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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन
द्वितीय ध्यान के योग्य होता है । फलतः इस ध्यान की सिद्धि होने के बाद सदा के लिए घातिया कर्म (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय) विनष्ट हो जाते हैं । अर्थात् इस द्वितीय ध्यान का योगी आत्मा की अत्यन्त विशुद्ध अवस्था अर्थात् केवलदर्शन एवं केवलज्ञान प्राप्त करता है । अतः उस योगी को सम्पूर्ण जगत् हस्तामलकवत दीखने लगता है, ४ क्योंकि केवलज्ञान में इतनी शक्ति होती है कि समस्त संसार की भूत, भविष्यत् एवं वर्तमान तीनों कालों की घटनाओं का युगपत ज्ञान होता है । उसे अनन्तसुख, अनन्तवीर्य आदि की भी प्राप्ति सहज हो जाती है ।" पृथ्वीतल के समस्त जीव केवलज्ञानी को नमस्कार करते हैं, उनके धर्म-प्रवचनों को सभी प्राणी अपनी भाषा में समझते हैं, वे जहाँ भी घूमते हैं वहाँ किसी भी प्रकार की महामारी अथवा दुर्भिक्ष वगैरह नहीं होते । ऐसे केवललब्धि प्राप्त तीर्थङ्कर से सहज स्व-पर कल्याण होता है । तीर्थङ्कर नामकर्म के उदय के कारण उन्हें अनेक देव-देवाङ्गनाएँ आकर बन्दना करने लगते हैं, उनके उपदेश श्रवण के लिए देवों द्वारा बृहद् समवसरण ( सभा मण्डप ) की रचना की जाती है, पशु-पक्षी अर्थात् सभी प्राणी अपने वेर भाव को भूलकर एकत्र बैठने लगते हैं, तथा सभा मण्डप के मध्य में स्थित तीर्थंकर भगवान् चार शरीर के रूप में दिखाई देने लगते हैं । यद्यपि इन्हें अन्य प्रकार की
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१. एवं शांतकषायात्मा कर्मकक्षाशुशुक्षणिः ।
एकत्वध्यानयोग्यः स्यात्पृथकत्वेन जिताशयः । -ज्ञानार्णव में उद्धृत, ३९।१९ (४)
२. ज्ञानावरणीयं दृष्टयावरणीयं च मोहनीयं च ।
विलयं प्रयान्ति सहसा सहान्तरायेण कर्माणि ॥ - योगशास्त्र, ११।२२
३. आत्मलाभमथासाद्य शुद्धि चात्यन्तिकीं पराम् ।
प्राप्नोति केवलज्ञानं तथा केवलदर्शनम् ॥ - ज्ञानार्णव, ३९।२६
४. सम्प्राप्य केवलज्ञानदर्शने दुर्लभे ततो योगी ।
जानाति पश्यति तथा लोकालोकं यथावस्थम् ॥ - योगशास्त्र, ११।२३ ५. अनन्त सुखवीर्यादिभूतेः स्यादग्रिमं पदम् । - ज्ञानार्णव, ३९।२८
६. योगशास्त्र, ११।२४-४४
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