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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन
विशिष्ट शैली द्वारा इसको अनूठा बना दिया है । इसमें जैन योग के साथ-साथ पातंजल योगसूत्र, हठयोग, गीता एवं बौद्ध योग की तुलना की गयी है ।
अध्यात्म कल्पद्रुम'
इस ग्रन्थ की रचना मुनिसुन्दरसूरीश्वर महाराज ने की है। इस ग्रन्थ के १६ अधिकारों में योगी के लिए अपेक्षित सामग्रियों की चर्चा है । प्रथम अधिकार में चार भावनाओं का निरूपण हुआ है । दूसरे अधिकार में स्त्री को परिग्रह - स्वरूप बतलाकर उसका परित्याग करने का उपदेश है । तीसरे, चौथे तथा पाँचवें अधिकार में क्रमशः पुत्र, धन और शरीर की व्यर्थता बतलाकर उनसे मोहरहित होने का उपदेश है । छठे तथा सातवें अधिकार में संसार के मूल कारणरूप कषायों का निरूपण है और संयमी जीवन बिताने का निर्देश है । आठवें अधिकार में शास्त्रपूजा तथा चतुर्गंति का विवेचन है । नवें तथा दसवें अधिकार में मनोनिग्रहतथा वैराग्य का उपदेश है । ग्यारहवें, बारहवें तथा तेरहवें अधिकार में धर्म-शुद्धि, देव-शास्त्र-गुरु-पूजा तथा मुनि के आचार सम्बन्धी विचार वर्णित हैं | चौदहवें अधिकार में संवर, पन्द्रहवें अधिकार में आवश्यक क्रियाओं और सोलहवें अधिकार में समता - फलरूपो मोक्ष का वर्णन है । जैन योग (अंग्रेजी)
इस अंग्रेजी पुस्तक के लेखक आर० विलियम्स हैं । इसमें योग का वर्णन न करके योग के आधारभूत अर्थात् श्रावकाचार का ही मुख्यत: प्रतिपादन किया गया है | श्रावकाचार की पूरी आचारसंहिता इसमें आलोचनात्मक ढंग से वर्णित है ।
इस प्रकार योग-विषयक उन्हीं ग्रन्थों का परिचय यहाँ अभीष्ट रहा
१. निर्णयसागर मुद्रणालय, बम्बई से सन् १९०६ में प्रकाशित; मूलकृति धनविजयगण की टीका के साथ मनसुखभाई तथा जमनाभाई भगुभाई ने वि० सं० १९७१ में; जैनधर्म प्रसारक सभा ने सन् १९११ में; देवचन्द लालभाई जैन पुस्तकोद्धार संस्था ने सन् १९४० में; तथा भोगीलाल साकलचन्द, अहमदाबाद द्वारा सन् १९३८ में ।
२. ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, लन्दन द्वारा सन् १९६३ में प्रकाशित ।
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