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जैन योग - साहित्य
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इसमें कुल १४३ श्लोक हैं, जिनमें परमात्मा के साथ शुद्ध मिलन, परमपद की प्राप्ति आदि की विस्तृत चर्चा है । प्रसंगवश उन्मनीभाव, समरसता, रूपातीत ध्यान, सामायिक, शुक्लध्यान, अनाहतनाद. निराकार ध्यान आदि विषयों का प्रतिपादन भी है।
यशोविजयकृत योगपरक ग्रन्थ
यशोविजयजी का समय ई० १८वीं शताब्दी है । इन्होंने अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद्, योगावतार बत्तीसी, पातंजल योगसूत्रवृत्ति, योगविंशिका की टीका तथा योगदृष्टिनी सज्झायमाला की रचना की है । इन ग्रन्थों में इन्होंने योगसम्बन्धी बहुत सी बातों का विवेचन व स्पष्टीकरण किया है। रचनाओं का संक्षिप्त परिचय यहाँ दिया जा रहा है ।
१. अध्यात्मसार ' - यह ग्रन्थ सात प्रकरणों में विभक्त है । योगाधिकार एवं ध्यानाधिकार प्रकरण में मुख्यतः गीता एवं पातंजल योगसूत्र के विषयों के सन्दर्भ में जैन योग-परम्परा के प्रसिद्ध ध्यान के भेदों का समन्वयात्मक विवेचन है । इस दृष्टि से इस ग्रन्थ की उपयोगिता स्वयंसिद्ध है ।
२. अध्यात्मोपनिषद् - इस ग्रन्थ में शास्त्रयोग, ज्ञानयोग, क्रियायोग और साम्ययोग पर समुचित प्रकाश डाला गया है और औपनिषदिक एवं योगवासिष्ठ की उद्धरणियों के साथ जैन दर्शन की तात्त्विक समानता दिखलायी गयी है ।
३. योगावतार बत्तीसी' - इस ग्रन्थ में ३२ प्रकरण हैं जिनमें आचार्य हरिभद्र के योग-ग्रन्थों की ही विस्तृत एवं स्पष्ट व्याख्या प्रतिपादित है |
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४. पातंजलयोगसूत्र एवं योगविशिका -- पातंजलयोगसूत्र के सन्दर्भ में जैन योग का विश्लेषण एवं विवेचन इस ग्रन्थ का प्रतिपाद्य है ।
१. श्री यशोविजयगणि, प्रकाशक, केशरबाई ज्ञान भण्डार स्थापक, जामनगर वि० सं० १९९४
२ . वही
३. सटीक, प्रकाशक- जैनधर्म प्रसारक सभा, भावनगर, वि० सं० १९६६ ४. सम्पादक - पं० सुखलाल, प्रकाशक- जैन आत्मानन्द सभा, भावनगर, सन् १९२२
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