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योग के साधन : ध्यान
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होता है । इस ध्यान की प्रक्रिया के लिए किसी बाह्य ध्येय की अपेक्षा नहीं होती, क्योंकि इस अवस्था तक पहुँचने पर मन इतना स्थिर हो गया होता है कि उसे आत्मा के अतिरिक्त दूसरी कुछ भी दिखाई नहीं देता ।
इस ध्यान के चार आलम्बन हैं- क्षमा, मार्दव, आर्जव एवं मुक्ति |
शुक्लध्यान मुक्ति प्राप्ति का सेतु है, इसलिए योगी को रूपातीत एवं निराकार आत्मा का ध्यान करने के लिए कहा गया है ।" यह ध्यान करने में वे ही समर्थ हैं, जिन्होंने समताभाव की वृद्धि कर ली है और जो वज्रऋषभनाराचसंहनन वाले अर्थात् स्वस्थ शरीरवाले एवं श्रुतधारी योगी हैं । *
शुक्लध्यान के चार प्रकार हैं" - (अ) पृथकत्वश्रुत सविचार, (आ) एकत्व श्रुतअविचार, (इ) सूक्ष्मक्रियाप्रतिपत्ति और (ई) उत्सन्न- क्रियाप्रतिपति । इन चार प्रकारों में योग की अपेक्षा से जीव की तरतमता दर्शित है, क्योंकि जीव सम्पूर्ण योग का निरोध एकसाथ नहीं कर सकता, धीरे-धीरे क्रमशः करता है । अतः प्रथम दो प्रकार छद्मस्थ अर्थात् अल्पज्ञानियों के लिए विहित हैं, क्योंकि उनमें श्रुतज्ञानपूर्वक पदार्थों का अवलम्बन होता है तथा शेष दो प्रकार कषायों से पूर्णतः रहित होने के कारण केवलज्ञानी के लिए निर्देशित हैं, क्योंकि यह ध्यान पूर्णतः सर्वज्ञ
१. ( क ) अहखेति - मद्दव ऽज्जव मुत्तीओ जिणमयप्पहाणाओ । आलंबणाई जेहि सुक्कझाणं
समारुहइ ||
— ध्यानशतक, ६९; भगवतीशतक, २५/७ (ख) खंती, मुत्ती, अज्जवे, मद्दवे । — स्थानांग, अध्ययन ४ २. मुक्ति श्रीपरमानंदध्यानेनानेन योगिना ।
रुपातीतं निराकारं ध्यानं ध्येयं ततोऽनिशं ॥ - योगप्रदीप, १०७ ३. एएया पगारेणं जायइ सामाइयस्स सुद्धि ति ।
तत्तो सुक्कज्झाणं कमेण तह केवलं चैव ॥ - योगशतक, ९०
४. इदमादि- संहनना एवालं पूर्ववेदिनः कर्तुम् ।
स्थिरतां न याति चित्तं कथमपि यत्स्वल्प सत्त्वानाम् ॥ – योगशास्त्र, ११ १२
- योगशास्त्र, ११५
५. ज्ञेयं नानात्वश्रुतविचारमैक्य श्रुताविचारं च ।
सूक्ष्म क्रियमुत्सन्न क्रियामिति भेदैश्चतुर्धा तत् ।
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