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योग के साधन : ध्यान
१५९ एकाग्रता से चित्तस्वरूप को जानने के लिए समाधि को साधन के रूप में स्वीकार किया गया है। जैन-योग में ध्यान
ध्यान के भेद-प्रभेद का विस्तृत विवेचन जैन-योग में वर्णित है। वस्तुतः ध्यान-साधना ही जैन-योग में साधना का पर्याय बन गयी है, क्योंकि संसार-भ्रमण का कारण, जैन दर्शनानुसार, इंद्रियों एवं मन की चञ्चलता है और इन पर नियन्त्रण करना ही चारित्र की पहली शर्त है। जैन योगानुसार संयम अथवा चारित्र की वृद्धि के लिए ध्यान सर्वोत्तम साधन माना गया है।
ध्यान की परिभाषा एवं उसके पर्याय-चित्त को किसी विषय पर केन्द्रित करना ध्यान कहा गया है, ' तथा उसे निर्जरा एवं संवर का कारण भी बताया है। वस्तुतः चित्त को किसी एक वस्तु अथवा बिन्द्र पर केंद्रित करना कठिन है, क्योंकि यह किसी भी विषय पर अन्तर्मुहूर्त से ज्यादा टिक नहीं पाता तथा एक मुहूर्त ध्यान में व्यतीत हो जाने के पश्चात् यह स्थिर नहीं रहता और यदि हो भी जाय तो वह चिन्तन कहलायेगा अथवा आलम्बन को भिन्नता से दूसरा ध्यान कहलायेगा। प्रकारान्तर से ध्यान अथवा समाधि वह है, जिसमें संसार-बंधनों को तोड़नेवाले वाक्यों के अर्थ का चिन्तन किया जाता है अर्थात् समस्त कर्ममल नष्ट होने पर सिर्फ वाक्यों का आलम्बन लेकर आत्मस्वरूप में लीन हो जाने का प्रयत्न किया जाता है। ध्यान को साम्यभाव बताते हए कहा है कि योगी जब ध्यान में तन्मय हो जाता है, तब उसे द्वरत ज्ञान रहता ही नहीं और वह समस्त रागद्वेषादि सांसारिकता से ऊपर उठकर चित्
१. चित्तसेगग्गया हवइ झाणं । -आवश्यकनियुक्त, १४५९; ध्यानशतक, २;
. नवपदार्थ, पृ० ६६८ २. तद्व्यानं निजराहेतुः संवरस्य च कारणम् । -तत्त्वानुशासन, ५६ ३. आमुहूर्तात् । -तत्वार्थसूत्र, ९।२८; ध्यानशतक, ३; योगप्रदीप, १५।३३ ४. मुहूर्तात्परतश्चिन्ता यद्वा ध्यानान्तरं भवेत् ।
वहर्थसंक्रमे तु स्याद्दीर्धाऽपि ध्यान-सन्ततिः ॥-योगशास्त्र, ४/११६ ५. योगप्रदीप, १३८
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