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योग के साधन : ध्यान अनेक लब्धियाँ प्राप्त होती हैं, तथापि उन्हें भोगने की इच्छा वे नहीं करते हैं।
जिन जीवों के तीर्थंकर नामकर्म का उदय नहीं है, वे भी अपने इस ध्यान के बल से केवलज्ञान को प्राप्त होते हैं तथा आयुकर्म के निःशेष होने तक साधारण जीवों को धर्मोपदेश देते हैं और अन्त में निर्वाण प्राप्त करते हैं। इस प्रकार चाहे तीर्थंकर हों या सामान्यकेवली, जिन्होंने योग ( मन-वचन-काय) की शुद्धि की है, वे विशुद्ध आत्मा के ध्यान एवं चिन्तन द्वारा अनन्त कर्मपुद्गलों को क्षणमात्र में नष्ट कर देते हैं । __ (ई) सक्षम-क्रिया-प्रतिपाति-अरहन्त परमेष्ठी की अवस्था में जब आयुकर्म अन्तर्मुहूर्त तक ही अवशिष्ट रहता है और अघातिया कर्मों में अर्थात् नाम, गोत्र और वेदनीय इन तीनों की स्थिति आयुकर्म से अधिक हो जाती है तब उन्हें समरूप देने के लिए अथवा समान करने के लिए तीर्थंकर एवं सामान्यकेवली-इन दोनों को समुद्घात की अपेक्षा होती है। यह समुद्घात आठ दण्ड में होता है। ऐसा करते समय केवली भगवान् तीन समय में अपने आत्मप्रदेशों को दण्ड, कपाट एवं प्रस्तर के रूप में फैला देते हैं तथा चौथे समय में सम्पूर्ण लोक को व्यापते हैं। लोक में अपने आत्मप्रदेशों को व्याप्त करके योगी तीनों अघातिया कर्मों ( वेदनीय, नाम एवं गोत्र ) की स्थिति घटाकर आयुकर्म के समान करते हैं। तत्पश्चात् उसी क्रम में वे आत्मप्रदेश पूर्ववत् शरीर में प्रविष्ट होकर अवस्थित हो जाते हैं । इसी प्रकार समुद्धात की क्रिया पूर्ण होती है।
१. तीर्थकरनामसंज्ञं न यस्य कर्मास्ति सोऽपि योगबलात् । उत्पन्न केवल: सन् सत्यायुषि बोधयत्युर्वीम् ॥
-योगशास्त्र, १११४८ २. यतो योग विशुद्धानामनन्त-कर्म-पुद्गलाः।। । प्रणश्यन्ति क्षणार्धन स्वात्म-ध्यानादि-भावनैः ।।
-समाधिमरणोत्साहदीपक, १६२ ३. यदायुरधिकानि स्युः कर्माणि परमेष्ठिनः ।
समुद्धातविधि साक्षात् प्रागेवारभते तदा ॥-ज्ञानार्णव, ३९-३८ ४. वही, ३९१३९-४२; योगशास्त्र, १११४९-५२
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