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________________ आसीस For Private सेवाभावी मुनिओ कम्पालाल
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प्रस्तुत पाल्य की अपारक-संकलक हैं श्रमण सागर । आप प्रस्तुत कृति के कर्वायता के साथ छाया की पाति तीस वर्ष तक रहे और मुनिश्री की पूर्ण चर्या के नियामक, संयोजक और संरक्षक थे। आप स्वयं कवि. इतिहासकार और संस्मरण लेखक हैं। इतिहास की जब आप बातें सुनाते हैं तब सुनने वाले को प्रतीत होने लगता है कि श्रमणजी संभवतः उस समय वहीं थे और घटना को देख रहे थे। पर यह केवल एक आभास ही है। आप जिस भाव-भाषा में सुनाते हैं, वह स्वयं विशिष्ट होती है और श्रोता को घटना से एकात्म कर देती है। प्रखर बुद्धि के धनी श्रमण सागर राजस्थानी और हिन्दी में गीत भी लिखते हैं, जिनका गुंजारव दीर्घकाल तक होता रहता है।
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आसीस
संजय के विवाह के उपलक्ष मे
सह प्रेम मेंट दिनांक २५-११-१९८८ -शा मांगीलाल शांतीलाल एण्ड कं शांती भवन, ६४, ए. एम. लेन
चिकपेट, बॅरलोर-५३
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आदर्श साहित्य संघ प्रकाशन
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आसीस
सेवाभावी मुनिश्री चम्पालालजी
'भाईजी महाराज'
संकलक : सम्पादक সস সান্তাহ
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© आदर्श साहित्य संघ, चूरू (राजस्थान)
स्व० मातुश्री पानीबाई एवं स्व. पूज्य पिताश्री भंवरलालजी सकलेचा, राणावास (मारवाड़) की पुण्य स्मृति में उनके सुपुत्र बी० गौतमचन्द, बी० निर्मलकुमार सकलेचा, ७३ सेकेण्ड मेन रोड, बैंगलोर के अर्थ-सौजन्य से प्रकाशित ।
प्रकाशक : कमलेश चतुर्वेदी, प्रबंधक-आदर्श साहित्य संघ, चूरू (राजस्थान)/ मूल्य : पचीस रुपये | प्रथम संस्करण, १९८८ | मुद्रक : पवन प्रिंटर्स, दिल्ली-११००३२ AASIS Poetry by Muni Sri Champalaji Rs. 25.00
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ओलखाण
hi अनोखी विशेषतावां रा धणी, सरल सभावी, मोटापुरुष श्री भाईजी महाराज रो जलम, वि० सं० १९६४ मिगसर वद दस्स्यूं नै जोधपुर रियासत र बड़े हाथीवंध ठिकाणे ख्यात नामै लाडनूं नगर में हुयो । बांरो असल नांव हो मुनिश्री चम्पालालजी स्वामी । बै आचार्यश्री तुलसी रा संसार लेख मोटाभाई हा, इं वास्ते I सगलाइ जणां बांनै भाईजी महाराज कह्या करता ।
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बां रो टाबरपण रईसी मै रजवाडी ढंग स्यूं बीत्यो । दादा राजरूपजी खटेड़ राबै लाडला पोता हा । थोडीक बाणिका - महाजनी हिसाब-किताब पढ़' र बै १४ वर्षा की ओसथा मै बंगाल बेपार सीखण गया । बांरा पिताजी रो नांव झूमरमलजी तथा माजी रो नांव बदनकुंवरदे हो । आप छव भायां मैं, चोथा भाई हा। बार तीन हां ही ।
दादाजी री हपड़-हपड़ जलती चिता, राणावजी र कुअ पर भरथै कोठा मै डूबणै री घटणा है' र चेनरूपजी कोठारी री कलकते में गुंडा-बदमाशा स्यूं हुई मुटभेड़, बांरं वैराग रो कारण बण्यो ।
बै १९८१ भादवे लागती तेरस नै तेरापंथ धर्मसंघ रा आठवां आचारज पूजी महाराज श्री कालूगणी हस्ते दीख्या लेर जैन मुनि बण्या । एक वरस पछँ आप र सागी छोटे भाई तुलसी नै संन्यास लेण री परेरणा करी । बारी संसार लेख बड़ी बहन साध्वीप्रमुखा लाडांजी तुलसी मुनि रै सागै संसार छोड़' र साधु मारग लियो ।
इग्यारह वरसां तांई रात-दिन एक कर' र सावचेती स्यूं तुलसी मुनि री सार संभाल राखी । भाई ₹ खातर भाई कियां खप्यां करें है श्री भाईजी महाराज एक नजीर धरी । बांरो कठोर आंकस' र आचार-विचार री सावधानी शासण में नांव कर्यो । तुलसी मुनि ₹ आचारज बण्यां पछै माजी नै दीक्ष्या दिरा'र बै मांर करजै स्यूं उरण हुया ।
गेऊ वरणो रंग, तपूं तपूं करतो लिलाड, मोटी-मोटी लाल डोरदार आंख्यां, हाथी को सो पेंसो सरीर, हसतो - मुलकतो चेहरो है' र दडूकती आवाज देखणियां नै आज भी याद आवे है | जद बै चालता, बांरै हाथ मैं सर्प-मुखी गेडियो इसो ओपतो थाने के बताऊं ? बै आपरी लय रा न्यारा ही ओलिया पुरुष हा ।
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दिल रा दरियाव, पकड़ रा पका, खेचीज्यां पछै खैर रा खूटा, परायी भीड में पड़णिया, सीधा-सादा-सरल, गरीबां रा बेली, करुणा रा अवतार-सा, पूरा प्रभावी पर मिलनसार, कठोर अनुशासक फेर भी दयालू, स्वाभिमानी साग-सागै विनम्र, पुरातनी लेकिन बगत रा पारखी, अडोल प्राण-प्रणी परन्तु परगतीशील, समरथ होकर भी उदार, मनमोजी-मस्त, आण-बाण-शान और प्रमाण र साथै ५० वर्षा तांई साधपणो पाल'र वि० सं० २०३२ मिगसर सुद तेरस नै 'धां' गांव मै (सालासर साहरे) शरीर छोड्यो । बांरो अगनी-संस्कार जैन विश्व भारती लाडण मै १८-१२-१९७५ रै दिन बीस हजार लोगां री साख स्यूं हयो। __ आपरी रीत-नीत' र मर्यादा मै रै'र बै सैकडां साध-सत्यां री सेवा-चाकरी र सारणा-वारणा करी । बांरी बच्छलता स्यूं बंध्योड़ा हजारां-हजारों लोग अपणायत जोड़ी। तेरापंथ द्विशताब्दी समारोह पर आचार्यश्री तुलसी आपरै मुखारबिन्द स्! बांन सेवाभावी रो खिताब इनायत कियो।
श्री भाईजी महाराज काव्य रा रसिया, साहित्य रा प्रेमी, विद्या रा उपासी, है'र कला रा सोखीन हा । आप र खन्है रेवणियां किताइ ऊगता नखतरां (साधुवां) नै मांज्या, साझ्या-संवाऱ्या'र उजाल्या । बां मायलो एक नमूनो है युवाचार्य महाप्रज्ञजी।
बै मातृ-भाषा राजस्थानी रा सारां सिरे सपूत हा। बांरी रंगीली, रजमेदार रंगरली बांरा आपरा लिख्योड़ा दहा-सोरठा मुंडे बोल-बोल'र केहवै है।
जद-जद भी बै परसन चित्त या फेर लेहर मै होता, जणां दूहा-सोरठा बणायालिखाया करता। न्यारी-न्यारी टेमां, न्यारा-न्यारा लिखायोड़ा बां छुट-पुट पदां ने मै म्हारी मन-मरजी प्रमाण छांट-छांट'र न्यारा-न्यारा नावां स्यं अठ भेलाकरर मेल्या है। तेरापंथ संघ रा ओपता, दीपता, दीखता'र रलता मिलता जोगीराज श्री भाईजी महाराज री विचारां स्यूं ओलखाण औ पद करासी । जकां मै अनुभवां रो परिपाक, अलंकारां री झिणकार'र अनुप्रासा री भरमार है। तुकां री जोड़तोड़, बेण सगायां री बोहलता है'र किताक मै है आदि-अन्त एक ही अक्खर । बांगे शबद भंडार'र रचना सिंणगार, कव्यां रो आकर्षण केन्द्र बणसी। ___श्री भाईजी महाराज, भाईजी महाराज हा, थांका'र म्हांका, बस आही है स्वर्गीय सेवाभावी मुनिश्री चम्पालालजी स्वामी री ओलखाण।।
मै ३० वर्षा तांई बार साग रह्यो। घणां उतारां-चढ़ावां मै बानै उतरतांचढ़ता देख्या। पण बां जिसी इकतारी, साहस, उदारता, विशालता, भाईचारो'र संघीत भावना विरला मै ही होसी । बी जोडी रो दूजो कोइ सन्त ओर हुवै तो मनैइ बतायीज्यो। निमस्कार बीं अनोखं अलवेलै सन्त नै।
वि० सं २०४४, दिवाली, राययुर मध्यप्रदेश
--श्रमण सागर
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शरुआद
श्री भाईजी महाराज रै सुरगवास नै हाल पूरा तीन महिनां ही को हुया है नीं। बीं दिन १७ दिसम्बर हो, अर आज के दिन १५ मार्च है। अबार-अबार गुरुदेव रे दरसणां ने राजस्थान रा वित्तमंत्री चन्दनमलजी बैद आवण वाला है। मै सुजानगढ़ रामपुरिया-भवन रै पोल परलै अगूणै कमरै मै बैठ्यो हूं। म्हारै सामै घणासारा कागज-पतर, ओलिया-परच्या, चींपा-चिमठिया, काप्यां-चोपनियां बिखऱ्या पड्या है। इत्तै मै आया सुमेर मुनि 'सुदरसण', बै अवतांइ बोल्या-ओ के अरारो बिखेर राख्यो है आज ? मै बोल्यो-भाई ! भाईजी महाराज रा दूहा-सोरठा, ढूंढ़-छांट'र एक जग्यां भेला करण री सोच रह्यो हूं।
सुदरसणजी बोल्या-भाईजी म्हाराज के म्हारै स्यूं छाना हा? बै कदेइ पद्य बणाताइ कोनी हा।
म्हे बातां कर ही रह्या हा। इत्तै मै लाडणूं स्यूं संतोष बहन-श्रीमती राणमलजी जीरावला-पारमार्थिक शिक्षण संस्था री बैरागण्यां बायां साग कमरै मैं आ'र बन्दणा करी । मैं जीकारो दियो-'जे राणीजी ! ब बार गया'र बायां पूछ्यो-आज म्हाराज राणीजी कियांन फरमायो ? बांही पगां बै पाछा कमरै मै आ'र बोल्या-है ओ ! सागरमलजी स्वामी ! आपनै ठाह है नीं, भाईजी म्हाराज म्हारो नांव राणीजी एक दूहो फरमार दियो हो?
