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जैन योग - साहित्य
यथा योगार्णव अथवा योगप्रदीप । ये सम्भवतः राजा भोज के काल में अर्थात् विक्रम की १२वीं शती में हुए हैं।' इस ग्रन्थ में ३९ प्रकरण और २२३० श्लोक हैं । यह एक उत्कृष्ट योगपरक ग्रन्थ है । इसमें बारह भावनाओं के स्वरूप, संसारबन्धन के कारण, कषाय, मन के विषय, आत्मा एवं बाह्य पदार्थों के सम्बन्ध, यम, नियम, आसन, प्राणायाम आदि का विस्तृत एवं सुस्पष्ट वर्णन है । ध्यान एवं ध्यान के भेदों का विशेष विश्लेषण - विवेचन है; साथ ही मन्त्र, जप, शुभ-अशुभ, शकुन, नाड़ी आदि विषयों पर भी प्रकाश डाला गया है । योगशास्त्र अथवा अध्यात्मोपनिषद् *
यह ग्रन्थ १२वीं शताब्दी के कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्रकृत है । वस्तुतः यह योगशास्त्र का एक बहुचर्चित ग्रन्थ है, जो एक हजार श्लोक -प्रमाण है । इस पर उनकी एक स्वोपज्ञवृत्ति भी है, जिसके द्वारा योगशास्त्र के ही विषयों को कथाओं एवं दृष्टान्तों के माध्यम से और अधिक स्पष्ट किया गया है । यह वृत्ति बारह हजार श्लोकप्रमाण है । योगशास्त्र पर ज्ञानार्णव का अत्यधिक प्रभाव परिलक्षित होता है ।
योगशास्त्र में बारह प्रकाश अथवा अध्याय हैं । प्रथम से तृतीय अध्याय तक साधु एवं गृहस्थों के आचारों का निरूपण है । चौथे अध्याय में कषायों पर विजय पाने तथा समतावृत्ति के स्वरूपादि का वर्णन है ।
१. भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान, पृ० १२१ ; जैन ग्रन्थ और ग्रन्थकार, पृ० ३०
२. ( अ ) हेमचन्द्रीय स्वोपज्ञवृत्ति, प्रकाशक एशियाटिक सोसाइटी, कलकत्ता, सन् १९२१
(आ) स्वोपज्ञवृत्ति सहित, जैनधर्म प्रसारक सभा, भावनगर, ई० १९२६, (इ) सम्पादक मुनि समदर्शी, ऋषभ जौहरी, दिल्ली, सन् १९६३ (ई) गुजराती भाषा में अनूदित एवं सम्पादित, जगजीवनदास, बम्बई, सन् १९४१
(उ) गो० जी० पटेल द्वारा सम्पादित, अहमदाबाद, सन् १९३८
(ऊ) इस पर इन्द्रनन्दी की एक टीका प्राप्त है जो कारंजा के ग्रन्थभण्डार में सुरक्षित है । इसका समय वि० सं० ११८० है |
(ऋ) इस पर दूसरी टीका संवत् १३३४ में लिखी हुई देवपत्तन में प्राप्त है ।
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