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- उपसंहार
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का व्युच्छेद होता है, त्यों-त्यों आत्मा अपने गुणों से अवगत होती जाती है और उसे सत्य एवं असत्य वस्तु की पहचान भी होती जाती है । आठ कर्मों में से चार घातिया कर्मों का व्युच्छेद करके आत्मा सर्वज्ञ की स्थिति को प्राप्त करती है, इसे अरिहंत अवस्था कहते हैं । यह अरिहंत आत्मा अन्य मुमुक्षु जीवों को आध्यात्मिक मार्ग का उपदेश करती है तथा सम्पूर्ण लोक के वर्तमान, भूत तथा भविष्यत् काल को युगपत देखतीजानती है । इस अवस्था को पातंजल योग दर्शन में सर्वज्ञ अवस्था कहा गया है, जो सम्प्रज्ञात समाधि के बाद प्रारम्भ होती है । लेकिन बौद्ध योग में इस सर्वज्ञवाद का प्रतिवाद किया गया है और तर्क दिया गया है कि कोई भी व्यक्ति सर्वज्ञ होने का दावा नहीं कर सकता, क्योंकि सर्व वस्तुओं का युगपत् ज्ञान कोई भी नहीं रख सकता ।
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मोक्ष - सर्वज्ञ अथवा अरिहंत अवस्था के बाद आत्मा सिद्धावस्था को प्राप्त होती है, जहाँ शेष चार अघातिया कर्मों का भी क्षय हो जाता है । इस अवस्था में शरीर की श्वासोच्छ्वास आदि सूक्ष्म क्रियाएँ भी रुक जाती हैं और आत्मा लोक के अग्रभाग में पहुँच जाती है, जहां उसका अपना स्वतंत्र और शाश्वत अस्तित्व रहता है । वह जन्म-मरण से छूट जाती है ।
मनुष्य की पूर्ण प्रतिष्ठा - वैदिक योग ईश्वर की स्वतंत्र सत्ता में विश्वास रखता है । जैनयोग वैसा नहीं मानता है, क्योंकि उसकी मान्यता है कि प्रत्येक जीव या आत्मा ही ईश्वर या परमात्मा बन सकता है । अज्ञान अथवा मिथ्यात्व के कारण ही जीव अपनी शक्ति को पहचान नहीं पाता । सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति से जब वह आत्म-साक्षात्कार कर पाने में समर्थ होता है, तब ही वह मोक्ष प्राप्त करता है । इस प्रकार योग् द्वारा साधक आत्म-शक्ति की पहचान करता है और किसी बाहरी शक्ति को आत्मसात् नहीं करता । योग साधना के क्रम में योगी को अनेक लब्धियों की प्राप्ति होती है, लेकिन वह उनका प्रयोग अपनी लोभवृत्ति की पुष्टि के लिए नहीं करता । योग के क्रम में परचित - मनोविज्ञान की भी प्राप्ति होती है जिसके द्वारा योगी दूसरों के मन की बात समझ सकने में समर्थ होता है । इस परज्ञान को ही जैनयोग में मनःपर्यायज्ञान कहा गया है ।
योग की विभिन्न परम्पराओं में विभिन्न मार्गों का अवलम्बन किया जाता है । कोई ज्ञानयोग की प्रमुखता मानता है तो कोई क्रियायोग
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