मै कह्यो-हां, सदाई भाईजी म्हाराज राणीजी रे नांव स्यूं ही जीकारो दिरायां करता, पण बो दूहो किस्यो?
राणीजी केवण लाग्या - म्हाराज ! याद करो, हैदराबाद यात्रा मै एक दिन मै आचार्यश्रीजी नै गोचरी पधारण री अर्ज करी, विमला बाई साग हा । गुरुदेव नको फरमा दियो । म्हारो मन कोनी मान्यो। आख्यां भरीजगी । मै भाईजी महाराज ने अरज करी । बै दयालू पुरुष हा । फरमायो, बेराजी क्यूं हुवो। पाछा पधारवाद्यो। भाईजी महाराज थोड़ा सा'क पेहली पधार'र पग थांम्या। जद आचार्यश्री को पधरावणो हुयो तौ मोटापुरुष एक दूहो फरमा'र अर्ज करी । बो दूहो मनै हाल बीयां को बीयां याद है -
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रांणा-रांणी रंग स्यूं, साझे सद्गुरु सेव ।
साथै बिमला सेठिया, महर करो गुरुदेव ।। सुणतां-सुणतां बीइ टेम गुरुदेव गोचरी पधारग्या । बीपछ सदाई मोटा पुरुष मन राणीजी! राणीजी ! ही फरमाता रह्या।।
मै सगलां रै सामैइ सुदरसण मुनि ने कह्यो-ओल्योजी ! एक जींवतो जागतो मुंडमंड प्रमाण । अबै बालो ! भाईजी म्हाराज दूहा वणावता हा'क कोनी? संस्था री बायां खड़ी खड़ी म्हारै मुंहडै कानी देखण लाग्गी।
राणीजी रै कह्योड़े बी है नै मै बीटेमई लिख्यो'र बोल्यो--सूदरसणजी! एक कै, इयाकला के ठा किताइ दहा मिलसी, जद ओ संग्रह त्यार होसी । आज रै इं प्रसंग स्यूं ही बीरी शरुआद करण रा म्हारा भाव है।
सुदरसण मुनि मानग्या। हाथोहाथ बोल्या-पण म्हांस्यूं आ बात छांनी कियां रही?
मै दूहा-सोरठा भेला कां जा रह्यो हो । राजलदेसर वाला सोहनलालजी चंडालिया आया। बात चाली । बै बोल्या-एक कोपी भाईजी महाराज रै दूहारी म्हारै कन्हैइ धार्योड़ी पड़ी है। वि० सं० २०१५, २०१६, २०१७ मै जद जद मनै सेवा रो मोको मिल्यो, मै दूहा धाऱ्या हा । कोपी आई। देखी तो दो सौ दूहा-सोरठा मिल्या । बै प्राय प्राय संत वसन्त रा संकलित हा । मै बीमायलो 'श्रावक-शतक' हो ज्यू को ज्यू सोरठा मै ही राख्यो । दूसरै 'सागर-शतक' रा दूहा 'पंचक बत्तीसी' मै आयग्या।
पंचक बत्तीसी-वि० सं० २००५ स्यूं १४ तांई को संग्रह है। टेम टेम पर मन (श्रमण सागर) फरमायोडी 'सीख'आशीष बत्तीसी बणगी। - मुनि गुलाबचन्दजी भाईजी महाराज रा अपणा वंशज है। छोटे भाई रो बेटो, बेटोह हुवै है । गुलाव गुणचालीसी वि० सं० २०२२ की है । इं मै कुल परम्परागत उदारता, विशालता, विवेक, बडप्पण है'र ठीमरता बढ़ाण रै सागै-सागै अकड़-पकड़ छाती रो ठड्डो' र बादाबादी छोड़ण री बावै-बेटै बिचै सलासूत हुई सी लागे ।
खुदरा निजी अनुभव, चेतना री चोकसी, साधना री सुगन्ध, भीतरलै नै भेदण री अटकल, ककारादि ककारान्त दूहा मै-परमारथ पावड्यां पढ़ता जी सोरो
हुवै।
जद दूजो कोई नहीं लाधतो, जणां मै ही धक्कै चढ़तो। गलती करतो कोई, झाड़ो लागतो म्हारै । 'श्रमण बावनी' रो पात्र मै हूं। बस इंरोइ नांव किरपा है। . सरड़का सोहली मै मुनि मणिलालजी रो विश्वास'र परतीत बोल है। आ सोहली वि० सं० २०२८ सरदारशहर मै एक खास मोके पर लिखीजी।
शान्ति सिखावणी वि० सं० २०२६ सुजानगढ़ मै सरू हुई शान्ति मुनि रै मिष
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आ नया साधा ने हिदायत ही ।
'साधक शतक' हिसार 'र दिली प्रवास विचै पच्चीसवीं महावीर निर्वाण शताब्दी री देण है । वर्णमाला रे हर अक्खर पर तीन-तीन सोरठा, मांय- मांय योगसाधना रा निजी अनुभव बोल है । -
शिक्षा सुमरणी आतमारी उवाज | वि० सं० २०३२ जैपुर में पूरी करी । न्यारी न्यारी वगत, टेम-टेम रा भाव, उतारां- चढ़ावां री धूप- छियां में नीसेड़ी लुकती-छिपती बातां, पढ्यां सुण्यां ठा पड़े।
बाकी रह्योड़ा सगला दूहा 'फुटकर फूल' बण' र खिलग्या । 'यादगारां' कुछ संता - श्रावकां रै जाणै पर बणी ।
'पद्यात्मक पत्र' आता-जाता साध-सत्यां सागै कागद लिखण रो मोको तो पड़तोइ पड़ती । कोई कागद दूहा सोरठा मै लिखाया। बां मैं मैं भेलो बैठ्यो ।
संस्मरण पदावली मनै सांस्यूं रुचती, चोखी, चरपरी, फुरकती -फडकती रंगदार र रसीली लागी । इं वास्ते मै म्हांरी जाणकारी मुताबिक, कीं बीत्योड़ी, की आंख्या देख्योड़ी, बाकी की सुण्योड़ी बातां हिन्दी मैं लिख र पोथी र लारै दे दी है ।
असल बात स्यूं आ पोथी शुरू हुवै है । श्री भाईजी महाराज आपरै मन री बात कन्या सामै मेली है । आ तो मैं मान'र चालूं, भाईजी महाराज कवि कोनी हा ( बांरा सबदा मै) पण काव्य रसिक हा, कविता रा पारखी हा । सैकड़ां दूहासोरठा - छन्द कवित्त बां रै कंठां हा । बै कव्या ने चाहता हा । कविराजा नै मान देता हा । मन री आह कदेइ-कदेई बार दूहा- सोरठां में बारैं आती ही ।
बीं मन री आह, चाह' र मान - तान सागै, आ पोथी (आसीस) कवि-कुलकिरीट महामना आचार्यश्री तुलसी ( भाईजी महाराज रा अनुज) र चरणां मै, तथा गणपति स्वरूप जोगीराज युवाचार्य महाप्रज्ञजी महाराज - जका १५ वर्षा तांई लगोलग भाईजी महाराज र संरक्षण में रह्या, बेठ्या । आपरं जीवन रो दूसरो पड़ाव सागै साग पार कर्यो — बांरै लम्बा हाथां मै निजर करूं ।
WHAT
एकर भाईजी महाराज दुकड्यां, तिकड्यां और चोकड़ियां लिखण रो मन भी कर्यो हो । थोडाक अधूरा पद्य हाल भी म्हारै कनै लिख्योड़ा पड्या है ।
कुल मिलार इं 'आसीस' मै गहरा अर्थ स्यूं भर्योड़ा, अनुप्रासां स्यूं सझ्योड़ा, भावां स्यूं भींज्योड़ा, लक्ष्यभेदी तीरिया सा ( ११७० ) अंदाज दूहा- सोरठा- छन्द है ।
खाटै मीठे, खारै'र चरपरै इ संग्रह मैं मुनि मणिलालजी रो बचन अगोचर सहारो सरायां बिनां मन कोनी मान । मुनि मोहनलालजी 'आमेट' बार-बार ताना मार-मार' र प्रेरणा करता रह्या । मुनि दुलहराजजी रो के आभार मानूं । वै तो भाईजी महाराज रा अनन्य विश्वासपात्र हा । वे ईं पोथी मैं आपरा श्रम-बिन्दु जोड' र आपरो फरज निभायो है । मोडो बेगो कियांलइ मानो, आ पोथी हाजर है । दोष
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सगलो म्हारे पल्लै' र, चोखी लागे जकी चीज आपरी ।
शुरुआद समेटतां समेटतां बां सां भाई बन्धुवा स्यूं एक बार खमत - खामणा । hi वास्ते इं पोथी मैं करडो काठो, कहण-सुणण, लिखण बांचण मैं आसी । सवा हाथ रो काल जो कर' र बै सन्त महातमा इं ने विनोद, मन री टीस या हितकारी सीख मान' र खमसी । इं आस मै
'श्रमण सागर' २०४४ दीवाली रायपुर, मध्य प्रदेश
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दो बोल
