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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन
पाँचवें अध्याय में प्राणायाम का विषय है और बताया गया है कि प्राणायाम मोक्ष - साधना के लिए अनावश्यक है । छठे अध्याय में परकायाप्रवेश, प्रत्याहार एवं धारणा के स्वरूप और उनके फलों का वर्णन है । सात से दसवें अध्याय तक आर्त्त, रौद्र और धर्मध्यान के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा है । ग्यारहवें एवं बारहवें अध्याय में क्रमशः शुक्लध्यान तथा स्वानुभव के आधार पर योग का सम्यक् विवेचन है ।
अध्यात्मरहस्य अथवा योगोद्दीपन'
योगविषयक इस ग्रन्थ के रचयिता पं० आशाधरजी हैं । उन्होंने वि० सं० १३०० में अपने अनगारधर्मामृत ग्रन्थ की स्वोपज्ञटीका पूरी की और उसमें इस ग्रन्थ का उल्लेख किया है । अतएव उससे कुछ समय पहले ही इस ग्रन्थ की रचना हुई होगी । इस ग्रन्थ की पदसंख्या ७२ है। इस ग्रन्थ में विशेषतः अध्यात्मयोग की चर्चा है और उसके सन्दर्भ में ही आत्मा एवं परमात्मा से सम्बन्ध रखनेवाले गूढ़ तत्त्वों का भी वर्णन है । अवान्तर रूप में कर्म, ध्यान आदि विषयों का भी विवेचन है |
योगसार #
विक्रम की १२वीं शती के पूर्व विनिर्मित यह ग्रन्थ अज्ञातकर्तृक है । इस ग्रन्थ में कुल १०६ संस्कृत पद्य हैं, जिनमें पाँच प्रस्तावों के विधान हैं, यथा -- (१) यथावस्थित देवस्वरूपोपदेश, (२) तत्त्वसार धर्मोपदेश, (३) साम्योपदेश, (४) सत्वोपदेश और ( ५ ) भावशुद्धिजनकोपदेश । योगप्रदीप *
इस संस्कृत ग्रंथ के प्रणेता का नाम एवं उनका समय अज्ञात है ।
१. जुगलकिशोर मुख्तार द्वारा सम्पादित, वीर सेवा मन्दिर, दिल्ली, सन् १९५७ २. अध्यात्म रहस्य, प्रस्तावना, पृ० ३४
३. गुजराती अनुवाद अमृतलाल कालीदास दोशी, जैन विकास साहित्य मण्डल, बम्बई, सन् १९६८
४. ( अ ) सम्पादक जीतमुनि, जोधपुर, वीर नि० सं० २४४८
(आ) प्रकाशक- जैन साहित्य विकास मण्डल, बम्बई, ई० सन् १९६०
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