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योग के साधन : ध्यान
૧૮૧ के परिणाम जिन-जिन भावों से युक्त होते हैं, उन्हीं के अनुरूप वे परिणत हो जाते हैं।
(४) रूपातीत ध्यान-रूपातीत ध्यान का अर्थ है रूप-रंग से अतीत निरंजन, निराकार, ज्ञानशरीरी आनन्दस्वरूप स्मरण करना ।२ इस अवस्था में ध्याता और ध्येय एकरूप हो जाते हैं । अत: इस अवस्था को समरसीभाव भी कहा गया है ।। . इस तरह पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ तथा रूपातीत ध्यानों द्वारा क्रमशः शरीर, अक्षर, सर्वज्ञदेव तथा सिद्धात्मा का चिंतन किया जाता है; क्योंकि स्थूल ध्येयों के बाद क्रमशः सूक्ष्म और सूक्ष्मतर ध्येय का ध्यान करने से मन में स्थिरता आती है और ध्याता एवं ध्येय में कोई अन्तर नहीं रह जाता।
धर्मध्यान के इन भेद-प्रभेदों के माध्यम से योगी ध्यान की स्थिरता को प्राप्त करने में समर्थ होता है और उसका चित्त किसी एक ही ध्येय में केन्द्रित हो जाता है। वैसी स्थिति में योगी शरीरादिक परिग्रहों एवं इन्द्रियादिक विषयों से सर्वथा निवृत्त हो जाता है और एकाग्र होकर आत्मा में अवस्थित हो जाता है । अर्थात् धर्मध्यान में योगी बाह्याभ्यन्तर परिग्रह का त्याग करके बाह्य वस्तु का आलम्बन लेकर आत्म-समीपस्थ होने के लिए प्रयत्नशील होता है। लेकिन यह ध्यान सभी मनुष्य नहीं कर सकते, अपितु वे ही ( योगी ) कर सकते हैं जो भले ही प्राणों का त्याग करना पड़े, लेकिन संयम से च्युत न हों, अन्य जोवों के सुखदुःख को अपने सुख-दुःख जैसा समझें, परोषह-जयी हों, मुमुक्षु हों, रागद्वेषादि कषायों-दुष्प्रवृत्तियों एवं कामवासनाओं से मुक्त हों, शत्रु-मित्र,
१. येन येन हि भावेन युज्यते यंत्रवाहकः । -वही, ९।१४ २. (क) चिदानन्दमयं शुद्धममूर्तं ज्ञानविग्रहम् ।
___ स्मरेद्यत्रात्मनात्मानं तद्रूपातीतमिष्यते ॥ -ज्ञानार्णव, ३७:१६
(ख) योगशास्त्र, १०११ ३. योगशास्त्र, १०॥३-४ ४. अतिक्रम्य शरीरादिसंगानात्मन्यवस्थितः ।
नैवाक्षमनसोर्योगं करोत्यैकाग्रतां श्रितः ॥ -ज्ञानार्णव, ३८०९
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