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________________ योग के साधन : आचार १. दिग्वत जिस व्रत द्वारा दिशाओं की मर्यादा स्थिर की जाती है उसे दिग्वत कहते हैं।' इस व्रत द्वारा श्रावक दशों दिशाओं की सीमा बाँधकर संकल्प लेता है कि वह मरणपर्यन्त अमुक दिशा की मर्यादा का उल्लंघन नहीं करेगा। ऐसा करने से लोभ, तृष्णादि का नियन्त्रण होता है और परिणामस्वरूप संग्रह की भावना पर अंकुश लगता है तथा चराचर प्राणियों की व्यर्थ हिंसा से भी बचाव होता है। इस व्रत के पाँच अतिचार हैं, जिनका सम्यरूपेण पालन करना श्रावकों के लिए अनिवार्य है। वे अतिचार इस प्रकार हैं-(१) उर्ध्व दिशा की मर्यादा का उल्लंघन, (२) अधो दिशा की मर्यादा का उल्लंघन, (३) तिरछी दिशाओं की मर्यादाओं का उल्लंघन, (४) दिशाविदिशाओं की मर्यादाओं का उल्लंघन एवं (५) क्षेत्र-वृद्धि अर्थात् क्षेत्र की मर्यादा का उलंघन करना। २. अनर्थदण्डवत निष्प्रयोजन मन वचन काय की अशुभ या पापप्रवृत्ति का नाम अनर्थ दण्ड है। दिव्रत में तो मर्यादा से बाहर पापोपदेश आदि का त्याग होता है, किन्तु अनर्थदण्डव्रत में मर्यादा के भीतर ही उनका त्याग किया जाता है। यह त्यागरूप व्रत ही अनर्थदण्डव्रत है। इस व्रत के मुख्य १. दशस्वपि कृता दिक्षु यत्र सीमा न लंध्यते । ख्यातं दिग्विरतिरिति प्रथमं तद्गुणव्रतम् ॥-योगशास्त्र, ३११ २. दिग्वलयं परिगणितं कृत्वातोऽहं बहिर्न यास्यामि । इति संकल्पो दिग्वतमामृत्यणुपापविनिवृत्त्यै ॥ -रत्नकरण्डश्रावकाचार, ४॥६८ ३. चराचराणां जीवानां विमर्दन निवर्तनात् । -योगशास्त्र, ३२ ४. स्मृत्यन्तर्धानमूर्वाधस्तिर्यग्भागव्यतिक्रमः । क्षेत्रवृद्धिश्च पंचेति स्मृता दिग्विरतिव्रते ॥-वही, ३३९७ ५. पीडापापोदेशाद्यैदेहाद्यर्थाद्विनांगिनाम् । अनर्थदण्डस्तत्यागौऽनर्थदण्डवतं मतम् ॥-सागारधर्मामृत, ५०६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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