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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन
के ही निरालम्बपूर्वक होता है। इस सन्दर्भ में अनेकपन अर्थात् विभिनता को पृथकत्व कहा गया है तथा शास्त्रविहित ज्ञान को वित्त, अर्धव्यञ्जन एवं योग के संक्रमण को विचार कहा है । प्रथम दो ध्यानों में श्रुत का अवलम्बन होने के कारण साधक का मन एक ही आलम्बन में स्थिर होते हुए भी, अर्थ-व्यञ्जनादि से संक्रमित होता रहता है । यहाँ एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ में स्थिर होना अर्थसंक्रान्ति और एक व्यञ्जन से दूसरे व्यंजन में स्थिर होना व्यंजनसंक्रांति तथा उसी प्रकार एक योग से दूसरे योग में गमन करना योग-संक्रांति है । इस प्रकार प्रथम दो ध्यानों में एक अर्थ से दूसरे अर्थ में, एक शब्द से दूसरे शब्द में और एक योग से दूसरे योग में आश्रय लेकर चिन्तन किया जाता है, यद्यपि तीनों के चिन्तन करने का विषय एक ही होता है ।
(अ) पृथकत्व श्रुत-स विचार ( पृथकत्व - वितर्कसविचार ) - इस ध्यान में पृथक्-पृथक् रूप से श्रुत का विचार होता है अर्थात् किसी एक द्रव्य में उत्पाद - व्यय- ध्रौव्य आदि पर्यायों का चिन्तन श्रुत का आधार लेकर करना पृथकत्व - वितर्क सविचार ध्यान है । इस ध्यान में अर्थ-व्यञ्जन ( शब्द ) तथा योग का संक्रमण होता रहता है ।" उस समय ध्याता कभी तो अर्थ का चिन्तन करते-करते शब्द का चिन्तन करने लगता है और कभी शब्द का चिंतन करते-करते अर्थ का इस प्रकार मन, वचन एवं काय रूप योग में भी कभी मनोयोग से काययोग या वचनयोग में, वचनयोग से
१. छद्मस्थयोगिनामाद्ये द्वे शुक्ले परिकीर्तिते ।
द्वे चान्ते क्षीणदोषाणां केवलज्ञानचक्षुषाम् ॥ श्रुतज्ञानार्थसम्बन्धाच्छू तालम्बनपूर्वके ।
पूर्वे परे जिनेन्द्रस्य निः शेषालम्बनच्युते ॥ - ज्ञानार्णव, ३९।६-७ २. पृथक्त्वं तत्र नानात्वं वितकं श्रुतमुच्यते ।
अर्थव्यञ्जनयोगानां वीचार : संक्रमः स्मृतः ॥ - वही, ३९।१४ ३. ज्ञानार्णव, ४२।१५-१६
४. एकत्रपर्यायाणां विविधनयानुसरणं श्रुताद् द्रव्ये । अर्थव्यञ्जन-योगान्तरेषु संक्रमण युक्तमाद्यं तत् ॥
५. अध्यात्मसार, ५७४-६७
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- योगशास्त्र, ११६,
तथा ध्यानशतक, ७७-७८
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