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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन
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चार', पद्मनन्दिपंचविशति आदि ग्रन्थों में हुआ है । अर्थात् प्राभृतसंग्रह स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, सागारधर्मामृत ", धर्मबिन्दु, योगशास्त्र, पद्मचरित ', रत्नकरण्ड श्रावकाचार आदि ग्रंथों में नाम एवं क्रम में अन्तर रहते हुए भी गुणव्रत का निर्देश इस प्रकार हुआ है
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(१) दिग्व्रत, (२) अनर्थ- दण्डव्रत एवं (३) भोगोपभोगपरिमाणव्रत । सर्वार्थसिद्धि १०, हरिवंशपुराण", वसुनदिश्रावकाचार १५, आदिपुराण ३ आदि ग्रंथों में नाम एवं क्रम में अन्तर रहते हुए भी गुणव्रत का वर्गीकरण इस प्रकार हुआ है- (१) दिग्व्रत, (२) देशव्रत एवं (३) अनर्थ - दण्डव्रत |
इस तरह पता चलता है कि इन दोनों विचारधाराओं ने दिग्व्रत एवं अनर्थदण्डव्रत को गुणव्रत में स्वीकार किया है, लेकिन जहाँ कुन्दकुन्द, स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, सागारधर्मामृत आदि ने गुणव्रत में भोगोपभोगपरिमाणव्रत को लिया है, वहाँ सर्वार्थसिद्धि, वसुनन्दिश्रावकाचार, आदिपुराण आदि ग्रन्थों ने उसका उल्लेख शिक्षाव्रत के अन्तर्गत किया है और उसके बदले देशव्रत का उल्लेख किया है । उसी प्रकार देशव्रत के बदले देशावकाशिक की संज्ञा देकर रत्नकरण्डश्रावकाचार, स्वामिकार्ति केयानुप्रेक्षा आदि ने इसे शिक्षाव्रत के अन्तर्गत रखा है ।
१. अमितगति श्रावकाचार, ६।७६-९५ २. पद्मन न्दिपंचविंशति, ६।२४
३. प्राभृतसंग्रह, पृ० ६०
४. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, ३६१-३८६
५. सागारधर्मामृत, ५११
६. धर्मबिन्दु, ३।१७
७. योगशास्त्र, ३|१|४/७३
८. पद्मचरित १४।१९८
९. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, ३।२१ १०. सर्वार्थसिद्धि, ७।२१
११. हरिवंशपुराण, १८ ४६ १२. वसुनन्दिश्रावकाचार, २१४-१६ १३. आदिपुराण, १०/६५
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