________________
योग के साधन : आचार
९५
परिमित करने का संकल्प व्यावहारिक होना चाहिए, कथन मात्र का नहीं, क्योंकि केवल कथन से वस्तुत्याग का संकल्प कर लेना निरर्थक है।' परिग्रह ही संसार में जन्म-मरण का मूल है ।
परिग्रह के अनेक भेद-प्रभेद वर्णित हैं । पुरुषार्थसिद्धयुपाय में अन्तरंग एवं बहिरंग दो प्रकार के परिग्रह की चर्चा है, जिसमें अन्तरंग परिग्रह के चौदह तथा बहिरंग के दो भेद बतलाए गये हैं। जबकि उपासकाध्ययन में बाह्य परिग्रह दस प्रकार का कहा गया है। इसी तरह सिद्धसेनगणी ने भी आभ्यंतर परिग्रह के चौदह भेद ही गिनाये हैं। बाहय परिग्रह के नव एवं दस भेद भी मिलते हैं। इन परिग्रहों के परिमाण के निर्णय के संबंध में स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षा तथा लाटीसंहिता आदि ग्रंथों में पर्याप्त प्रकाश डाला गया है।
इस व्रत के अतिचारों के संबंध में अनेक मत हैं, जिनकी चर्चा यहाँ आवश्यक नहीं है। इस व्रत के भी पाँच अतिचार इस प्रकार के हैं१०-(१) । क्षेत्र वास्तु परिमाण-अतिक्रमण अर्थात् जमीन, आदि वस्तुओं की मर्यादा का उल्लंघन, (२) हिरण्यसुवर्ण-प्रमाणातिक्रम अर्थात् सोने एवं चाँदी
१. तस्मादात्मोचिताद् द्रव्याद् ह्रासनं तद्वरं स्मृतम् । ___ अनात्मोचितसंकल्पाद् ह्रासनं तनिरर्थकम् ॥ -लाटीसंहिता, ८६ . २. संसारमूलमारम्भास्तेषां हेतुः परिग्रहः ।।
तस्मादुपासकः कुर्यादल्पमल्यं परिग्रहम् ॥ -योगशास्त्र, २१११० ३. पुरुषार्थसिध्युपाय, ११५-११७ ४. उपासकाध्ययन, ४३३ ५. तत्वार्थाधिगमसूत्रम्, भा० २, ७।२४ ६. नवपदप्रकरण, ५८ ७. चारित्रसार, पृ०७ ८. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, ३३९-४० ९. लाटीसंहिता, ८६-८७ १०. धनधान्यस्य कुप्यस्य, गवादेः क्षेत्रवास्तुनः ।
हिरण्यहेम्नश्च संख्याऽतिक्रमात्र परिग्रहे । -योगशास्त्र, ३१९४ (ख) क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणातिकमाः ।
-तत्त्वार्थसूत्र, ७।२४
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org