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योग के साधन : आचार
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अनेक क्रियाओं के परिमार्जन तथा क्षमादि भावों की प्राप्ति के लिए धर्म का चिन्तवन एवं अभ्यास किया जाता है। अर्थात् साधु वही है जो लाभ, अलाभ, शत्रु, मित्र आदि में न द्वेष रखता है न रागादि भाव । वह सदा रत्नत्रय से युक्त क्षमादि भावों में लीन समताभाव का पोषक अथवा अभ्यासी होता है।
धर्म दस प्रकार का है२-(१) क्षमा, (२) मार्दव, (३) आजव, (४) शौच, (५) सत्य, (६) संयम, (७) तप, (८) त्याग (९) आकिंचन्य एवं (१०) ब्रह्मचर्य । तत्त्वार्थसूत्रकार ने इन्हें उत्तम कहा है। अर्थात् ये धर्म उत्कृष्ट हैं। नवतत्त्वप्रकरण में इन्हें यति-धर्म की संज्ञा दी गयी है। विशतिविशिका' के अनुसार आर्जव के बाद शौच के स्थान पर 'मुक्ति' है जो त्याग के अर्थ में व्यवहृत है।
(१) क्षमा-अज्ञानी लोगों द्वारा शारीरिक कष्ट, अपशब्द, अपमान हँसी तथा दुर्व्यवहार किये जाने पर भी क्रोधकषाय या क्षोभ का प्रकट न होना क्षमाभाव है।
(२) मार्दव-जाति, कुल, ऐश्वर्य या सौंदर्य, ज्ञान, शक्ति आदि का गर्व नहीं करना, विनय रखना ही मार्दव है।' ' (३) आर्जव-मन, वचन एवं काय द्वारा कुटिल प्रवृत्तियों को रोकना, सरलभाव रखना आर्जव है।
१. जो रयणत्तय जुतो खमादि-भावेहि-परिणदो-णिच्चं । सत्वत्थवि मज्झत्थो सो साह भण्णदे धम्मो।
-स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, ३९२ २. उत्तमक्षमामार्दवावशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिंचन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः ।
-तत्वार्थसूत्र, ९१६ ३. नवतत्त्वप्रकरण, २९ ४. खंतीय-मुद्दव अज्जव मुत्ती तव संजमं य बोद्धव्य । सच्चं सीयं अंकिंचणं च बंभं च जइधम्मो ॥
-विंशतिविशिका, ११।२ ५. पद्मनंदि पंचविंशंतिका, १९८५ ६. जात्यादिमदावेशादभिमानाभावो मार्दवम् । --तत्त्वार्थराजवार्तिक, ९।६ ७. योगस्य वक्रता आर्जवम् । --वही, ९१६
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