, (८) त्याग (९) आकिंचन्य एवं (१०) ब्रह्मचर्य । तत्त्वार्थसूत्रकार ने इन्हें उत्तम कहा है। अर्थात् ये धर्म उत्कृष्ट हैं। नवतत्त्वप्रकरण में इन्हें यति-धर्म की संज्ञा दी गयी है। विशतिविशिका' के अनुसार आर्जव के बाद शौच के स्थान पर 'मुक्ति' है जो त्याग के अर्थ में व्यवहृत है। (१) क्षमा-अज्ञानी लोगों द्वारा शारीरिक कष्ट, अपशब्द, अपमान हँसी तथा दुर्व्यवहार किये जाने पर भी क्रोधकषाय या क्षोभ का प्रकट न होना क्षमाभाव है। (२) मार्दव-जाति, कुल, ऐश्वर्य या सौंदर्य, ज्ञान, शक्ति आदि का गर्व नहीं करना, विनय रखना ही मार्दव है।' ' (३) आर्जव-मन, वचन एवं काय द्वारा कुटिल प्रवृत्तियों को रोकना, सरलभाव रखना आर्जव है। १. जो रयणत्तय जुतो खमादि-भावेहि-परिणदो-णिच्चं । सत्वत्थवि मज्झत्थो सो साह भण्णदे धम्मो। -स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, ३९२ २. उत्तमक्षमामार्दवावशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिंचन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः । -तत्वार्थसूत्र, ९१६ ३. नवतत्त्वप्रकरण, २९ ४. खंतीय-मुद्दव अज्जव मुत्ती तव संजमं य बोद्धव्य । सच्चं सीयं अंकिंचणं च बंभं च जइधम्मो ॥ -विंशतिविशिका, ११।२ ५. पद्मनंदि पंचविंशंतिका, १९८५ ६. जात्यादिमदावेशादभिमानाभावो मार्दवम् । --तत्त्वार्थराजवार्तिक, ९।६ ७. योगस्य वक्रता आर्जवम् । --वही, ९१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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