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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन
शुद्धि हो जाती है, लेकिन प्रत्येकबुद्ध की भूमियों में भारी एवं मन्द होता है । अर्थात् सम्पूर्ण चित्तशुद्धि नहीं होती ।
(६) प्रत्येक बुद्ध का चित्त - इस अवस्था में साधक स्वयं अपना स्वामी होता है और उसे किसी भी आचार्य अथवा गुरु की अपेक्षा नहीं रहती है तथा उसका चित्त अत्यन्त निर्मल एवं शुद्ध होता है ।
(७) सम्यक्सम्बुद्ध का चित्त - यह अवस्था सर्वज्ञ की है, जो दस व्रतों की धारणा करनेवाले, चार प्रकार के वैशारद्यों से युक्त तथा अठारह बुद्ध धर्मो से युक्त होते हैं और जिन्होंने इन्द्रियों को सर्वथा जीत लिया है । यह अवस्था पूर्णतः अचल और शांत होती है ।
इस सन्दर्भ में महायान विचारधारा के अनुसार क्रमशः दस भूमिकाओं अथवा अवस्थाओं का उल्लेख किया गया है । वे भूमिकायें इस प्रकार हैं - ( १ ) प्रमुदिता, (२) विमला, (३) प्रभाकरी, (४) अर्चिष्मती (५) सुदुर्जया, (६) अभिमुखी, (७) दूरंगमा, (८) अचला, (९) साधुमती एवं (१०) धर्ममेघा ।
(१) प्रमुदिता - इस स्थिति में साधक जगत् के उद्धार के लिए बुद्धत्व प्राप्त करने की महत्त्वाकांक्षा जाग्रत होने पर चित्त में वैसी बोधि के लिए संकल्प करता है और उससे प्रमुदित होता है |
(२) विमला - इस स्थिति में दूसरे प्राणियों को उन्मार्ग से निवृत्त करने के लिए स्वयं शाधक को ही हिंसाविरमणशील का आचरण करके दृष्टान्त उपस्थित करना होता है ।
(३) प्रभाकरी - इसके अन्तर्गत आठ ध्यान और मैत्री आदि चार ब्रह्म-विहार की भावनाएँ करने का विधान है और साथ ही पहले के किये हुए संकल्प के अनुसार अन्य प्राणियों को दुःखमुक्त करने का प्रयत्न किया जाता है ।
(४) अर्चिष्मती - प्राप्त गुणों को स्थिर करने, नये गुण प्राप्त करने और किसी भी प्रकार के दोष का सेवन न करने में जितनी वीर्यं पारमिता सिद्ध हो उतनी अर्चिष्मती भूमिका प्राप्त होती है ।
(५) सुदुर्जया - ऐसी ध्यान पारमिता की प्राप्ति को कहते हैं, जिसमें
१. प्रज्ञापारमिता, पृ० ९५-१००
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