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________________ जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन है और फलतः अवांछनीय वस्तु की प्राप्ति-अप्राप्ति होने पर जीव दुःखी होता है। यही ओर्तध्यान है ।' आर्तध्यान के चार भेद हैं (१)अनिष्टसंयोग-चर अर्थात् अग्नि, सर्प, सिंह, जल आदि तथा स्थिर अर्थात् दुष्ट, राजा, शत्रु आदि द्वारा शरीर, स्वजन, धन आदि के निमित्त मन को जो क्लेश होता है, वह अनिष्टसंयोग नामक आर्तध्यान है। (२) इष्टवियोग-अपने मन की प्यारी वस्तुओं अर्थात् ऐश्वर्य, स्त्री, कुटुम्ब, मित्र, परिवारादि के नष्ट या वियुक्त होने पर अथवा इंद्रियविषयों की क्षति होने पर मोह के कारण जो पीड़ा होती है, वह इष्टवियोग नामक आर्तध्यान है। (३) रोगचिंता या रोगार्त-शूल, सिरदर्द आदि रोगों की वेदना के कारण उत्पन्न चिन्तापूर्ण चिन्तन रोगचिन्ता नामक आर्तध्यान है।" (४) भोगार्त-भोगों की इच्छा से लौकिक एवं पारलौकिक भोग्य वस्तुओं का चिन्तन करना भोगार्त नामक आर्तध्यान है। यह ध्यान जन्म-परम्परा-संसार-परिभ्रमण-का कारण है। इसे निदानजन्य आर्तध्यान भी कहा है। इस प्रकार इस ध्यान के कारण जीव सर्वदा भयभीत, शोकाकुल, संशयी, प्रमादी, कलहकारी, विषयी, निद्राशील, शिथिल, खेदखिन्न तथा मूर्छा-ग्रस्त रहता है। उसकी बुद्धि स्थिर नहीं रहती, विवेकशून्य १. ऋते भवमथातं स्यादसध्यानं शरीरिणाम् । दिङ्मोहोन्मत्ततातुल्यमविद्यावासनावशात् ॥ -ज्ञानार्णव, २३।२१ २. स्थानांग, ४।२४७; आवश्यकअध्ययन, ४ ३. ज्ञानार्णव, २३१२३ ४. मनोज्ञवस्तुविध्वंसे पुनस्तत्संगमार्थिभिः। क्लिश्यते यत्तदेतत्स्याद्वितीयार्तस्य लक्षणम् ।। -ज्ञानार्णव, २३।२९ ५. (क) तह सूलसीसरोगाइ वेयणाए विजोगपणिहाणं । । तदसंपओगचिता तप्पडियाराउलमणंस्स ॥ --ध्यानशतक, ७. (ख) ज्ञानार्णव, २३।३०-३१ ६. ज्ञानार्णव, २३।३२-३३-३४ ७. वही, २३१४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only . www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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