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जैन योग का आलोचनात्मक अध्ययन
के कारण इसे योगबीज भी कहा गया है । इस दृष्टि को तृणाग्नि की उपमा दी गयी है । इस दृष्टि में साधक अपनी आत्मा के विकास की इच्छा तो करता है, परन्तु पूर्वजन्म के संस्कारों अर्थात् कर्मों के कारण वैसा कर नहीं पाता ।
(२) तारा दृष्टि - इस दृष्टि में साधक मोक्ष की कारणभूत सामग्रियों अर्थात् योगबीज की पूर्णतः तैयारी करके सम्यकबोध प्राप्त करने में समर्थ होता है । साथ ही, इस दृष्टि में साधक को शौचादि नियमों का पालन करते हुए आत्महित का कार्य करने में उद्व ेग नहीं होता और उसकी तात्त्विक जिज्ञासा जाग्रत होती है । इस अवस्था में मिथ्यात्व के कारण साधक अथवा योगी को कण्डाग्नि की तरह क्षणिक सत्य का बोध होता है । इस अवस्था में गुरुसत्संग के कारण साधक की अशुभ प्रवृत्तियाँ बन्द हो जाती हैं और संसारसम्बन्धी किसी भी प्रकार का भय नहीं रहता । फलतः वह धर्म-कार्यादि में अनजाने भी अनुचित वर्तन नहीं करता । वह इतना सावधान रहता है कि अपने द्वारा किये गये व्रत, पूजनादि क्रियाकलापों से दूसरों को तनिक भी दुःख न हो ।" इस प्रकार साधक वैराग्य की तथा संसार की असारता सम्बन्धी योगकथाओं को सुनने की इच्छा रखते हुए बड़े लोगों के प्रति समताभाव रखता है और उनका आदर-सत्कार करता है ।" अगर पहले से उसके मन में योगी, संन्यासी, साधु आदि के प्रति अनादर का भाव हो तो भी वह इस अवस्था में अनादर के बदले प्रेम और सद्भावना का व्यवहार
१. योगदृष्टिसमुच्चय, २२-२३; २६-२८
२. तारायां तु मनाक् स्पष्ट, नियमश्च तथाविधः ।
अनुद्वेगो - हितारम्भे, जिज्ञासा तत्त्वगोचरा । वही, ४१
३. भयं नाऽतीव भवजं कृत्यहानिर्न चोचिते ।
तथाना भोगतोऽप्युच्चैर्न
चाप्यनुचितक्रिया ॥ - वही, ४५
४. वही, ४६
५. ( क ) भवत्यस्याम विभिन्नाप्रीतियोगकथासु च ।
यथाशक्त्युपचारश्च बहुमानश्च योगिषु ॥ - ताराद्वात्रिंशिका, ६
(ख) अध्यात्मतत्त्वलोक, ४६
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