SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 128
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ याग के साधन : आचार ९७ पालन करने को ही रात्रिभुक्तिविरत अथवा दिवामिथुनविरत कहा गया है। यह स्वतंत्र व्रत नहीं है, बल्कि अहिंसाव्रत में ही निहित है, क्योंकि इस व्रत का मूल उद्देश्य मूल व्रतों को विशुद्ध रखना ही है। गुणवत अणुव्रत के साथ-साथ श्रावकों के लिए गुणवतों का भी विधान है। गुणव्रत अणुव्रतों की रक्षा एवं विकास के लिए ही हैं। इन व्रतों के साथ शिक्षा-व्रतों को जोड़कर सामूहिक नाम 'शीलवत' रखा गया है और कहा गया है कि जैसे नगर के चारों ओर बने प्राकार से नगर की रक्षा होती है वैसे ही शीलों से व्रतों की रक्षा होती है। अतः व्रतों का पालन करने के लिए शीलों का पालन करना आवश्यक है । ज्ञातव्य है कि गुणवत अणुव्रत की तरह एक ही बार ग्रहण किये जाते हैं, जबकि शिक्षाबत बारबार ग्रहण किये जाते हैं। अर्थात् अणुव्रत एवं गुणव्रत जीवनभर के लिए होते हैं और शिक्षावत अमुक समय के लिए ही होते हैं । ___ गुणव्रत के भेदों के सम्बन्ध में विभिन्न मत हैं। जहाँ इसके कुछ भेद शिक्षाक्त में गिनाये जाते हैं, वहां शिक्षावत के भी भेद गुणवत में संवलित कर लिये जाते हैं। यहाँ तक कि गुणवतों एवं शिक्षाव्रतों को सामूहिक नाम 'शीलवत' देकर दोनों के भेदों को एक साथ समाहित कर दिया गया है । इस विचारधारा का प्रतिपादन उपासकदशांग', तत्त्वार्थसूत्र', पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, उपासकाध्ययन", चारित्रसार', अमितगति श्रावका १. परिधय इव नगराणि व्रतानि परिपालयन्ति शीलानि । व्रतपालनाय तस्माच्छीलान्यपि पालनीयानि ॥ -पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, १३६ २. जैन आचार, पृ० ११३ ३. उपासकदशांग, १।११ ४. तत्त्वार्थसूत्र, ७।१६ ५. उपासकाध्ययन, ४४८-४५९ ६. चारित्रसार, पृ०८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy