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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन
समान शुद्धि ही कैवल्य है । मोक्ष, वाणी तथा मन से अर्थात् तर्कवितर्क से परे अथवा अगोचर है ।
मोक्ष के प्रसंग में जीवन्मुक्त और विदेहमुक्त का भी उल्लेख हुआ है । जीवन्मुक्त वह अवस्था है, जिसमें शरीर नाश के पूर्वं केवल प्रारब्ध कर्मों का भाग ही शेष रहता है । पुनः शरीर नष्ट होने पर, जब जन्म की सम्भावना ही नहीं रहती, उस स्थिति को विदेहमुक्त कहा गया है । सांख्यदर्शनानुसार योगी जब संचित तथा क्रियमाण कर्मों को नष्ट कर देता है तथा प्रारब्ध कर्मो का भोग समाप्त हो जाता है अर्थात् सत्व, रज एवं तम के कार्य बन्द हो जाते हैं, तब उस योगी को विदेहमुक्त कहते हैं । ऐसी ही स्थिति में पुरुष दुःखों से ऐकान्तिक और आत्यन्तिक निवृति के द्वारा कैवल्य प्राप्त करता है ।
बौद्ध योग में निर्वाण
बौद्ध योग में कर्म को संसार की जड़ बताते हुए कहा है कि वह कभी पीछा न छोड़ने वाली मनुष्य की छाया के समान है" अर्थात् कर्मों से विपाक प्रवर्तित होता है और स्वयंविपाक कर्म सम्भव है तथा कर्म से ही पुनर्जन्म अथवा संसारचक्र प्रारम्भ होता है । इसलिए कर्म अथवा संसार से विमुक्त होने के लिए बौद्धयोग में आचारतत्व, अष्टांगिक मार्ग के अन्तर्गत शील एवं समाधि का सतत अभ्यास करने का निर्देश है, जिनके द्वारा निर्वाण की प्राप्ति होती है ।
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१. सत्वपुरुषयोः शुद्धिसाम्ये कैवल्यमिति । – योगदर्शन, ३।५५
२. यतो वाचो निवर्त्तन्ते आप्राप्य मनसा सह ।
आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् न बिभेति कुतश्चेनेति । - तैत्तिरीयोपनिषद् २।४।१ ३. योगकुण्डल्युपनिषद्, ३।३३-३५, ध्यानविन्दुपनिषद्, ८६ - ९०; योगशिखोपनिषद्, १५७-६०, योगवासिष्ठ, ३1९1१४-२५
४. सांख्यकारिका, ६६-६८
५. मिलिन्दप्रश्न, ३।२।१६
६. कम्मा विपाका वतन्ति विपाको कम्म सम्भवो ।
कम्मा पुनब्भवो होति एव लोको पवत्ततीति । - विसुद्धिमग्ग
७. विसुद्धिमग्ग, ९६/६८
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