भाईजी महाराज आपरी एड़ी स्यूं चोटी तांईं हीयो ही हीयो हा। बां री हृत्तंत्री रा तार इत्ता कस्योड़ा हा के जरा-सो हिलको लागतां ही झणझणाण लाग जाता । बै कोई री आंख्यां में आंसू कोनी देखण सगता। जे देखता तो बां रो हाथ बां आंसवां नै पूंछण सारू उठ्यां बिना को रैवंतो नीं। इंयालक मोम जियालक मुलायम चित्त रो मिनख कवी नई हो तो फेर के बै । बेदरदी ढांढा कवी होसी जकां रै कालजै मै विधाता दिल री जग्यां एक मोटो सो भाटो रख दिया करें । बै तेरापंथ रै युगप्रधान आचार्य तुलसी रा बड़भाई हा। ई कारण लोग बान्नै 'भाईजी महाराज' कैवता । पण आ पदवी बान्नै कोई बगसीस मै को मिली ही नी । लोग आपरी मनमरजी स्यूं ही बान्नै पूजता अर बां रै चरणां मैं आपरो सिर नंवाता। जको आदमी जित्तो दुखी अर दबेड़ो होतो बो बां रै बित्तो ही नेड़ो हो जांवतो। बां री अणमाप अपणायत रै कारण लोग बांरै आगे आपरी निज स्यूं निजू बात कहण में भी संकोच को करता नीं। बां रे हाथ में कोई भामाशाह री थैली को ही नी' जकी रो मूंडो खोल-खोल बै गरजी री गरज सार देवंता । बां खनै कोई हाकमी भी को ही नी जकै रे जोर स्यूं आगलै रो वारो-न्यारो कर देवंता। पण, बां रो हीयो इत्तो हमदरदी स्यूं भरेड़ो हो के बी मै हरेक नै आप आप रै दरदरी दवा मिल जांवती। ___ लोग भाईजी महाराज रै खनै हार्या-थक्या आंवता पण बांरी बच्छलता रै बड़लै री ठण्डी छायां मैं बैठतां ही बां रै अंग-अंग मै उमंग री नवी तरंग दौड़ण लाग जांवती। बै घणा लूंठा विद्वान को हा नी, बड़ा भारी तपस्वी भी कोनी हा, बां स्यूं बड़ा ग्यानी-ध्यानी भी बहोत देखण मै आवै, पण आ कह्यां बिना को रह सकां नी के बां जियालकां तो बै ही हा । आपरी आखी उमर बै कोई नै तोड़ण री नई, जोड़नै री ही चेष्टा करी। बै सदा सुई री जियां सीणो रोई काम कर्यो, कतरणी री जियां काटण-छांटण री कोशीश को करी नी। बै लोगां रै बीच आएई आंतरै नै पाटण री खातर पुल ही बणाया, कदे ई कोई खाई को खोदी नी। बां रो तो ओ एक ही मन्तर हो:
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गिरतोड़े नै थाम र चम्पा, चेप टूटतोड़े ने,
फूंक दूखते फोड़े रै दे, सींच सूखतोड़े ने ॥ आप रै आखरी सांस ताई बै रोवतां नै हंसाया, टूटेडा नै सांध्या, आथडेड्या नै हाथ रो स्हारो देय देय ऊभा कऱ्या अर बिछड़ेड़ा ने पाछा मिलाया। मिनख पण री ऊंचाई, दिल री गराई अर हिवड़े री कंवलाई रो ई दूसरो नांव हो-'भाईजी महाराज'।
भाईजी महाराज खाली कंवला ही कंवला को हा नी। आपरो नेम-धरम निभाण मैं बै घणा। करड़ा भी हा । बै आप रै गण अर गणी री सदा जागरूकता स्यं आराधना करी । 'गलै सुदी गण मैं गड्यो रह 'चम्पक' पग रोप'-ओ बांको करार हो। पूज्य कालूगणी रो आप पर इत्तो पतियारो हो के बै आपरै मनचीत्या युवराज री सारणा-वारणा रो काम आपने ही सूंप्यो । मुनि तुलसी रै ग्यारै बरसां रे खिण खिण रा आप पैरेदार रहा। जद संसार लेखे छोटो भाई गुरु री गिट्टी पर बैठ ग्यो तो आप पूरी भगती स्यूं बांरी आराधना करी। बां रै पोढ़ायां पैली आपरी आंख्यां मैं कदेई नींद कोनी घुलण दी, बान्ने आहार करायां बिना आप रै मं मैं अन्न रो दाणों को घाल्यो नी । बै ई बात री पूरी ख्यांत राखी के कोई श्रावक आचार्य तुलसी रै चरणां मै आय नै आपरै रूंरूं स्यूं राजी होयां बिना नई जावै । संघ में कोई साध रै असाता हो जांवती तो आप बी रै तन-मन री सेवा साधण मै की उठा' र को राखता नी । बै ग्लान साधवां री चित्तसमाधि रै खातर बांटा भाई, बैद' र सेवक-सो की बण जांवता । 'सेवाभावी' विरद नै सारथक करणियो इयांलको पर उपकारी मिनख धरती पर कोई बिरलो ही आवै।। ___'आसीस' मैं भाईजी महाराज रा घणा मरजीदान सन्त ‘सागर-श्रमण' बांरा कह्योड़ा दूर्वा, सोरठां अर कवितावां रो संगै कर्यो है। भाईजी महाराज आपनै कवी कोनी मानता, बै कविता लिखण सारू कविता लिखी भी कोनी । मन में कोई लैर आंवती तो बा शब्दां रै सांचै मैं ढ़ल-ढल कविता रो रूप ले लेंवती। कविता लिखणो कोई कवयां रो काम ही कोनी
. घुड़दौड़ मैं तो
__ सगलाइ घोड़ा दोड़े दौड़े जकां मै, कै सगलाइ ओड़े-जोड़े कोई बछेडियो सारै कर सरपट नीसरे जद बूढ़े को भी मन बढ़ जाव जोस चढ़ जावै॥
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तो भाई जी महाराज देख्यो के एक न ओ पंखेरू पंख फड़-फड़ा'र उडणो चावे पण उड-उडर पाछो पड़ जावै। पण, बो के निरास हो'र उडणो छोड़ देवै । तो फेर
मैं भी गणमणाऊं उडणो चावू अक्खर भेला करूं उकलत तो आप आप री है थां जिसी कविता कठेऊ ल्यावू
जद कदेई हीये री हंस स्यं भाईजी महाराज रै मन रो मोरियो नाचतो तो बै कविता बणावता या कविता आपेई बण जांवती।
कवि कोनी, पण कवियां रै बिच मैं ऊर्ले-बैठू, कविता रा खरड़ा'र खलीता, खोलूं और लपेटूं।
आ तो बांरी नरमाई है कै बै आ केवै कै मैं कवयां रै सागै ऊळू-बैलूं ईं कारण कवी वणग्यो। साची बात तो आ है के बारै खन्नै उठण-बैठण रै जोग स्यूं ही केई कवयां री स्रणी मैं आपरो नांव लिखा लियो । आं दो ओल्यां मैं भाईजी महाराज आपरै कवी नई होणे री दुहाई दी है, पण कुण कै सके है कै आ कविता कोनी?
छन्द न जाणूं, बन्ध न जाणूं, सन्ध न जाणूं भाई । तिणखो-तिणखो जोड़ मसां सी, एक छानड़ी छाई॥
आ बात सही है के बै कवयां री पांत मैं नांव लिखाणे री खातर कविता को लिखी नी, बै एक-एक सबद नै अंगूठी मैं नग री जियां आपरी कविता में जड़यो कोनी, अर मात्रा गिण-गिण' र छंद रै बंध नै पूरो को कर्यो नी । फर भी बै कवी हा। क्यूं के :
कवि कोई भाटो थोड़ोई है जको घड़'र बिठाद्यो, कविता बणाई कोनी जावै बा तो आपेई बर्ण है।
__'आसीस' री कवितावां भाईजी महाराज रै दिल रो दरपण है। आ कवितावां मैं एक साधक री गैरी अन्तरदिष्टी अर तत्व री ऊंडी ओलखाण है पण ग्यान री गूढ़ बातां भी अन्तर रस री मीठी चासणी मै पगेड़ी है।
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कर्म-भोग समभाव स्यूं, आली कर मत आंख। चम्पा ! बांध्या चीकणा, रोवै क्यूं बण रांक ।।
जैन धरम मै संयम री साधना, वीरभाव री साधना है, ई करण ही 'वर्द्धमान' रो नांव 'महावीर' पड्यो। संवेदना रा धनी 'चंपक' मुनि रो हीयो दुखी'र दरदी रैखातर फूल जियालको कंवलो हो तो आपरै करम रूपी वैरी स्यूं लड़ण नै बजर जिसो कठोर भी हो।
तप तीखी तरवार करम कटक स्यूं जुध करण । मरण सुकृत भण्डार, सगती साहमो श्रावका !
बां रै खातर कविता आपरै चित्त ने चेतावणैर निरन्तर जागतो राखण रो एक हथियार हो । अर बै आपरी संयम साधना मैं ई रो घणो सांतरो उपयोग कर्यो है
औरां को ऐश्वर्य सुख, झांक रांक मत रीक, करणी करता क्यूं तनै, आवै 'चम्पा' छींक ? कैठा कुण सै जलम रा, शेष भोगणा भोग ? 'चम्पा' चुकै उधार, क्यूं बिलखो देख विजोग ?
