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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन
शास्त्र, धर्मबिन्दु' आदि में इन अतिचारों का उल्लेख इस प्रकार है(१) सच्चा-झूठा समझाकर किसी को विपरीत मार्ग में डालना मिथ्योपदेश है, (२) रागवश विनोद के लिए किसो पति-पत्नी को अथवा अन्य स्नेहियों को अलग कर देना अथवा किसी के सामने दूसरे पर दोषारोपण करना रहस्याभ्याख्यान है, (३) मोहर, हस्ताक्षर आदि द्वारा झूठी लिखापढ़ी करना तथा खोटा सिक्का आदि चलाना कूटलेखक्रिया है, (४) कोई धरोहर रखकर भूल जाय तो उसका लाभ उठाकर थोड़ी या पूरी धरोहर दबा जाना न्यासापहार है, (५) किन्हीं की आपसी प्रीति तोड़ने के विचार से एक-दूसरे की चुगली खाना, या किसी की गुप्त बात प्रकट कर देना साकार मंत्र-भेद है।
३. स्थूलअदत्तादानविरमण ___इसे अचौर्याणुव्रत भी कहते हैं। अचौर्याणुव्रती श्रावक व्यावहारिक एवं सामाजिक-दृष्टि से चोरी करने कराने तथा चोरी का व्यापार करने का त्यागी होता है। अहिंसा एवं सत्य व्रतों की प्रतिष्ठा एवं संपोषण के लिए श्रावक स्थूलअदत्तादानविरमणव्रत का पालन करता है। बिना किसी की आज्ञा से किसी वस्तु को ले लेने पर मन में अशांति उत्पन्न हो जाती है, दिन-रात, सोते-जागते चौर्य कर्म की चुभन होती रहती है। श्रावक के लिए केवल दो करण तथा तीन योग से ही इस व्रत का पालन करना आवश्यक है।
अचौर्याणुव्रत के पाँच अतिचार हैं--(१) प्रतिरूपकव्यवहार अर्थात् १. योगशास्त्र, ३१९१ २. धर्मबिन्दु, ३।२४ ३. मिथ्योपदेशरहस्याभ्याख्यान कूटलेखक्रियान्यासापहारसाकारमन्त्रभेदाः ।
-तत्वार्थसूत्र, ७॥२१ ४. दिवसे वा रजन्यां वा स्वप्ने वा जागरेऽपि वा।।
सशल्य इव चौर्येण, नैति स्वास्थ्यं नरः क्वचित् ॥ -योगशास्त्र, २०७० ५. (क) स्तेनानुज्ञा तदानीतादानं दिड्राज्यलङ्घनम् ।
__ प्रतिरूपक्रिया मानान्यत्वं चास्तेयसंश्रिता ॥ -योगशास्त्र, ३१९२ (ख) स्तेनप्रयोगतदाहृतादानविरुद्धराज्यातिकमहीनाधिकमानोन्मान
प्रतिरूपकव्यवहाराः। -तत्त्वार्थसूत्र, ७।२२
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