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________________ १८० जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन ले जानेवाली जपविधियों का अभ्यास किया जाता है। जपविधियों से विभिन्न लब्धियां भी प्राप्त होती हैं, जिनसे साधक को दूर रहना चाहिए; क्योंकि उनका लक्ष्य चित्त को शुद्ध और एकाग्र करना है, न कि जादूटोना करना । वस्तुतः योगी सांसारिक प्रपंचों से रहित होता है, इसलिए उसके ध्यान की शुद्धि अवश्य होती है। लेकिन जो रागद्वेषादि से मोहित होकर उसे दूर करने के विचार से ध्यान करता है, उसको सिद्धियां प्राप्त नहीं होती।' इस ध्यान के द्वारा योगी इन्द्रियलोलुपता से रहित स्थिरमन, निरोग, उदारअन्तःकरण, शरीर से गंधयुक्त मलमूत्रादि कम करने वाला तथा मितभाषी होता है। (३) रूपस्थ ध्यान-इस ध्यान में साधक अपने मन को तीर्थंकर अथवा सर्वज्ञदेव पर केन्द्रित करता है अर्थात् तीर्थंकर के गुणों एवं आदर्शो' को अपने समक्ष लाता है अथवा उन्हें अपने में आरोपित करके मन को स्थिर करता है। अरहंत भगवान् के स्वरूप का अक्लम्बन करके किया जानेवाला ध्यान रूपस्थ ध्यान कहलाता है। रूपस्थ ध्यान का साधक रागद्वेषादि विकारों से रहित, शान्तकान्तादि समस्त गुणों से युक्त, तथा योगमुद्रा बहाने वाला, अतिशय गुणों से युक्त जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा का निर्मल चित्त से ध्यान करनेवाला होता है। ऐसा योगी वीतराग होकर कर्मों से मुक्त होता है, अन्यथा रागी का ध्यान करने से वह स्वयं रागी बन जाता है, क्योंकि आत्मा १. वीतरागस्य विज्ञेया ध्यानसिद्धिर्धवं मुनेः । क्लेश एव तदर्थ स्याद्रागार्तस्येह देहिनः ।। - ज्ञानार्णव, ३५।११५ २. अलौल्यमारोग्यमनिष्ठुरत्वं गन्धः शुभो मूत्रपुरीषमल्पम् । कान्तिः प्रसादः स्वरसौम्यता च योगप्रवृत्तेः प्रथमं हि चिह्नम् ॥ -ज्ञानार्णव में उद्धृत, ३८।१३ (१) ३. अर्हतो रूपमालम्ब्य ध्यानं रूपस्थमुच्यते। -योगशास्त्र, ९७ ४. योगशास्त्र, ९।८-१०; ज्ञानार्णव, अध्याय ३६ ५. वीतरागो विमुच्येत वीतरागं विचिन्तयन् । रागिणं तु समालम्ब्य रागी स्यात् क्षोभणादिकृत् । -योगशास्त्र, ९:१३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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