राजस्थानी साहित्य मै सम्बोधन काव्य री एक लम्बी परंपरा रैई है। कवी जो बात कैणी चाव, बा आपरै कोई मर्जीदान रो नांव लेय ने कहवै। जका दोहासोरठा आपां राजिया रा कहेड़ा समझा हां, बै असल मै कृपाराम बारहठ रा राजिया रो नांव ले'र कहेड़ा है । चकरिया, नाथिया, मोतिया रै दूहा-सोरठां रो भी ओई हाल है । भाईजी महाराज भी के ई सन्तां रै सम्बोधन स्यूं दूहा-सोरठा कह्य नै राजस्थानी सम्बोधन काव्य री परंपरा नै आगे बढ़ाई है।
भाईजी महाराज री कवितावां मै भाव री ही प्रधानता है, पण भाषा रे निखार अर सबदां रै जड़ाव री निजर स्यूं देखां तो भी 'आसीस' री कवितावां आपरो घणो मोल राखै । मुक्त छन्द रो प्रयोग तो बै घणो सांतरो कर्यो है। चालू मुहावरां रो प्रयोग आप मोकले रूप में कर्यो है । कठ-कठेई तो मुहावरां रैमाध्यम स्यूं जुग री असंग्त्यां रो जीतो-जागतो चितराम खैच दियो है--
डोको फाड़े डांग नै, तिल ले चाल्यो ताड़ । 'चंपक' छिपग्यो छोकरां! राई ओले पहाड़ ।
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'आसीस' री सगली कवितावां एक सारीखी कोनी। केई कवितावां मैं भावां री रमझोल है तो केयां मै दवायां रा नुस्खा भी बताया गया है। केई कवितावां मै घटनावां री साख भरी जी है तो केयां मै साधांर श्रावकां रा गुण गाईज्या है। कवी आपरै जीवण री घटनावां रो लेखो-जोखो भी आं कवितावां रै जरिये पेश कर्यो है । केई कवितावां रो स्तर घणो ऊंचो है तो केई मामूली दरजै री भी है। न्यारी-न्यारी बानगी री न्यारी-न्यारी कवितावां है। आं नै बांच'र आ लागे के आपां भाईजी महाराज रै चरणां मै बैठ'र बां री वाणी री परसादी पा रैया हां।
ई पोथी रै अंत मै जो 'संस्मरण पदावली' है, बी में आयोडा सारा संस्मरण हिन्दी भाषा में लारै दीयोडा है। बैं सारा भाईजी महाराज रै जीवण स्यूं जुडियोडा है । बांन पढतां-पढ़तां सारी घटरावां साख्यात रजरां रे सामने नाचणन लाग ज्यावै। आ है यां री विशेषता।
'श्रमण-सागर' पर भाईजी महाराज री घणी मरजी ही। बै आपरै मन री बात आन्नै कैबता । बै 'आसीस' रै रूप मै भाईजी महाराज री वाणी रो संग्रै कर बी ठाई थरपणा करणे रो जस लियो है । मै बां रो उपकार मानूं के बै मन्न भी बी पुण्य-पुरुष री याद मै दो सबद लिखणे रो मौको दियो।
-डॉ० मूलचन्द सेठिया
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पुरो वाक्
युवाचार्य महाप्रज्ञजी ने एक बार लिखा था - 'संकलन के लिए सब नहीं लिखा जाता, पर जो लिखा जाता है उसका संकलन हो जाता है । मनुष्य चिरकाल से संग्रह का प्रेमी है । वह बिखरे को बटोर लेता है और फूलों की माला बना देता है ।'
'मालाकार की अंगुलियों में कला है । वह धागों में फूलों को गूंथ कलाकार बन जाता है । कला तरु में नहीं होती, उसके पास कोरे फूल होते हैं । कलाकार होता है माली । तरु संग्रह करना नहीं जानता । उसे स्वार्थी लोग भलां कलाकार कैसे मानें ? मालाकार संग्रह करने में पटु होता है और वह सहज ही कलाकार बन जाता है ।'
चम्पक वृक्ष वसन्त में पुष्पित होता है और सुगंधित फूल देता है । उसकी सुवास से सारा वन-निकुंज सुरभित हो जाता है । वन निकुंज में सारे वृक्ष पुष्पदायी नहीं होते । जो पुष्पदायी होते हैं, उन सबके पुष्प सुवास देने वाले नहीं होते । सुरभि बिखेरने वाले कुछेक पुष्प ही होते हैं । उन पुष्पों की सुरभि से वह सब कुछ महक उठता है, जो अल्प सुरभिमय या असुरभिमय भी क्यों न हो । सौरभ वही बिखेर सकता है जो स्वयं सुरभित हो । असुरभित कभी सौरभ नहीं बिखेर सकता । एक संस्कृत कवि ने कहा है
'निसर्गादारामे
तरुकुलसमारोपसुकृती | कृती मालाकारो बकुलमपि कुत्रापि निदधे ॥ इदं को जानीते यदिदमिह कोणान्तरगतो । जगज्जालं कर्त्ता सुरभिभरसौरभ्रभरितम् ॥
एक कुशल माली वन निकुंज के निर्माण में लगा था । वह यत्र-तत्र भिन्न-भिन्न प्रकार के वृक्ष लगा रहा था। उसकी पौध-श्रेणी में बकुल वृक्ष का पौधा भी था । उसने उसकी उपेक्षा कर उसे एक कोने में डाल दिया । वन निकुंज पुष्पित वृक्षों से शोभित हुआ । सुवास फैलने लगी । सारा वन निकुंज बकुल की सुगंध से महक उठा । खोज की । कोने में पड़ा बकुल अपनी स्वयं की पहचान दे रहा था । उसकी
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सौरभ के समक्ष सारे सौरभ फीके थे।
मुनि चम्पक इसी बकुल वृक्ष की भांति थे। उनमें स्वपूरुषार्थ से अजित और संचित वह सुरभि थी, जो सारे वातावरण को सुरभिमय बना देती थी। उस सुरभि का एक घटक था-सहयोग, उपकृति । उनका पुरुषार्थ दूसरे के सहयोग में सदा प्रज्वलित रहता था। वे सहयोग देते, पर जताते नहीं। सहयोग देना उनका सहकर्म था। वे इसे कर्त्तव्य की श्रेणी का कर्म मानते थे और जो भी सहयोग की आकांक्षा करता, वह उसे मिल जाता और यदा-कदा अनाकांक्षित व्यक्ति को भी इनका सहयोग उबार लेता।
वे संवेदनशील थे। जिसका मन संवेदना से जितना भरा होता है अनुभूति उतनी ही तीव्र होती है । जब व्यक्ति इन अनुभूतियों को शब्दों में उतारता है तब वह काव्य बन जाता है और व्यक्ति कवि बन जाता है। जिसमें अनुभूति की तीव्रता नहीं होती, वह अच्छा कवि नहीं होता। कांच जितना स्वच्छ होता है, उतना ही स्वच्छ होता है प्रतिबिम्ब । यही प्रतिबिम्ब बिम्ब की अनुभूति कराता है और व्यक्ति को उससे एकात्म बना देता है। भाईजी महाराज संवेदनशील थे। उनकी इस संवेदना ने उनको मृदु, सरस और उन्मुक्त बनाया। वे बालकों में बालक, तरुणों में तरुण और बूढ़ों में बूढ़े बन जाते । हृदय निश्छल और पारदर्शी था। प्रत्येक व्यक्ति उसमें अपना प्रतिबिम्ब देखकर अपनत्व की कारा का बंदी बन जाता था। फिर 'मैं' और 'वह' की दूरी समाप्त हो जाती और तादात्म्य की अनुस्यूति गाढ़ बन जाती। ____ आदमी बाह्य जगत् में विहरण करता है । अनेक परिस्थितियों और घटनाओं के बीच से वह गुजरता है। उनमें से जो घटनाएं हृदय को खींच लेती हैं, व्यक्ति उनसे तादात्म्य स्थापित कर अपनी अनुभूतियों को शब्दों का परिधान देता है और वे काव्य के माध्यम से बाह्य जगत में फैल जाती हैं। जब अन्यान्य व्यक्ति उन अनुभूतियों को शब्दों के परिधान में देखता है, तब उसे अपनी जैसी ही अनुभूतियों का परिवेश स्मृति-पटल पर अंकित-सा नजर आता है और तब वह उनसे अभिभूत हो जाता है । एक की अनुभूति लाखों-करोड़ों की अनुभूतियों को ताजा कर जाती है। यही है काव्य और यही है काव्य की सार्थकता।
चम्पक मुनि ने जीवन में अनेक आरोह-अवरोह देखे हैं। इस उतार-चढ़ाव में जो-जो अनुभूतियां हुईं, उनको यदा-कदा उन्होंने शब्द-बद्ध किया और जब उनको गुनगुनाया, वे लिपि की कारा में आबद्ध हो गई। . मैं नहीं मानता कि मुनिश्री जन्मजात कवि थे । कविता उनका कर्म नहीं था। पर वे काव्य-रसिक अवश्य थे । आचार्यश्री तुलसी के पट्टोत्सव पर, आचार्य भिक्षु के चरमोत्सव तथा माघ महोत्सव आदि विशेष उत्सवों पर आपकी गीतिकाएं
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હ
प्रस्तुत होतीं । आप स्वयं उनका संगान करते । अन्यान्य मुनिगण आपके स्वरों कां साथ देते और तब सारा वातावरण संगानमय हो गाता । उसकी प्रतिध्वनि लंबे समय तक गूंजती रहती और उस प्रतिध्वनि की प्रतिध्वनियां अन्यत्र - सर्वत्र शब्दायित रहतीं । यह सब उन गीतिकाओं की सरसता, सहज-सरल शब्द - परिधान, लय की सुगमता आदि तत्त्व ही मुख्य कारण बनते थे । संगान को जानने वाला या नहीं जानने वाला, पढ़ा-लिखा या अनपढ़ - सभी उसको गुनगुनाते हुए देखे जाते । यही उनकी सार्वजनिकता थी ।
कवि ने स्वयं लिखा है
'मैं कवि कोनी, पण कवियां रै बिच ऊठूं बैठूं । कविता रा खरडा'रु खलीता खोलूं और लपेटूं ॥ भावां री छोलां मैं फिर-फिर लिखूं समेटू गेहूं । शब्दां री तलपेटी ढेर, उधेड़-उधेड़ पलेदूं ।'
'छन्द न जाणूं बन्ध न जाणूं सन्ध न जाणूं भाई । तिणखो तिखो जोड़, मंसा-सी एक छानड़ी छाई ॥ 'चम्पक' तूआं जूनां भवियां कवियां हिये हार-सी । आतम दरसण करण बणैला आ 'आसीस' आरसी ॥'
