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________________ योग के साधन : आचार ११७ करना वचनगुप्ति है । " असत्य, कठोर, आत्मश्लाघी वचनों से दूसरों के मन - का घात होता है अर्थात् वाचना, पृच्छना, प्रश्नोत्तर आदि में वचन का निरोध करना ही वचनगुप्ति है । अत: चाहे सत्य हो या असत्य हो जिससे दूसरों के मन को पीड़ा पहुँचे ऐसे वचन नहीं बोलना चाहिए । इसके चार भेद हैं -- सत्यवाग्गुप्ति, मृषावाग्गुप्ति, सत्यामृषावाग्गुप्ति, असत्यामृषा वाग्गुप्ति | (३) कायगुप्ति - अज्ञानवश शारीरिक क्रियाओं द्वारा बहुत-से जीवों को पीड़ा होती है, उनका घात होता है अतः इससे साधु को बचना चाहिए । इस प्रकार संरम्भ, समारम्भ और आरम्भपूर्वक कायिक प्रवृत्तियों का निरोध करना काय गुप्ति है, जिससे कि खड़े रहने, शयन करने, बैठने, - लंघन अथवा प्रलंघन करने में किसी भी जीव की हिंसा न हो । ४ (आ) समितियाँ संयम में दृढ़ता तथा चारित्र - विकास के लिए - महाव्रतों की रक्षा के लिए -- समितियों का विधान महत्त्वपूर्ण है । समितियाँ पाँच हैं (१) ईर्यासमिति - मार्ग, उद्योग, उपयोग एवं आलम्बन की शुद्धियों का आश्रय करके गमन करने में ईर्यासमिति का व्यवहार किया जाता है । " सावधानीपूर्वक गमन करना, जिससे किसी भी जीव की विराधना न हो, मार्गशुद्धि है । प्रकाश में देखभालकर सावधानीपूर्वक चलना उद्योतशुद्धि और द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की अपेक्षा से गमन करना उपयोग-शुद्धि है । एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते समय 2 १. संज्ञादिपरिहारेण यन्मौनस्यावलम्बनम् । वाग्वृत्तेः संवृत्तिर्वा या सा वाग्गुप्तिरिहोच्यते ॥ - योगशास्त्र, १/४२ २. वाचन् प्रच्छन् प्रश्नव्याकरणादिष्वपि सर्वथा वाङ्निरोधरूपत्वं सर्वथा भाषानिरोधरूपत्वं वा वाग्गुप्तेर्लक्षणम् । - आर्हतुदर्शनदीपिका, ५/६४४ ३. उत्तराध्ययन, २४।२२ ४. उत्तराध्ययन, २४।२४-२५ ५. मग्गुज्जो दुपओगालंबणसुद्धीहि इरियदो मुणिणो । सुताणवीचि भणिदा इरियासमिदी पवणम्मि | - मूलाराधना, ६।११९१; ज्ञानार्णव, १८/५-७ उत्तराध्ययन, २४-४, Jain Education International For Private & Personal Use Only , " www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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