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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन है। उन्होंने योग की सांगोपांग व्याख्या योगशतक, योगविन्दु, योगदृष्टिसमुच्चय, योगविशिका, आदि ग्रन्थों में की है। इस सन्दर्भ में शुभचन्द्र का ज्ञानार्णव, हेमचन्द्र का योगशास्त्र तथा यशोविजय के योगावतारबत्तीसी, (जैनमतानुसार ) पातंजल योगसूत्र, योगविशिका को टीका तथा योगदृष्टिनी सज्झायमाला, अध्यात्मोपनिषद् आदि ग्रन्थ विशेष उल्लेखनीय हैं, जिनमें योगविषयक विस्तृत विवेचन हुआ है। - इस प्रकार योग की परम्परा भारतीय संस्कृति में अविच्छिन्न रूप से प्रवाहित है और चिरकाल से भारतीय मनीषियों, सन्तों, विचारकों तथा महापुरुषों ने अपने जीवन एवं विचारों में योग को यथोचित स्थान दिया है। वेदकालीन योग-परम्परा __ वेद-मन्त्र रहस्यमय विचारों से भरे हुए हैं। उन मन्त्रों पर गहराई से विचार करने पर पता चलता है कि उनमें योगपरक सामग्री बहत है। ऋग्वेद का प्रत्येक शब्द प्रतीकात्मक है। प्रायः अग्नि, इन्द्र, सोम, आदि का वर्णन प्राप्त होता है, परन्तु इस वर्णन के पीछे आध्यात्मिक अनुभव का मूल है जो उस सन्दर्भ में लक्षित अर्थ को लगाने पर ही समझ में आता है। इस तरह देखा जाय तो वैदिक काल से ही योग-परम्परा प्रारम्भ हो जाती है जो योगमाया नाम से व्यवहृत है। इतना ही नहीं, मोहनजोदड़ो में प्राप्त एक मुद्रा पर अंकिंत चित्र में त्रिशूल, मुकुटविन्यास, नग्नता, कायोत्सर्गमुद्रा, नासाग्रदृष्टि, योगचर्या, बैल का चिह्न आदि हैं, जिससे सिद्ध होता है कि मूर्ति किसी योगी के अतिरिक्त और किसी की नहीं है ।२ मोहनजोदड़ो की सभ्यता का काल अनुमानतः ई० पू० ३२५०-२७५० है, जो करीब-करीब वैदिककाल ही है। इस आधार पर भी कहा जा सकता है कि योग का स्थान भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से ही रहा है। ___ इस प्रकार वेदों में योग-प्रणाली का अस्तित्व किसी-न-किसी प्रकार
१. अथ सैषा योगमायामहिमा परम्परास्माकं वेदेम्य आरभ्य ।
-वैदिकयोगसूत्र, पृ० २२ 2. Mohen-Jodaro and the Indus Civilization, Vol. I, p. 53 3. History of Ancient India, p. 25
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