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अध्यात्म-विकास
१९७ करुणावृत्ति विशेष का अभिवर्द्धन और चार आर्यसत्यों का स्पष्ट भान हो। .
(६) अभिमुखो-इसमें महाकरुणा द्वारा बोधिसत्व से आगे बढ़कर अर्हत्व प्राप्त किया जाता है और दस पारमिताओं में से विशेष रूप से प्रज्ञा-पारमिता साधनी पड़ती है । ' (७) दूरंगमा-दसों पारमिताओं को पूर्ण रूप से साधने पर उत्पन्न होनेवाली स्थिति ।
(८) अचला-इस स्थिति में शारीरिक, वाचिक एवं मानसिक चिन्ताओं से मुक्त होना पड़ता है, सांसारिक प्रश्नों का स्पष्ट एवं क्रमबद्ध ज्ञान रखना पड़ता है और उनसे किसी भी प्रकार विचलित न होने की संभावना रहती है।
(९) साधुमती–प्रत्येक जीव के मार्गदर्शन के लिए (योगी को) उस जीव का अधिकार जानने की सम्पूर्ण शक्ति जब प्राप्त होती है तब वह भूमिका साधुमती कहलाती है।
(१०) धर्ममेधा--सर्वज्ञत्व प्राप्त होने पर धर्ममेवा की भूमिका प्राप्त होती है । महायान की दृष्टि से इसी भूमिका पर पहुँचे साधक को तथागत कहा जाता है।
इस प्रकार बौद्ध-योग के अन्तर्गत आध्यात्मिक विकास को अज्ञानावस्था के क्रमिक ह्रास के सन्दर्भ में देखा जा सकता है, क्योंकि अज्ञानावस्था को त्यागकर ही ज्ञान प्राप्ति सम्भव है; जो निर्वाण-प्राप्ति का अभीष्ट है। जैन-योग और अध्यात्म-विकास
जैन योग की आधारशिला आत्मवाद है और आत्म-विकास को पूर्णता मोक्ष है। आत्मशक्ति का विकास ही जैन-साधना-पद्धति का फलित है । इस विकासावस्था में जीव का उत्थान-पतन होना स्वाभाविक है । आत्मशक्ति की इस विकसित तथा अविकसित अवस्था को ही जैनयोग में गुणस्थान कहा गया है और क्रमशः गुणस्थानों पर चढ़ना ही आत्मविकास की ओर बढ़ना है। संसार में ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है, जो सर्वथा अविकसित हो । विकास की कुछ न कुछ किरण हर आत्मा में विद्यमान रहती है, भले ही वह एकेन्द्रिय हो अथवा अभव्य । इस प्रकार
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