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योग के साधन : आचार
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भोग कहते हैं, जैसे भोजन, गंध, माला आदि, और जो पदार्थ बार-बार भोगा जा सकता है, उसे उपभोग कहते हैं, जैसे वस्त्र, आभूषण आदि । दोनों ही प्रकार की वस्तुओं की मर्यादा निश्चित करना भोगोपभोगपरिमाण व्रत है। इस व्रत के द्वारा श्रावक भोग-उपभोग की वस्तुओं की नियत काल तक मर्यादा बांधता है अर्थात् उन वस्तुओं का निषेध अथवा इच्छा करता है। इस व्रत का पालक श्रावक मधु, मांस आदि पदार्थो के एवं साधारण वनस्पतियों के भक्षण का भी त्याग करता है, जिनमें अनेक जीवों की हिंसा होने की सम्भावना रहती है । ___इस व्रत के पाँच अतिचार हैं --(१) सचित्त भोजन अर्थात् चेतना वाली हरितकाय वनस्पति का सेवन, (२) सचित्त वृक्षादि से सम्बद्ध गोंद या पके फल का जैसे खजूर, आम आदि का सेवन, (३) सचित्त संमिश्र अर्थात् ऐसे पदार्थ जिनमें सूक्ष्म जन्तु होते हैं उनका सेवन, (४) दुष्पक्व अर्थात् अनेक द्रव्यों के संयोग से निर्मित सुरा, मदिरा आदि का सेवन अथवा दुष्टरूप से पके, कम पके पदार्थ का सेवन, (५) अभिषव भोजन अर्थात् पतले अथवा गरिष्ठ पदार्थो का सेवन ।
रत्नकरण्डश्रावकाचार में भिन्न प्रकार के अतिचार वणित हैं। शिक्षाव्रत
शिक्षाव्रत भी गुणव्रत की ही तरह अणुव्रतों की सुरक्षा और विकास में सहायक हैं । शिक्षाव्रतों को ग्रहण करने में श्रावक को बार-बार अभ्यास करना होता है।
१. सकृदेव भुज्यते यः स भोगोऽन्नलगादिकः ।।
पुनः पुनः पुनर्भोग्य उपभोगोऽङ्गनादिकः ॥-वही, ३१५ २. जत्थेक्क मरइजीवो, तत्थ दु मरणं हवे अणंताणं । वक्कमइ जत्थ एक्को, वक्कमणं तत्थ-णंताणं ॥
-गोम्मटसार ( जीवकाण्ड ), १९३ ३. (क) सचित्तं तेन सम्बद्धं, संमिश्रं तेन भोजनम् ।
दुष्पक्वमभिषवं, भुजानोऽत्येति तद्वतम् ॥-सागारधर्मामृत, ५।२० (ख) योगशास्त्र, ३३९७ ४. रत्नकरण्डश्रावकाचार, ४९०
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