जब अनुभूति का सोता फूटता है, तब एक हृदय की अनुभूति अगणित हृदयों की अनुभूति बन जाती है । यह कोई विस्मय की बात नहीं है । व्यक्ति-व्यक्ति का जीवन पृथक्-पृथक् होते हुए भी, जीवन की कुछेक भूमिकाएं समान होती हैं । उनमें अनुभूति की समानता स्वाभाविक है । समान अनुभूति में एक व्यक्ति दूसरे से जुड़ जाता है ।
प्रस्तुत कृति 'आसीस' ऐसी ही अनुभूतियों का खजाना है । देश, काल और वातावरण के व्यवधान के साथ-साथ उनमें अभिव्यक्ति की भिन्नता अवश्य आ जाती है, पर उनकी चुभन वैसी की वैसी बनी रहती है । वह चुभन ही इस कृति की विशेषता है । प्राचीन कवि ने कहा- वह क्या बाण का प्रहार जिसके लगने पर योद्धा सिर न धुने और वह क्या काव्य जिसके शब्द-श्रवण से सिर न हिले । आपने लिखा --
'रतन रती 'रू रबाब, ठीमरता स्यूं ठहरसी । खेमी करै खराब, रिकटोल्यां में मूलजी ॥ मिनख मतै मोती मिण, नैण निवाणां- नीर । रुपटरी के दूलजी, चम्पक लैग लकीर ।।
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पण
'कवि बण, ..." शीर्षक के अन्तर्गत मुनिश्री ने कवियों को सावधान करते हुए एक रहस्य को उद्घाटित किया है। राजस्थान में यह तथ्य प्रचलित है कि कवि को अक्षर - विन्यास करते समय पूरी सावधानी बरतनी चाहिए। यदि कहीं 'दग्धाक्षर' का प्रयोग हो जाए तो कवि का सर्वनाश हो जाता है । इसलिए कवयिता निरंतर इससे बचने का प्रयत्न करता है । पर सारे कवि इस तथ्य को नहीं जानते कि कौनकौन से अक्षर दग्धाक्षर होते हैं । एक सेवक था नागौर में । वह तुकबंदी करता था । एक बार उसने कविता लिखी और अन्त में उसने अपना नाम लिखकर 'नागो रमे' इस प्रकार अपने गांव का नाम लिखा । वास्तव में उसको लिखना चाहिए था - 'नागोर में' पर प्रमाद के कारण लिख डाला - 'नागो रमे' । कुछ ही वर्ष बीते । वह पागल हो गया और गांव में 'नागा' (नग्न) घूमने लगा । 'नागो रमे' का अर्थ यही होता है - नग्न घूमना। उसकी वही हालत हो गई । 'आसीस' के कवि इस तथ्य से परिचित हैं और वे सभी कवियों को सावधान करते हुए कविता को कौन-कौन से अक्षरों से प्रारंभ नहीं करना चाहिए, उसका अवबोध देते हैं । उन्होंने लिखा है
राख आदि में 'झ भ ह र ष' शुरू न करणो छंद । सुण सागर ! 'अज म न क' पर, मत कर लेखण बंद ||
'आसीस' के कवि कवि की करामात से पूर्ण परिचित हैं । वे जानते है कि कवि सर्वत्र आनन्द की अनुभूति करने में दक्ष होता है । वह निराशा और आशा मान और अपमान, सुख और दुःख -- सर्वत्र आनंद खोज निकालता है, प्रकाश प लेता है ।
कवि और दार्शनिक — दोनों दो भूमिकाओं पर कार्य करते हैं । दोनों का उद्देश्य एक है- सत्य की खोज । पर दोनों की अनुभूति में रात-दिन का अन्तर है इसी को समझाने के लिए महाप्रज्ञ का कवि हृदय कह उठता है
'आनन्दस्तव रोदनेऽपि सुकवे ! मे नास्ति तद् व्याकृती, दृष्टिर्दार्शनिकस्य संप्रवदतो जाता समस्यामयी । किं सत्यं त्वितिचिन्तया हृतमते ! क्वानन्दवार्ता तव, तत् सत्यं मम यत्र नन्दति मनो नैका हि भूरावयोः ॥'
दार्शनिक कहता है - कवि ! तेरे रुदन में भी आनंद है । मैं आनंद की अभिव्यक्ति देता हूं, पर आनंद को भोगता नहीं । ज्यों-ज्यों मैं आनंद की अवस्थाओं के वर्णन में डूबता - उतरता हूं तब तब मैं और अधिक उलझ जाता हूं । उलझन में कैसा आनंद ! कवि कह उठता है - अरे दार्शनिक ! तू निरंतर इसी रटन में रहता
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है कि सत्य क्या है ? सत्य क्या है ? यह भी सत्य नहीं है। वह भी सत्य नहीं है । पर मैं उस सत्य की खोज में उलझता नहीं । उसे ही सत्य मानता हूं जहां मेरा मन लग जाता है, प्रफुल्लित और मुदित हो जाता है। यही तेरे और मेरे में अन्तर है।
आसीस के कवि की अभिव्यंजना है
करामात कवि री किती, कहूं कल्पनातीत । सागर झलक, गिरि गलै, जद कवि गावै गीत ।।
कवि री छवि-सी कल्पना, रवि-सो कवि उद्योत। नवि पवि सागर ! अनुभवी, कवि झगमगती जोत ॥
कवि जन्मना भी होता है और अभ्यास से भी बनता है । अभ्यास में श्रम, अध्यवसाय, एकनिष्ठाऔर सातत्य आवश्यक होता है। सब ऐसा करना नहीं चाहते। वे अलस व्यक्ति कवि बनने के लिए नहीं, कवि कहलाने के लिए दूसरों की कविताओं को इधर-उधर कर अपनी नामांकित कविता बना डालते हैं। वे होते हैं 'कवि-चोर'। आसीस में कितने सहज-सरल ढंग से इसकी अभिव्यक्ति हुई है
'कविता तोड़ मरोड़कर, करै ओर की ओर । नांव आपरो चेपदै, 'चंपक'! वो कवि-चोर ॥'
कवि की अनुभूति वेधक होती है जब वह अपने परिवेश के प्रतिबिम्ब को आत्मसात् कर आगे बढ़ता है। कवि कहता है—उषा भी फूलती है और सन्ध्या भी फूलती है, किन्तु दोनों के फूलने में अन्तर है। दोनों की निष्पत्ति भिन्न है। उसमें आकाश-पाताल का अन्तर है। उषा दिन लाती है और सन्ध्या रात । एक उजाला लाती है और एक अंधेरा।
सन्ध्या और प्रभात, फूलण फूलण में फरक । - ल्यावै दिन इक रात, 'चंपक' चिन्हे चिन्ह श्रमण ! ॥
शासन और अनुशासन-ये दो शब्द हैं । शासन एक परंपरा का बोध देता है। वह साधना से उपजता है, तब उसमें से अनुशासन निकलता है। व्यक्ति बड़ा नहीं होता । शासन बड़ा होता है, परंपरा बड़ी होती है। शासन वसुन्धरा है । सारे रत्न उसी में से निकलते हैं। तेरापंथ एक धर्म-शासन है । उसके विकास में साधना और तपस्या का तेज काम करता रहा है। जो शासन के प्रति समर्पित रहता है, वह सत्य और अहिंसा के प्रति समर्पित है, त्रिरत्न की साधना के प्रति समर्पित है।
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शासन की व्याख्या कर कवि ने अपने शासन-प्रेम को अभिव्यक्ति दी है
शासण सुरतरु सुखकरु, सिद्धिसौध सोपान । 'चंपक' शासण च्यानणो, आन-मान-सम्मान ।
शासण शीतल छांवली, अणाधार आचार । 'चंपक' शासण चेतना, हरण पाप हरिद्वार ।
शासण दुर्लभ देवरो, शासण पूजा-पाठ । शासण र परताप ही, 'चंपक' सगला ठाठ ।।
मानसरोवर मलयगिरि, मख-मयूख-मोहार । मंगलमय शासण मुदित, 'चंपक' चरण पखार ।।
शासन को अपना सर्वस्व मानने वाला व्यक्ति कभी भटकता नहीं । यह उसके लिए रक्षा-कवच और देवालय है जहां अपना प्रभु विराजमान है। शासन की पूजा अपने इष्टदेव की पूजा है और शासन की चेतना कवि की चेतना है, प्रत्येक साधक का चैतन्य है । कवि का शासन-प्रेम इन पद्यों में स्पष्ट रूप से अनुभूत होता
____ अनुप्रास कविता का आभरण है। सभी कवि इसमें निष्णात नहीं होते । कुछेक कवियों की शब्द-संपदा इतनी होती है कि अनुप्रास उनकी कृतियों में सहज-सरल रूप से व्यवहृत होता है । प्रस्तुत कृति के कवि अनुप्रास प्रेमी थे और वे यदा-कदा बातचीत में भी 'अनुप्रास' का प्रयोग सुगमता से कर लेते थे। उनके कुछेक पद्य
धैर्य बिना कद धर्म, टिकै धिकै थिरकै सिके । धर्म बिना कद कर्म, सिरकै छिटकै साधकां! ।।
ढिगला-ढिगला ढाक, अणगिणती-सा आकड़ा। श्वेत ढाक अरु आक, साधक बिरला साधकां! ॥
टक्कर देव टाल, टूटी जोड़े टेम पर । टीस रीस पै ढाल, स्याणो बो ही साधकां! ॥
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चटकै जावै चैट, चींट्या चीणी नै चुंटण । खारो खरो रु खेट, सूंघे कोई न साधकां!।
मन स्वभावतः चंचल नहीं है, पर वह बना हुआ है चंचल । उस चंचलता के घटक अनेक हैं। उन्हीं के आधार पर वह नाना-रूप धारण करता है, एक विदूषकसा बन जाता है । वह कभी राम का अभिनय करता है तो कभी रावण बन जाता है। एक रूप वह रह नहीं सकता, क्योंकि बेचारा दूसरों से संचालित है। उसके बहरूपियेपन को कवि ने इस प्रकार अभिव्यक्ति दी है
मन गलतो मन गोमती, मन ही तीरथ-घाट । मन मन्दिर मन देवता, मन ही पूजा-पाठ ।।
मन गंगा मन गंदगी, मन रावण मन राम । सुरक-नरक पुन-पाप मन, मन उजाड़ मन ग्राम ॥
मन सीता मन सुर्पणा, मन हि कृष्ण मन कंस । 'चंपक' मन योगी-यवन, मन कौओ मन हंस ।।
