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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन भाव से परमानन्द का अनुभव करती हुई अचल रहती है। ऐसी स्थिति में, मुक्त होने के कारण, आत्मा का कर्म द्वारा शरीर निर्माण नहीं होता, लेकिन उसका आकार प्रायः उस शरीर जितना ही रह जाता है, जिसे त्याग कर वह मुक्त हुआ है।
इसी सिलसिले में यह उल्लेख करना भी समीचीन होगा कि आत्मा जब तक संसार-बन्धन में रहती है तब तक वह नामकर्म के उदय के कारण संकोच-विस्तार शरीर धारण करती है और मुक्त होने पर, अशरीरी बन जाती है। लेकिन आत्मा जिस अन्तिम शरीर के द्वारा मोक्ष प्राप्त करती है, उसका १३ भाग ( मुख, नाक, पेट आदि खाली अंगों में ) पोला होता है, बाकी २१३ भाग में उस जीवात्मा के उतने प्रदेश उस सिद्ध स्थान में व्याप्त हो जाते हैं, जिसे अवगाहना कहते हैं । इस तरह अनन्त जीव उस लोकाकाश के प्रदेशों में विराजमान होने पर भी परस्पर अव्याघात रहने से, एक दूसरे से, मिलकर अभिन्न नहीं हो जाते । प्रत्येक जीव का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व कायम रहता है। ऐसी ही आत्मा संसार में पुनरागमन नहीं करती क्योंकि वह वीतराग, वीतमोह और वीत द्वेष होती है। एक दीपक के प्रकाश में जैसे अनेक दीपों का प्रकाश समा जाता है, उसी तरह एक सिद्ध के क्षेत्र में अनन्त सि? को अवकाश देने की जगह होती है। सिद्धों में अगुरुलघु का गुण भी होता है, जिसके कारण न वह लोहे के समान गुरुता के कारण नीचे आने को विवश होता है और न रूई की तरह हलका होने से वायु का अनुसरण ही करता है।"
इस प्रकार सिद्धात्मा शरीर, इन्द्रिय, मनविकल्प एवं कर्मरहित होकर अनन्तवीर्य को प्राप्त होता है और नित्य आनन्द स्वरूप में लीन
१. मुक्त्युपायेषु नो चेष्टामल नायव यततः। -मुक्त्य द्वेषप्राधान्य द्वात्रिंशिका. १ २. शरीरं न स गह्णाति भूयः कर्म-व्यपायत:। ___ कारणस्यात्यये कार्य न कुत्रापि प्ररोहति । -योगसारप्राभृत, ७१९ ३. तत्त्वानुशासन, २३२-३३ ४. उत्तराध्ययन सूत्र, ३६।६४ ५. वृहद्रव्यसग्रह, १४
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