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. जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन संसारी जीवों में इन्द्रिय-सत्ता की विद्यमानता के कारण गुणस्थान का प्रारम्भ-विन्दु वही है । शरीरधारी जीवों में ऐसा कोई वर्ग नहीं है जो गुणस्थान से बाहर हो। क्षयोपशमता के कारण विकासावस्था में उत्थान-पतन के क्रमों को पार कर अंत में जीव कर्मों का संपूर्ण क्षय करके निर्मल स्थिति को प्राप्त करता है। इन क्रम-प्राप्त अवस्थाओं को ही गुण-स्थान कहते हैं। दूसरे शब्दों में इसी क्रमिक विकास का पारिभाषिक नाम 'गुणस्थान' है । गुणस्थान का अर्थ ही गुणों के स्थान अर्थात् आत्मशक्ति के स्थान अथवा आत्मविकास की अवस्थाएँ हैं ।' कर्म ___आत्मविकास की इस भूमिका में कर्म का स्थान प्रमुख है, क्योंकि संसार-बन्धन या परिभ्रमण का मुख्य कारण कर्म है। जो जीव इस संसार में हैं, उनके परिणाम रागद्वेषरूप होते हैं, परिणामों से कर्म बँधते हैं, कर्मो से अनेक गतियों में जन्म-मरण होता है । फलस्वरूप शरीर प्राप्त होता है। शरीर में इन्द्रियाँ होती हैं, इन्द्रियों से विषय ग्रहण और विषयों के कारण रागद्वेष रूपी कर्मों की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार जीव संसार में अपने ही कर्मो द्वारा शुभ-अशुभ कर्मो को उत्पन्न करता और उन्हें खुद ही भोगता है। .. कर्म के बीज राग और द्वेष हैं। कर्म मोह से उत्पन्न होता है। वह कर्म जन्म-मरण का मूल है और जन्म-मरण ही दुःख है। यह जीव द्वारा किये जाने के कारण कर्म कहलाता है। संक्षेप में कर्म के आठ भेद हैं
१. स्थानांग-समवायांग, पृ० ९८ २. जो खलु संसारत्यो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो।
परिणामादो कम्मं कम्मादो होदि गदिसु मदी॥ । गदिमधिगदस्स देहो देहादो इन्दियाणि जायते । तेहिं दु विसयग्गहणं तत्तो रागो व दोसो वा ॥
-पंचास्तिकाय, १२८-१२९. ३. (क) अशुभं वा शुभं वापि स्वस्वकर्मफलोदयम् ।
भुजानां हि जीवानां हर्ता कर्ता न कश्चन् ॥ -योगशास्त्र, १६०० ४. उत्तराध्ययन, ३२७ ५. कीरह जिएण हेऊहिं-जेणं तो भण्णए कम्मं । -प्रथम कर्मग्रंथ, १
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