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अध्यात्म-विकास
१९५ तथा (६) अरहा।' इनको पार करता हुआ साधक अपने चारित्रबल से संयम, करुणा एवं वैराग्य प्राप्त करता हैं। इन स्थितियों अथवा अवस्थाओं को और अधिक स्पष्ट करते हुए मिलिन्दप्रश्न में चित्त की सात अवस्थाओं का वर्णन है जो इस प्रकार है
(१) संक्लेशचित्त-यह स्थिति अज्ञान अथवा मूढ़ता को है, क्योंकि इस अवस्था में योगी का चित्त राग-द्वेष, मोह एवं क्लेश से युक्त होता है तथा वह शरीर, शोल एवं प्रज्ञा की भावना अर्थात् चिन्तन भी नहीं करता।
(२) स्रोतआपन्नचित्त-यह भी अविकास की ही अवस्था है। इस 'स्थिति में साधक बुद्धकथित मार्ग को भलीभांति जानकर, शास्त्र का अच्छी तरह मनन और चिन्तन करके भी चित्त के तीन भ्रममूलक विषयों अर्थात् संयोजनाओं को ही नष्ट कर पाता है, सम्पूर्ण संयोजनाओं को नहीं।
(३) सकृदागामोचित्त-इस अवस्था में साधक पाँच संयोजनाओं से मुक्त होता है और उसमें रागद्वेष नाममात्र का रह जाता है।
(४) अनागामी चित्त-इस अवस्था में शेष पाँच संयोजनाओं को साधक काटता है और चित्त दस स्थानों में हलका और तेज हो जाता है। 'फिर भी ऊपर की पांच संयोजनाओं में उसका चित्त भारी और मन्द बना ही रहता है।
(५) अर्हतचित्त-इस अवस्था में योगी के सभी आस्रव, क्लेश सर्वथा क्षीण हो जाते हैं और वह ब्रह्मचर्यावास को पूरा करके सभी प्रकार के भवपाशों का व्युच्छेद कर डालता है। फलस्वरूप उसका चित्त अत्यन्त शुद्ध एवं निर्मल बन जाता है। ध्यातव्य है कि इस अवस्था में चित्त को
१. मझिमनिकाय, ११ २. मिलिन्दप्रश्न, ४।१।३ ३. ये दस संयोजनाएँ अर्थात् बन्धन के कारण इस तरह हैं
(१) सक्कायदिट्ठि; (२) विचिकच्छा, (३) सीलबत्त पराभास, (४) कामराग, (५) पटीध, (६) रूपराग, (७) अरुणराग, (८) मान, (९) उद्धव (१०) अविच्चा। -विशुद्धिमार्ग, भा॰ २, परिच्छेद २२, पृ० २७१
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