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________________ भारतीय परम्परा में योग 'योग' शब्द भारतीय संस्कृति तथा दर्शन की बहुमूल्य सम्पत्ति है। योगविद्या ही एक ऐसी विद्या है जो प्रायः सभी धर्मों तथा दर्शनों में स्वीकृत है। यह ऐसी आध्यात्मिक साधना है जिसे कोई भी बिना किसी वर्ण, जाति, वर्ग या धर्म-विशेष की अपेक्षा के अपना सकता है। प्राचीन भारतीय धर्म, पुराण, इतिहास आदि के अवलोकन से ज्ञात होता है कि योग-प्रणाली की परम्परा अविच्छिन्न रूप में चलती आयी है। वैदिक तथा अवैदिक वाङ्मय में आध्यात्मिक वर्णन बहुलता से पाया जाता है। इनका अन्तिम साध्य उच्च अवस्था की प्राप्ति है और योग उसका एक साधन है। __ जैसे चिकित्सा-शास्त्र में चतुर्व्यह के रूप में रोग, रोग का कारण, आरोग्य और उसका कारण वर्णित है, वैसे ही योगशास्त्र में भी चतुव्यंह का उल्लेख है-संसार, संसार का कारण, मोक्ष और मोक्ष का साधन ।' चिकित्सा-शास्त्र के समान ही योग भी आध्यात्मिक साधना के लिए चार बातें स्वीकार करता है : (१) आध्यात्मिक दुःख, (२) उसका कारण ( अज्ञान ), (३) अज्ञान को दूर करने के लिए सम्यग्ज्ञान एवं (४) आध्यात्मिक बन्धन से मुक्ति अथवा पूर्णता की सिद्धि । इस प्रकार सभी आध्यात्मिक साधनाएँ इन चारों सिद्धान्तों को स्वीकार करती हैं, भले ही विभिन्न परम्पराओं में ये विभिन्न नामों से व्यवहृत हुए हों। . __ योगसाधना को एक विशिष्ट क्रिया माना गया है, जिसके अन्तर्गत अनेक प्रकार के आचार, ध्यान तथा तप का समावेश है। परन्तु इन सबका लक्ष्य आत्मा का विकास ही है और इसके लिए मनोविकारों को जीतना आवश्यक है। यौगिक क्रियाओं के आदर्श विभिन्न ग्रन्थों में अलग-अलग हैं, १. यथा चिकित्साशास्त्रं चतु! हम्-रोगो रोगहेतुरारोग्यं भेषज्यमिति । एवमिदमपि शास्त्रं चतुव्यूहम् । तद्यथा संसारः संसारहेतुर्मोक्षो मोक्षोपाय इति । तत्र दुःखबहुल: संसारो हेयः। -योगदर्शन, व्यासभाष्य, २०१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002123
Book TitleJain Yog ka Aalochanatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArhatdas Bandoba Dighe
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1981
Total Pages304
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Principle
File Size13 MB
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