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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन
समुद्घात की इस क्रिया के पश्चात् योगी बादर (स्थूल ) काययोग का अवलम्बन लेकर बादर मनोयोग एवं वचनयोग का निरोध करते हैं। वे सूक्ष्म काययोग का अवलम्बन लेकर बादरकाययोग का निरोध करते हैं। इसके पश्चात् वे सूक्ष्म काययोग के अवलम्बन से सूक्ष्म मनोयोग तथा वचनयोग का भी निरोध कर डालते हैं। ऐसी अवस्थाओं में जो ध्यान किया जाता है उसे ही सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति शुक्लध्यान कहते हैं। ___इस ध्यान में योगी के मोक्षप्राप्ति का समय निकट आ जाने पर तीन योगों में मनोयोग एवं वचनयोग का पूर्णतः निरोध हो जाता है, लेकिन काययोग में स्थूल काययोग का निरोध होकर भी केवल सूक्ष्मकाययोग की क्रिया अर्थात् श्वासोच्छ्वास ही शेष रहता है । अतः इस ध्यान में क्रमशः मन, वचन एवं काय का निरोध होता है और काययोग के अन्तर्गत केवल श्वास जैसी सूक्ष्म क्रिया ही अवशिष्ट रहती है। इस ध्यान को प्राप्ति के बाद योगी अन्य ध्यानों में नहीं लौटता और वह अन्तिम समय में सूक्ष्म क्रिया का भी त्याग करके मुक्ति प्राप्त करता है।
(ई) उत्पन्न क्रियाप्रतिपाति ( व्यपरतक्रियानिवृत्ति )-इस ध्यान में उपयुक्त ध्यान की अवशिष्ट सूक्ष्म क्रिया की भी निवृत्ति हो जाती है तथा अ, इ, उ, ऋ, ल इन पाँच ह्रस्व स्वरों का उच्चारण करने में जितना समय लगता है उतने समय में केवली भगवान् शैलेशी अवस्था को प्राप्त होते हैं। जहाँ वे पर्वत की भाँति निश्चल रहते हैं। यह ध्यान
१. योगशास्त्र, १११५३-५५ २. (क) निर्वाणगमनसमये केवलिनो दरनिरुद्धयोगस्य ।
सूक्ष्मक्रिया-प्रतिपाति तृतीयं कीर्तितं शुक्लम् ॥-योगशास्त्र, ११।८ (ख) सूक्ष्मक्रियानिवृत्याख्यं, तृतीयं तु जिनस्यतत् । अर्धरुद्धांगयोगस्य, रुद्धयोगद्वयस्य च ॥
-अध्यात्मसार, ५१७८ ३. ध्यानशतक, ८१ ४. (क) लघुवर्ण-पंचकोद्गिरणतुल्यकालमवाप्य शैलेशीम् ।
-योगशास्त्र, १११५७
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