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योग के साधन : माचार
११९ किया जाता है जो चार प्रकार की होती है, जैसे-अनापात अंसलोक; अनापात संलोक, आपात असंलोक तथा आपात संलोक ।' ।
इस प्रकार साधु अथवा साधक को गुप्ति-समितिपूर्वक अर्थात् सावधानीपूर्वक क्रियाएँ करने का विधान है। समिति एवं गुप्ति से आंतरिक और बाह्य प्रवृत्तियों का संयमन होता है और साथ-साथ शुभ प्रवृत्तियों का पोषण भी। षडावश्यक
जिस प्रकार श्रावक के लिए पूजा-पाठ, स्वाध्याय, वंदनादि दैनिक आवश्यक क्रियाओं का विधान है, उसी प्रकार साधु अथवा श्रमण के लिए भी आवश्यक ( करने योग्य क्रियाओं) का विधान है। ये आवश्यक क्रियाएं छह हैं
(१) सामायिक-सम की आय अर्थात् समताभाव का आना ही सामायिक है । अर्थात् देहधारणा और प्राण-वियोग में, इच्छित वस्तु का लाभ-अलाभ, इष्टानिष्ट के संयोग-वियोग, सुखदुःख, भूख-प्यास आदि बाधाओं में राग-द्वेषरहित परिणाम होना सामायिक है । जो मन, वचन और काय की पापपूर्ण प्रवृत्तियों से हटाकर निरवद्य व्यापार में प्रवृत्त कराती है, उसे सामायिक कहते हैं।
(२) चतुर्विशतजिनस्तव-चौबीस तीर्थंकरों की श्रद्धापूर्वक स्तुति करना चतुर्विशतिजिनस्तव आवश्यक है । . (३) वन्दना-मन, वचन एवं काय की शुद्धिपूर्वक अरहंत, सिद्ध, गुरु आदि की वंदना करना वन्दना आवश्यक है।
(४) प्रतिक्रमण-धर्म-विधि अथवा दैनिक क्रियाओं में प्रमाद आदि के कारण अशुभ परिणाम होने या दोष लगने पर उनकी निवृत्ति के लिए
१. उत्तराध्ययन, २४।१६ २. सामायिके स्तवे भक्त्या वन्दनायां प्रतिक्रमे ।
प्रत्याख्याने तनूत्सर्गे वर्तमानस्य संवरः ॥ -योगसारप्राभृत, ५।४६ ३. यत् सर्व-द्रव्य-संदर्भ राग-द्वेष-व्यपोहनम् ।
आत्मतत्त्व-निविष्टस्य तत्सामायिकमुच्यते ॥-वही, ५।४७
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