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प्रकाशकीय डा. अर्हदास बन्डोबा दिगे पाश्र्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी के शोध-छात्र रहे हैं। इन्हें जैन साहित्य विकास मण्डल, बम्बई के द्वारा प्राप्त आर्थिक सहयोग से शोध छात्रवृत्ति प्रदान की गई थी। आपने "जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन" नामक विषय पर परिश्रमपूर्वक अपना शोध-प्रबन्ध लिखा था, जिस पर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी के द्वारा सन् १९७० में पी-एच० डी० की उपाधि प्रदान की गई। ___ यद्यपि यह शोध-प्रबन्ध काफी पहले ही प्रकाशित होना चाहिये था किन्तु प्रकाशन हेतु आर्थिक सहयोग उपलब्ध न हो पाने के कारण जैन योग जैसे महत्वपूर्ण विषय पर लिखा गया यह शोध-प्रबन्ध अपने प्रकाशन की लम्बे समय तक प्रतीक्षा ही करता रहा। संस्था के कोषाध्यक्ष श्री गुलाबचन्दजी जैन ने इस शोध-प्रबन्ध के प्रकाशन के सम्बन्ध में महत्तरा साध्वी श्री मृगावती जी से चर्चा की। उन्होंने एवं स्व० प्री० पृथ्वीराजजी जैन ने श्री आत्मवल्लभ जैन स्मारक शिक्षण निधि के अधिकारियों को प्रेरणा देकर इस शोध-प्रबन्ध के प्रकाशन हेतु ५ हजार रुपये का सहयोग प्रदान करवाया। इसके लिए विद्याश्रम साध्वी श्री जी का, श्री आत्मवल्लभ जैन स्मारक शिक्षण निधि के अधिकारियों का एवं संस्था के कोषाध्यक्ष श्री गुलाबचंदजी का अत्यन्त आभारी है कि इन सबके सहयोग के फलस्वरूप आज हम इस शोध-प्रबन्ध को प्रकाशित कर पा रहे हैं । __ आज जब मनुष्य मानसिक तनावों और मानसिक विक्षोभों से आक्रांत है और उसकी मानसिक शान्ति उससे छिन चुकी है, आज जब मानवता भौतिक सुख-सुविधाओं की अच्छी दौड़ में अपने विनाश के कगार पर खड़ी हुई है, ऐसी स्थिति में यदि आज मनुष्य को कोई उसकी शान्ति और आनन्द वापस लौटा सकता है तो वह अध्यात्म ही है । आज मनुष्य के सामने भौतिकवाद की व्यर्थता स्पष्ट हो चुकी है और मनुष्यता आध्यात्म की शीतल छाया में आने के लिए लालायित है, जिसके स्पष्ट संकेत आज हमें पश्चिम के देशों में मिलने लगे हैं।
आज विदेशी लोग भारतीय योग साधना के प्रति अधिकाधिक
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