प्रस्तुत कवित्त में मन को सरल रूपकों से समझाया गया है। उसकी विविधता को समझने में ये प्रतीक बहुत कार्यकर हैं, क्योंकि व्यक्ति-व्यक्ति इनसे परिचित
प्रस्तुत कृति के कवि 'सेवाभावी' शब्द से संबोधित होते थे । सेवा उनका परम धर्म था । रुग्ण की सेवा-सुश्रूषा करने में वे सदा तत्पर रहते थे। वे रुग्ण व्यक्ति के नाम-रूप के आधार पर सेवा नहीं, उसकी रुग्णता और वेदना के आधार पर सेवा में संलग्न हो जाते थे। वहां स्व-पर की सारी सीमाएं समाप्त हो जाती थीं। शेष रहता था केवल अनन्त आकाश । रुग्ण व्यक्ति का छोटे से छोटा कार्य करना वे अपना कर्त्तव्य समझते थे। इस सेवा-धर्म ने उनको एक सफल चिकित्सक के रूप में भी प्रतिष्ठित कर दिया था। वे औषधियों के ज्ञान से संपन्न थे । पथ्य की व्यवस्था वे कर लेते थे। उसी औषधि-ज्ञान को वे कितनी सरलता से प्रस्तुत करते हैं।
जब जी मचलता हो तब
जीवदोरो होवै जरां, दोय लूंग लै चाब। 'चंपक' अन्तर आग आ, रुई मै मत दाब ।
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इमरत-धारा अधिकतर, सुलभ मिलै सब ठोड़ । च्यार बूंद ले क्यूं करें 'चम्पा' भागा-दौड़ ||
दांत के दर्द में वे कहते हैं
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दांत दरद ज्यादा करें (तो) हलदी मसलो भाई । दाब कपूर कांकरी (या) हींग मु-सरल दवाई ॥
तीन लूंग नींबू रै रस में पीस दांत पर मसलो । दर्द मिटै 'चंपक' हो ज्यावै, झट हल मसलो सगलो ||
खांसी रोग के लिए -
च्यार पांच कालीमिरच डली लूंण की न्हांक 1 चाबो पाणी मत पिओ, खांसी जाय
चटाक ॥
,
काव्यात्मक पत्र-लेखन की पद्धति बहुत प्राचीन है । कवि अपना अभिप्रेत काव्य के माध्यम से इष्टजन तक पहुंचाता है । जो पैनापन गद्य में नहीं आता वह पद्य में सहज रूप में आ जाता है । प्रस्तुत संकलन में स्वलिखित अनेक पत्र संकलित हैं, जिनमें अभिव्यक्ति का वैशिष्ट्य स्वतः दृग्गोचर होता है ।
आचार्यश्री तुलसी के साथ मुनि चंपक दक्षिण यात्रा पर थे, उनकी साध्वी बहन साध्वीप्रमुखा लाडांजी बीदासर में स्थित थीं । वे बीमार हुईं और पञ्चत्व को प्राप्त हो गईं। उनकी स्मृति में कवि कहता है
खरी कुशल खेमंकरी, खटी न खामी खेह | लांडा 'दीपां' दूसरी, हथणी की-सी देह ||
कला - कुशल कोमल कमल, पद की रंच न पीक । 'चंपक' राखण चोकसी, लाडां तजी न लीक ॥।
बिज्जल बंकी बेनड़ी, निर्मल 'चंपक' आज चली गई, मैं समरुं
शासण - नैण | दिन- रैण ॥
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इसी प्रकार मां साध्वी वदनांजी के लिए कवि के उद्गार हैं
म्हैं तो चिकमंगलोर मैं थे बीदासर ठीक । दूरी चंपक देह पर, अन्तर अति नजदीक ॥
मन में आवै उड मिलूं, पगां हुवै जो पांख । के है ? क्यूं ? क्यूं नहिं मिटै, झट ल्यूं 'चंपक' झांक ॥
इस प्रकार यह कृति विविधताओं का सुन्दर संगम स्थल है। इसमें ११७० दोहा, सोरठा और छंद हैं। प्रत्येक पद्य अपने आपमें एक सहेतुक निदर्शन है । भाईजी महाराज -- यह नाम जब अधरों पर आता है तब सर्पफनी गेडियाधारी
चंपक की राठौड़ी आकृति आंखों के सामने नाचने लग जाती है । मैंने उनकी सेवा-आराधना नहीं की, पर उनका पूरा वात्सल्य और स्नेह पाया । यह अकारण ही मेरे पर होने वाली कृपा - वृष्टि थी । मैं लघु, वे गुरु । अपनी गुरुता में मिलाकर उन्होंने इस लघु को भारी बनाने का सफल प्रयत्न किया । मैं स्पष्टवादी था या नहीं, पर वे मुझे सदा सत्यसेवी मानते रहे । उनकी चंपक पुष्प की सी मुस्कान सदा मुझे नहलाती रही और तब 'मैं-वे' का नैकट्य सध गया । कहां वे और कहां मैं ! पर मुझे वे सदा आत्मसात् करते गए और स्वररहित पर सार्थक छंद में बांधते गए । उनकी करुणा अपार थी, प्रतिबद्धताओं से रहित थी, पवित्र और गहरी थी । यही एकमात्र कारण था कि वे व्यष्टि नहीं समष्टि बन गए थे, व्यक्ति नहीं विश्व बन गए थे । जीवन-काल में वे हजारों की स्मृति में जीवन्त रहे, निरन्तर योगक्षेम के संवाहक के रूप में अवस्थित रहे और मरकर भी सबके स्मृतिपटल पर अचल बन गए । वे जीये औरों के लिए । 'पर दुःख - कातरता' यह उनका जीवनमंत्र था, जो लाखों-लाखों को उनके चरणों में उपस्थित कर देता था । एक शब्द में कहूं तो ' स एव स:' - वे वे ही थे । कितने गुणों का संगम ! कितना पुरुषार्थ ! कितना श्रम ! कितनी सेवा ! आप थे आचार्य तुलसी के बड- बन्धव ! आप थे अनोखे सन्त !
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प्रस्तुत ग्रंथ के संपादक- संकलक हैं श्रमण सागर । आप प्रस्तुत कृति के कवयिता के साथ छाया की भांति ३० वर्ष तक रहे और मुनिश्री की पूर्ण चर्या के नियामक, संयोजक और संरक्षक थे । आप स्वयं कवि, इतिहासकार और संस्मरण लेखक हैं । इतिहास की जब आप बातें सुनातें हैं, तब सुनने वाले को प्रतीत होने लगता है कि श्रमणजी संभवतः उस समय वहीं थे और घटना को देख रहे थे । पर यह केवल एक आभास ही है। आप जिस भाव भाषा में सुनाते हैं, वह स्वयं विशिष्ट होती है और श्रोता को घटना से एकात्म कर देती है । प्रखर बुद्धि के धनी श्रमण
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सागर राजस्थानी और हिन्दी में गीत भी लिखते हैं, जिनका गुंजारव दीर्घकाल तक होता रहता है। ___ यह एक मणि-कांचन योग है कि मुनिश्री चंपालालजी (भाईजी महाराज) के काव्य को प्रस्तुत करने वाले श्रमण सागर भी एक उच्चकोटि के कवि और साहित्यकार हैं । इनकी प्रस्तुति में स्वयं एक निखार है जो पाठक को बरबस अपनी ओर खींच लेता है तथा शब्द-सागर में गोता लगाने और अर्थ की ऊंचाई तक उड़ान भरने के लिए बाध्य कर देता है। ___मुझे आज मुनिश्री के मूल-समाधि-स्थल के आसपास बैठे-बैठे इस भूमिका को पूरा करने में परम आनन्द का अनुभव हो रहा है। वे सब गए। सब जाएंगे। वे सुवास छोड़ गए। सभी सुवास नहीं दे पाएंगे। आज भी उनका समाधि-स्थल उनके तैजस परमाणुओं से अनुप्राणित है, ऐसा वहां अनुभव होता है।
उस परम पुनीत आत्मा के प्रति मैं अवनत हूं और उनके ऊर्धारोहण की निरन्तर कामना करता हूं।
मुनि युगल (सागर-मणि) ने मुझे लिखने के लिए चुना, यह उनका वात्सल्य और विश्वास का द्योतक है। मैं भाईजी महाराज के सतत प्रवहमान स्नेहधारा का सिंचन पाकर कृतकृत्य हुआ हूं। अस्तु...
-मुनि दुलहरान
सेवाभावी समाधि-स्थल जैन विश्व भारती लाडनूं ५-२-८८
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क्रम
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असल बात पञ्चक बत्तीसी श्रावक शतक संत चेतावणी गुलाब गुणचालीसी परमारथ पावड्यां श्रमण बावनी शान्ति सिखावणी सरड़का सोहली साधक शतक शिक्षा सुमरणी फुटकर फूल घासो-गोली यादगारां पद्यात्मक पत्र संस्मरण पदावली संस्मरण
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असल बात
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निछरावल
मैं कवि कोनी, पण कवियां रै बिच में ऊऊं बैठूं कविता रा खरड़ा 'रु खलीता, खोलूं और लपेटू भावां री छोलां मैं फिर-फिर लिखूं, समेटू, मेटू शब्दां रौं तलपेटी ढेर, उधेड़-उधेड़ पलेटू
छंद न जाणूं, बंध न जाणूं, सन्ध न जाणूं भाई ! तिखो तिखो जोड़, मसां-सी एक छांनड़ी छाई 'चंपक' नूआं - जूनां भवियां कवियां-हिये-हार-सी आतम दरसण करण बर्णला, आ'आसीस' आरसी ।
सेवाभावी 'चम्पक'
असल बात
३
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मन रो मोरियो
छतरी तांण'र घूमर घाल'र मोरियो . घणोइ फूटरो नाचे। नाच नूच'र पगां साहमो देखै जणां? उदास हूर अपण आप नै जाचै । पण नाचणूं को छोड़नीं। ओही हाल म्हारो है...
४ आसीस
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निजोरी बात
बै आंख्यांइ कोनी? बै पांख्यांइ कोनी? भाइ-बहन घणांइ है, पण बै राख्यांइ कोनी ? पाषाण कीमती है, घडणनै बैठ्यो हूं पण के करूं निजोरी बात है, बै टांक्यांइ कोनी! बै आंख्यांइ कोनी! बै पांख्यांइ कोनी!
