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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन चिंतन करना प्रतिक्रमण आवश्यक है । इससे स्वीकृत व्रतों के छिद्र बन्द होते हैं । आठ प्रवचनमाता के आराधन से विशुद्ध चारित्र को प्राप्त करते हुए साधु सन्मार्ग में सम्यक् समाधिस्थ होकर विचरण करता है।'
(५) कायोत्सर्ग-देहभाव के विसर्जन को ही कायोत्सर्ग कहते हैं। इस आवश्यक के अन्तर्गत बैठकर या खड़े रहकर ध्यान करते हुए साधु आत्मस्वरूप का चिंतन करता है । इसके द्वारा जीव अपने अतीत और वर्तमान काल के प्रायश्चित्त योग्य दोषों का शोधन करता है और प्रशस्त ध्यान में लीन होकर सुखपूर्वक विचरण करता है ।२ ..
(६) प्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान का अर्थ है सांसारिक विषयों का त्याग । इस आवश्यक द्वारा नित्य के आहारादि में अमक पदार्थ का अमुक काल विशेष के लिए त्याग किया जाता है। प्रत्याख्यान करने से कर्मास्रव रुकते हैं, इच्छाओं का निरोध होता है और संयम की वृद्धि होती है।
इनका पालन करने से सम्यक्त्व या चारित्र की प्राप्ति होती है । इन आवश्यकों में जो साधक भक्तिपूर्वक संलीन होता है, उसके कर्मो का आस्रव रुक जाता है, परम शांति एवं समाधि में स्थित होता है। दस धर्म ____ यद्यपि महाव्रतों अथवा अणुव्रतों में आत्मविकासमूलक धर्म का अंतर्भाव हो जाता है, तथापि श्रमण अथवा श्रावक के लिए भाव या गुणमूलक धर्म का विधान अलग से प्ररूपित है, क्योंकि संयम की स्थिरता और आत्मविकास के लिए ये धर्म सहायक और उपयुक्त हैं। यही कारण है कि मुक्तिलाभ के लिए आत्मोन्नति के क्रमिक विकास को धर्म कहा गया है। श्रावक अथवा मुनि के जीवन में कभी भी प्रमाद अथवा रागद्वेषवश कषायों की उत्पत्ति संभव है और किसी व्यक्ति में क्षमादि भावों का अभाव होता है । अतः दैनिक जीवन की मन, वचन एवं कायादि संबंधी
१. उत्तराध्ययन, २९।९-१२ २. उत्तराध्ययन २९।१३, योगसारप्राभृत, ५१५२ ३. उत्तराध्ययन, २९।१४, योगसारप्राभृत, ५।५१ ४. अभ्युदयापवर्गहेतुरूपत्वं धर्मस्य लक्षणम् । -आईतदर्शनदीपिका, ३६३५१
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