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योग के साधन : ध्यान
१८५ काययोग अथवा मनोयोग में, काययोग से मनोयोग या वचनयोग में संक्रमण होता रहता है । अतः अर्थ-शब्द-योग की दृष्टि से, संक्रमण होने पर भी, ध्येय एक ही रहता है और मन की स्थिरता भी बनी रहती है। कहा है कि जब तक इन तीनों योगों को आत्मबद्धि से ग्रहण किया जाता है, तब तक यह जीव संसार में ही रहता है', श्रुतपूर्वक मन-वचन-कायादि में विचारों के संक्रमण के कारण जीव संसारी ही रहता है, फिर भी पूर्ववर्ती ध्यानों की अपेक्षा मन की स्थिरता तथा समताभाव की वृद्धि इस ध्यान में अधिक होती है। यही कारण है कि योगी मुक्ति की ओर अग्रसर होने लगता है। एक शब्द से दूसरे शब्द पर तथा एक योग से दूसरे योग पर जाने के कारण ही इस ध्यान को सविचार-सवितकं कहा गया है ।
(आ) एकत्व-श्रत अवीचार-इस ध्यान में श्रुत के आधार पर ही अर्थ-व्यञ्जन-योग के संक्रमण से रहित एक पर्यायविषयक ध्यान किया जाता है। अर्थात् इसमें वितर्क का संक्रमण नहीं होता और इसके विपरीत एकरूप में स्थिर होकर चिन्तन किया जाता है। जहाँ पहले प्रकार के ध्यान के अन्तर्गत योगी का मन अर्थ-व्यञ्जन-योग में चिन्तन करते हुए एक ही आलम्बन में उलट-फेर करता रहता है, वहाँ इस ध्यान में योगी की मन-स्थिरता सबल हो जाती है, आलम्बन का उलट-फेर बन्द हो जाता है तथा एक ही द्रव्य की विभिन्न पर्यायों के विपरीत एक ही पर्याय को ध्येय बना लिया जाता है। अतः जिसने प्रथम ध्यान द्वारा अपने चित्त को जीत लिया है, जिसके समस्त कषाय शांत हो गये हैं तथा जो कर्मरज को सर्वथा नष्ट करने के लिए तत्पर है-ऐसा साधक ही इस
१. स्वबुध्या यावद्गृण्हीयात् कायवाक्चेतसां त्रयम् ।
संसारस्तावदेतेषां भेदाभ्यासे तु निर्वृतिः ॥ -समाधितंत्र, ६२ २. शब्दाच्छब्दान्तरं यायाद्योगं योगान्तरादपि । सवीचारमिदं तस्मात्सवितकं च लक्ष्यते ॥
-ज्ञानार्णव में उद्धृत, ३९।१९(२) ३. (क) एवं श्रुतानुसारादेवक्त्व-वितर्कमेक-पर्याये ।
अर्थ-व्यअन-योगान्तरेष्वसंक्रमणमन्यत्तु ॥ -योगशास्त्र, ११७ (ख) ध्यानशतक, ७९-८०
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