असल बात ५
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घुड़-दौड़
घुड़दौड़ मै तो, सगलाइ घोड़ा दौड़े। दौड़ जकां मै, के सगलाइ ओड़े-जोड़े ? कोइ बछेरियो, साहरै कर सरपट नीसरै, जद, बूढ़े को भी मन बढ़ ज्यावै,
जोस चढ़ ज्यावै, भलाइ कोइ चाल देख र हंस,
ताना कसै,
मुंह मचकोड़े, पण भाई! घुड़दौड़ मै तो सगलाइ घोड़ा दोड़ें।
६ आसीस
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होये री हूंस
पंखेरू नओ है'र, अकास बोहलो बड्डो है। पंखडा फड़फड़ा'र उडणी चावै, उड-उडर पाछो पड़ ज्यावै । पण बो के निरास हुवै ? उडणो छोड़ दे ? मै भी गुणमणाऊं उडणो चाऊं, अक्खर भेला करूं। उकलत वो आप आपरी है, थां जिसी कविता कठेऊ ल्याऊं। तोइ केवणियां तो इयांनइ केसी आतो,खाली छाती रो ठड्डो है।
पंखेरू नूओ हैर अकास बोहलो बड्डो है।
असल बात ७
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5
आसीस
कवी' र कविता
अकास में इन्दरधनुष ताण्यो कोनी जावै, त है । रोही मैं सिंह बाड्यो कोनी जावै सिंहणी जण है । कवि कोइ भाटो थोडोइ है जको घड' र बिठाद्यो, कविता बणाई कोनी जावै बा तो आपेइ बणे है ॥
सूरज नै उगावै कुण है ? टेमोटेम अपण आप ऊगे है, पंखी नै चुगावै कुण है ? भूख लाग्या आपेइ चुगे है । कवि तो तिलोकी को स्रष्टा द्रष्टा हुयां करै है, बीने पुगावै कुण है ? बो तो कल्पानावांडं पूगे है ।
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कुण दोसी निर्दोसी
काच फूटग्यो, रोलो मचग्यो, दिल टूट्यो आवाज न आई, ना कुछ-सो मन-भेद पड्यो बस दूर हुआ मां-जाया भाई। गेहणो बांट्यो, जग्यां बांटली, भींत आंगणै मै खिंचवाई, पेठ गमाई, जमीं जमाई, पीढ़यां री दूकान उठाई। हाथी निकल्यो, अड़ी पूंछड़ी कलस्यै री रह गई लड़ाई, खुदी दिराण्यां-जेठाण्यां मै हिन्द महासागर-सी खाई।
सागै पल्या, रम्या सागै ही, सागै सीख्या, जीम्या सागै. बातां करता लोग-लुगायां, 'जोड़ राम-लिछमण-सी लागै'। आज हुयो के ? भाई नै भाई देख्यो भी नहीं सुहावै, ओरां आगै एक दूसरै रा ओगण-गिणगत नित गावै । 'चम्पक' घर मै बड़ी दुश्मणी, बणग्या जिगरी दोस्त पड़ोसी, पड़ग्यो लोही पाणी स्यूं भी पतलो, कुण दोसी निर्दोसी ? आंण-टांणै, इं-घर बी-घर, आंण-जांण री आंट अडाई । ना कुछ-सो मन-भेद पड्यो बस दूर हुया मां-जाया भाई, काच टूटग्यो, रोलो मचग्यो, दिल टूट्यो आवाज न आई ।
असल बात
है
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एक कोल
संघ रै इकलास की शानी कठेइ है नहीं। साख तेरापंथ री छानी कठैइ है नहीं। आदि म्हारो संघ है अरु अन्त म्हारो संघ है। संघ स्यूं बधकर नहीं कोई आथ इ संसार मै ॥१॥
के करूं मै भला बी बैकूट रो। जठे सुख दुख रो कोई साथी नहीं। संघ है सोह क्यूं जले घी रा दिया। जीव स्यूं बत्ती दकी है संघ म्हारै वासते ।।२।।
रंज मै भी, खुशी मै भी, गमी मै अणगमी मै। संघ म्हारो और मै हूं संघ रो॥ कदे कुर्वाणी नहीं सौदो करै। दियां जा बलिदान अपण ढंग रो॥३॥
संघ रै खातर निछावर कालजो। मनै बदलै मै नहीं की मांगणो॥ आग स्यूं मुंह भुसलद्यो पण स्नेह देकर। सदा थांनै दियो देसी च्यानणो॥४॥
एक दूजे री उतरती जो करै, जलै ईर्ष्या द्वेष मच्छर आड मै। जठे छोटे-बड़े रो नहिं कायदो, खड्यो है बो संघ साव उजाड़ मै॥ हाथ खावै हाथ नै बो घर किस्यो? आबरू के राखणी आसान है। लोग ताल्यां बजावै, खिल-खिल हंसे, संघ बो किरकेट रो मैदान है॥५॥
१० आसीस
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बफादारी संघ री बै के निभासी। दो मिनट भी बैठ सुख-दुख नहिं कहै जो नहिं सूर्ण ॥ संघ चादर नै भला बै के बधासी। मियां धागा प्रेम का जो नहिं चुण, जो नहिं बुण ॥६॥
होड़ सागर री कदेइ चलू भर पाणी करै? बूंद-बूंद टपक-टपक चम्पक सदा अंजलि झरै॥ बूंद-बूंद रली चली रसधार सागर बण गयो। उछलकर बारै पड्यो अस्तित्व पाणी खो दियो ॥७॥
एकलो तो हुवै आखिर एकलो ही। संघ अपरम्पार लहरातो समन्दर ।। समन्दर मै बूंद रो भी मोल है। कोल, आपां रवां एकामेक बण श्रीसंघ रा ॥८॥
मिल्या आपां एक ठामे संघ री सगती बणी। प्रेम ज्योति बुझ्या, मेहफिल मै रहै कद रोशणी ॥६॥
तूं कर्यां जा बेधड़क निष्काम सेवा। समर्पण निरफल कदे नहिं जायला॥ (भले) नहिं सुहावै नांव दीयै नै लियो। पण पतंग्यो प्राण भेंट चढायला ।। रात बीत्यां पछै सूरज ऊगसी। राख थ्यावस, भूलज्या सत्कार नै ।। जीवतां नै सदा गाल्यां ही पड़े है। मर्या, धोक्यां करै जग जुंझार नै ॥१०॥
असल बात ११
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पञ्चक बत्तीसी
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क्रमवार
१५
m
१७
mm
x WW
१८
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m
२१
३७
१, सीख २. भूल मत ३. पेली तोल, पछै बोल ४. समझदारी रो सार ५. भणण सागै गुण ६. संगत री रंगत ७. आछां रो मेल ८. मान-मनवार ६. सुख रो संकेत १०. कृतघ्न कुण? ११. मित्र ढूंढ १२. सरल बण १३. साहस मत खो १४. महानता रो गेलो १५. सज्जनता रो रूप १६. घुल-मिल'र देख
१७. आयोड़ा रो आदर १८. जीण री जुगत १६. आज रा अगुवा २०. आं बडोड़ाऊं दूर २१. सुधर'र सुधार २२. स्याणां री स्याणप २३. आत्म-निदरसण २४. स्नेह-राग-परिचय २५. तुकम-तासीर २६. पाणी परख २७. पौरस बढ़ा २८. आत्मालोचन २६. तूं साधक है ३०. कवि बण, पण ३१. सागर ! सावधान ३२. आशीष
२३
४०
२५
४१
४४
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९
सीख
सागर ! संयम सांतरो, सुखे पालजे शान्त । संघ, संघपति शरण में, रह निश्चिन्त नितान्त ॥ १ ॥
शासन - सागर मै सदा, कर सागर ! किल्लोल । रत्नागर रमणीक हद, हीये री हिल्लोल ॥२॥
शासन उमग-जला सुखद, खिणभर खटै न खोट । आचारी नै है अठै, अक्षय सागर ! ओट ॥३॥
सागर ! भैक्षव-संघ रो, है ऊंचो आदर्श | अडिग राखजे आसता, हरदम चढ़ते हर्ष ॥ ४ ॥
सागर ! सुर-तरु संघ स्यूं, पूरण राखी प्रेम | विज्ञ ! विनय-व्यवहार-नत, निमल निभाजे नेम ||५||
पञ्चक बत्तीसी
१५
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१६ आसीस
२
भूल मत
सागर ! सद्गुरु रो सदा, अकथनीय उपकार । साम्प्रत माटी रो सुघड़, कुंभ करै कुंभार ॥ १ ॥
शिव - दाता, त्राता सुगुरु, मात-तात, गुरु- भ्रात । सद्गुरु से सागर सतत, शरण राख दिन-रात ॥ २ ॥
करै सारणा-वारणा, नहि मारण दै मेख | सद्गुरु सिख समुदाय की, सागर ! राखै रेख ||३||
सुमन - सुरभि, गुरु-शिष्य रो, देह-प्राण सम्बन्ध | सागर ! सद्गुरु नावड़ी, ओ संसार समन्द || ४ ||
आसंगो आछो नहीं, अटल राख गुरु-आश । बंधन सागर ! बाथ मैं, ओ असीम आकाश ||५|
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पेली तोल, पछे बोल
सागर ! पेहली सोचकर, फेर बोलणो बोल । सारो जग सज्जन बण, तीखो बधसी तोल ॥१॥ बोली-बोली मै खिलै महाभारत सो खेल । सागर ! बाणी स्यूं समझ, कितो तिलां मै तेल ॥२॥
कोई स्यूं करणी नहीं, बिना जरूरत बात । कांण-कायदो खास है, सागर ! अपणे हाथ ।।३।।
बात, बिना भाजन बिना, कहतां हुवै कदर्थ । सागर ! पेहली सोचजे, विग्रह बधै न व्यर्थ ॥४॥
शब्द-शब्द सागर ! सदा, बोल तराजू तोल । जो चाबी तालो जड़े, बा ही देवै खोल ॥५॥
