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भारतीय परम्परा में योग
यम, नियमादि योगों का सम्यक् उल्लेख किया है। पतंजलि का योगदर्शन तो योगराज ही है, जिसमें सम्यक्रूप से योग-साधना का सांगोपांग विवेचन हुआ है । ब्रह्मसूत्र' के तीसरे अध्याय का नाम साधनपाद है, जिसमें आसन, ध्यान आदि योगांगों की चर्चा है ।
तन्त्रयोग के अन्तर्गत हठयोग - सिद्धान्त की स्थापना करते हुए आदिनाथ ने योग की क्रियाओं द्वारा शरीर के अंग-प्रत्यंगों पर प्रभुत्व प्राप्त करने तथा मन की स्थिरता प्राप्त करने का रहस्य बताया है ।
बौद्ध परम्परा निवृत्ति- प्रधान है, इसलिए इस परम्परा में भी आचार, नीति, खान-पान, शील, प्रज्ञा, ध्यान आदि के रूप में योगसाधना का गहरा विवेचन हुआ है । बौद्ध योग साधना का विशुद्धिमार्ग, समाधिराज, दीघनिकाय, शेकोद्देशटीका आदि ग्रन्थों में विस्तृत वर्णन है । यह प्रसिद्ध है कि भगवान् बुद्ध ने बुद्धत्व प्राप्त होने के पहले छह वर्षों तक ध्यान द्वारा योगाभ्यास किया था ।
योग की विस्तृत और अविच्छिन्न परम्परा में जैनों का भी अपना विशिष्ट स्थान रहा है । बौद्धों की भाँति निवृत्तिपरक विचारधारा के पोषक जैन साहित्य में भी योग की बहुत चर्चा हुई है और उसका महत्त्व स्वीकार किया गया है । सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन आदि आगमों में उल्लिखित 'अज्झप्पजोग' 'समाधिजोग'' आदि पदों में, जिनका अर्थ ध्यान या समाधि है, योग की ही ध्वनि सन्निहित है । वास्तव में देखा जाय तो योग के क्रमबद्ध विवेचन का सूत्रपात आचार्य हरिभद्र ने किया
१. ब्रह्मसूत्र, ४।१।७-११
२. हठयोग से संबंधित हठयोग प्रदीपिका, शिवसंहिता, घेरण्डसंहिता, योगतारावलि, विन्दुयोग, योगबीज, गोरक्षशतक, योगकल्पद्रुम, अमनस्कयोग आदि ग्रन्थ द्रष्टव्य हैं ।
३. एत्थ वि भिक्खू अणुन्नए विणीए नामए दन्ते दविए वोसट्टकाए संविधुणीय विरूविरूवे परिसहोवसग्गे उवट्ठि ठिअप्पा संखाए परदतमोई भिक्खुत्ति बच्चे । -- सूत्रकृतांग, १ १६ ३
४. इह जीवियं अणियमेता पब्भट्ठा समाहिजोएहि ।
ते कामभोगरसगिद्धा उववज्जन्ति आसुरे काए ।
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- उत्तराध्ययनसूत्र, ८1१४
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