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१६.
जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन
स्वरूप आत्मा के ही ध्यान में निमग्न हो जाता है।' इसी परिभाषा । की पुष्टि करते हुए ध्यान के सन्दर्भ में समरसीभाव तथा सवीर्यध्यान का प्रयोग हुआ है। दूसरे शब्दों में उत्तम संहननवाले के एकाग्र चिन्तानिरोध' को ध्यान कहा गया है तथा वज्रवृषभनाराच, वज्रनाराच एवं नाराच इन तीन प्रकार के संहनन का भी उल्लेख है। यद्यपि तीनों संहननों को ध्यान के कारण के रूप में स्वीकार किया गया है, तथापि मोक्ष का कारण वज्रवृषभनाराचसंहनन ही है, क्योंकि योगी नाना आलम्बनों में स्थित अपनी चिन्ता को जब किसी एक आलम्बन में स्थिर करता है, तब उसे एकाग्रनिरोध नामक योग की प्राप्ति होती है। इसी योग को बौद्ध-परम्परा में समाधि तथा प्रसंख्यान कहा है । .
इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है कि आलम्बन के दो प्रकार माने गये हैं-रूपी और अरूपी । अरूपी आलम्बन मुक्त आत्मा को माना गया है तथा इसे अतींद्रिय होने के कारण अनालम्बन योग भी कहा गया है।" रूपी आलम्बन इन्द्रियगम्य माना गया है और बताया है कि दोनों ही ध्यान छद्मस्थों के होते हैं। यद्यपि रूपी अथवा सालम्बन के ध्यान के अधिकारी योगी छठे गुणस्थान तक अपने चारित्र का विकास करने में सक्षम होते हैं तथा अनालम्बन के अधिकारी सातवें से लेकर बारहवें गुणस्थान तक। जब सालम्बन ध्यान ही सांसारिक वस्तुओं से हटकर आत्मा के वास्तविक स्वरूपदर्शन में तीव्र अभिलषित हो जाता है, तब निरालम्ब ध्यान की निष्पत्ति होती है। आत्मसाक्षात्कार होने पर ध्यान रह ही नहीं जाता, क्योंकि ध्यान एक विशिष्ट प्रयत्न का नाम है, जो केवलज्ञान के पहले या योग-निरोध करते समय किया जाता है। इस
१. देखें, ज्ञानार्णव, अध्याय २२, साम्यवैभवम् । २. तत्त्वानुशासन, १३७ ३. देखें, ज्ञानार्गव, अध्याय २८, सवीर्य ध्यानम् । ४. उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् । -तत्त्वार्थसूत्र, ९।२७ ५. तत्त्वार्थराजवार्तिक, पृ० ६२५ ६. तत्त्वानुशासन, ६०-६१ ७. आलंबणं पि एवं रूवमरूवी य इत्थ परमुत्ति ।
तग्गुणपरिणइरूवी, सुहुमोऽणालंबणो नाम ।। -योगविंशिका, १९
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