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योग के साधन : आचार
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करना वचनगुप्ति है । " असत्य, कठोर, आत्मश्लाघी वचनों से दूसरों के मन - का घात होता है अर्थात् वाचना, पृच्छना, प्रश्नोत्तर आदि में वचन का निरोध करना ही वचनगुप्ति है । अत: चाहे सत्य हो या असत्य हो जिससे दूसरों के मन को पीड़ा पहुँचे ऐसे वचन नहीं बोलना चाहिए । इसके चार भेद हैं -- सत्यवाग्गुप्ति, मृषावाग्गुप्ति, सत्यामृषावाग्गुप्ति, असत्यामृषा वाग्गुप्ति |
(३) कायगुप्ति - अज्ञानवश शारीरिक क्रियाओं द्वारा बहुत-से जीवों को पीड़ा होती है, उनका घात होता है अतः इससे साधु को बचना चाहिए । इस प्रकार संरम्भ, समारम्भ और आरम्भपूर्वक कायिक प्रवृत्तियों का निरोध करना काय गुप्ति है, जिससे कि खड़े रहने, शयन करने, बैठने, - लंघन अथवा प्रलंघन करने में किसी भी जीव की हिंसा न हो ।
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(आ) समितियाँ
संयम में दृढ़ता तथा चारित्र - विकास के लिए - महाव्रतों की रक्षा के लिए -- समितियों का विधान महत्त्वपूर्ण है । समितियाँ पाँच हैं
(१) ईर्यासमिति - मार्ग, उद्योग, उपयोग एवं आलम्बन की शुद्धियों का आश्रय करके गमन करने में ईर्यासमिति का व्यवहार किया जाता है । " सावधानीपूर्वक गमन करना, जिससे किसी भी जीव की विराधना न हो, मार्गशुद्धि है । प्रकाश में देखभालकर सावधानीपूर्वक चलना उद्योतशुद्धि और द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की अपेक्षा से गमन करना उपयोग-शुद्धि है । एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते समय
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१. संज्ञादिपरिहारेण
यन्मौनस्यावलम्बनम् ।
वाग्वृत्तेः संवृत्तिर्वा या सा वाग्गुप्तिरिहोच्यते ॥ - योगशास्त्र, १/४२ २. वाचन् प्रच्छन् प्रश्नव्याकरणादिष्वपि सर्वथा वाङ्निरोधरूपत्वं सर्वथा भाषानिरोधरूपत्वं वा वाग्गुप्तेर्लक्षणम् । - आर्हतुदर्शनदीपिका, ५/६४४
३. उत्तराध्ययन, २४।२२
४. उत्तराध्ययन, २४।२४-२५
५. मग्गुज्जो दुपओगालंबणसुद्धीहि इरियदो मुणिणो ।
सुताणवीचि भणिदा इरियासमिदी पवणम्मि |
- मूलाराधना, ६।११९१; ज्ञानार्णव, १८/५-७ उत्तराध्ययन, २४-४,
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