पञ्चक बत्तीसी १७
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समझदारो रो सार
बोली बोलीजे इसी, पकड़न कोई पाय । सागर ! समझू समझलै, लगै जग्यांसर जाय ॥१॥
सागर ! सीखी बोलणो, जाणे जाणणहार । माखण विरला नै मिलै, छाछ पिवै संसार ॥२॥
समझू समझ स्वल्प मै, सागर ! साची रेस । मूरख मगजपची करै, पूरी पड़े न पेस ।।३।।
अणसमझआवेश मै, बणज्यावै बाचाल । सागर! सुमधुर शान्ति रा, सुन्दर फल संभाल ॥४॥
सागर ! शोभै है सदा, बगत-बगत री बात । बिना बगत लागै बुरो, शशि सूरज रै साथ ॥५॥
१८ आसीस
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भणणे सागै गुण
कोरी विद्या स्यं कदे, मिनख न बणे महान । रोहीड़े रै फूल रो, सागर ! के सम्मान ? ॥१॥
सागर ! परखीजै सदा, विद्या सह व्यवहार । ढोर किस्यो ढोवै नहीं, भारी पुस्तक भार ॥२॥
शिक्षा मै शोभै नहीं, अकड़ाई अविवेक । सागर ! स्वर्णिम-थाल मै, ज्यूं रीरी री रेख ॥३॥
सागर ! सीख्यो सैकडां, अनुपम कला उदार। जीवन री ज्योति जगे, तो सीख्येड़ो सार ॥४॥
सागर ! इण संसार मै, पढ्यो-लिख्यो भी फूड़। जो नहिं जाणे बोलणो (तो) सब सीख्येड़ो धूड़ ॥५॥
पञ्चक बत्तीसी १६
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२०
आसीस
६
संगत री रंगत
ओछां रो आछो नहीं, सागर ! अति सम्पर्क | ज्यूं फूटी नावा करें, गहरे पाणी गर्क ॥ १ ॥
ओछां री संगत अरे !, मारै मानव मोल । सागर ! साम्प्रत स्वर्ण नै, दै चिरम्यां स्यूं तोल ||२||
सागर ! संगत रो असर परख देख प्रत्यक्ष । अमर-बेल आसंग स्यूं, बलै समूचो वृक्ष ॥३॥
अपछन्दा ओल्है करें, आमी - सामी बात | अवगुण रै आरंभ री, सागर! आ शुरुआत ||४||
कायर संगत कायरी, जोशीलां संग जोश । सागर ! आवै संगत स्यूं, अटकल, अकल रु दोष ||५||
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आछां रो मेल
सागर! तूं सत्संग रो, आंक मोल आगूच । मीठे री मनुहार मै, पातल की भी पूछ ।।१।। सागर ! समझू सुगण जन, पंडित स्यूं कर प्रीत। तिरै काठ संग लोह भी, आ उत्तम-जन रीत ॥२॥ बैठे तो तूं बैठ जे, पंडित-जन रे पास । सागर ! संगत स्यूं बढ़े, बुद्धि, विनय, विश्वास ॥३॥
भिड़णो चावै तो भिड़ी, सागर ! पंडित सोज । विज्ञ-वैद्य रे हाथ स्यूं, मरण मै भी मोज ॥४॥
आछां नै आछो मिल, आछोड़ा रो मेल । सागर ! सागर मै रलै, बिना बुलायां बेल' ॥५॥
-
१. नदी का प्रवाह।
पञ्चक बत्तीसी २१
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मान-मनवार
बिना मान-मनवार कै, रहण मै कै सार ?। सागर ! हाथ्यां पर लदै, जन इन्धन रो भार ॥१॥
भंवरा ! आदर-भाव बिन, डाल-डाल मत डोल । सागर ! थारो है सही, अपणो भी कुछ मोल ॥२॥
आदर री सागर ! अकथ, लगै राबड़ी स्वाद। बिना लूंण पकवान भी, बणज्यावै बे-स्वाद ॥३॥ सागर ! सूखो सोगरो, स्ववश रो सुखकार । ठोल्या खा पकवान भी, है जीमण मै हार ॥४॥
आदर और नै दियां, मिलसी सागर ! मान । कदे मिनख भूल्यां कर?, अवसर रो अहसान ॥५॥
२२ आसीस
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&
सुख रो संकेत
सागर ! सुख संसार सब, थाक्यो सगलै जो सुख चावै ढूंढ़णो, (तो) मन ढूंढ़े मै
संकट में संतोष यदि, राख सकें तो राख । सागर ! सुख रो स्वाद तूं, चाख सके तो चाख ॥ २॥
ढूंढ़ ।
ढूंढ़ ||१||
सागर ! दुख अनुराग है, सुख है ममता - त्याग | राग - त्याग, वैराग बिन, बुझे न जल री आग ||३||
धन मैं सुख री धारणा, सागर ! धारै लोक । पुद्गल सुख है पांवला, असली सुख संतोक ||४||
सुख मात्रा सापेक्ष है, अति मात्र अतिरेक । सागर ! समता सीखलै, दुख तूं सुख देख ||५||
पञ्चक बत्तीसी २३
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१०
कृतघ्न कुण?
सागर ! घृणित कृतघ्न सो, अधम पाप अभिमान । अपणा तूं अपणत्व स्यूं, गरड़ा, दर्दी, ग्लान ॥१॥
अमरबेल सो कृतघनी, सागर ! गुणनै भूल। पल जकै ही पेड़ स्यूं, पड़े अन्त प्रतिकूल ॥२॥
सागर ! जो गूण भूलकर, झाल झूठो झोड़। तो उलंठ शठ ऊंठ नै, खलै ऊंठ री खोड़ ॥३॥
छिद्रान्वेषी छिबकली, मीठो मूडै मित्र । सागर ! दीसै शान्त पर, आदत बड़ी विचित्र ॥४॥ सागर ! छिद्रान्वेषियो, मीठो फल किंपाक । रंग रूप रो फूटरो, तोडै कंठ तड़ाक ॥५॥
२४ आसीस
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११
मित्र ढूंढ़
सागर ! सम्पत मै सुखद, हाजर मित्र हजार। बोलण विग्रह-विपद मै, साथी कुण है त्यार ॥१॥
सागर ! सुकृत साथ है, होसी जो कुछ होण । सुख मै साथी सेकड़ा, दुख मै साथी कोण ॥२।।
विद्या-विनय-विवेक है, थारा साथी तीन । सागर ! करजे साधना, तूं होकर तल्लीन ॥३॥ अमर-बेल सागर ! अमर, साथी नै नहिं खैर । पसरै जिणरी डाल पर, विण स्यूं पोखै वैर ॥४॥
सागर ! सांप्रत समझल, मित्र-मित्र मै फेर । दुर्लभ हीरो दीखणो, कांकर ढेरमढेर ॥५॥
पञ्चक बत्तीसी २५
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१२
सरल बण
सागर ! सीधै बांस पर, लहरावै ध्वज लोक । बांकी-चूंकी लकड़त्यां, चूल्हे मै दै झोंक ॥१॥
सागर ! बण शिशु-सो सरल, बांक बुराई छोड़। जठे सरलता साधुता, सौ को एक निचोड़ ॥२॥
सागर ! श्रद्धा-सिद्धि रो, पकड़ पाधरो पन्थ । बिना सरलता सत नहीं, नहीं सत्य बिन सन्त ॥३॥
सागर ! जागृत-जोग बण, रच मत माया जाल । चेतो राखी चुगल की, 'चम्पक' समझण चाल ॥४॥
सागर ! कर गति-मति सरल, सरल सूरीली बीण । पाप प्रपंचां स्यू परै, कोविद ! कला-प्रवीण ! ॥५॥
२६ आसीस
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१३
साहस मत खो
सागर ! दुख समचित सहै, हिम्मतवान सोग्यो- संताप्यो रहे, निर्भाग्यां
रो
सोक नाश श्रुत रो करें, सोक शरीर सागर ! धन, धीरज, धरम, देवै
सागर ! तप-जप-विधि कठै, सम, श्रम, समझ समाधि । रात दिवस लागी जठ, सोक, सोक-सी व्याधि ॥२॥
सागर ! सूरज री हुवै, सदा तो क्यूं तूं दुमणो बणे, दुख में
हमेश ।
बिगाड़ | सोक उजाड़ ||३||
सागर ! समचित सहन कर, करड़ी झाट झेरण री सह्यां,
निकलै
झट
शेष ॥ १ ॥
अवस्था तीन । दरदी-दीन ॥४॥
सीख पुनीत । नवनीत ||५||
पञ्चक बत्तीसी २७
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१४
महानता रो गेलो
कष्ट पड्यां सागर ! कदे, मत करजे मुख म्लान । चोटां खमण स्यूं चतुर !, मानव बणे महान ॥१॥ बड़ो, बड़ो दोरो बणे, बड़ो बणण री पीक । तो गम खा, गंभीर बण, लोप न सागर ! लीक ॥२॥
तपणे री सागर ! तनै, करणी पड़सी पेल । सुध बणणो सो टंच रो, सोनो है के स्हेल ॥३॥ तणी न ऊंचो ताड़-सो, पंखी रहै न पास।। फल नहिं आवै हाथ मै, सागर! सोहरै सास ॥४॥ सागर ! सागर सारिसो, गहरो रही गंभीर । सीमा में बरती सदा, नदियां रो ज्यूं नीर ॥५॥
२८ आसीस :
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१५
सज्जनता रो रूप
सागर ! सज्जन आपरो, देसी हित री सीख । ऊपर स्यूं करड़ो मगर, भीतर मीठो ईख ॥१॥ नीको कड़वो नीमड़ो, सागर ! सन्त सुजाण । खोट काढ़, व्रण नै भरै, जाण कोइयक जाण ।।२।। सागर ! कर यदि कर सके, तूं चोखां री होड । धोलां मीठा दूध-सा, पक्यां नरम बेजोड़ ॥३॥ त्यागै प्राण पतंगियो, पण नहीं तोड़े प्रीत। स्याणा सागर ! दै सलाह, मीत ! प्रीत री रीत ॥४॥
सागर ! सो चोटां सहै, सोनो, सज्जन, सूर।। अड़ताइ अरडाटो करै, कुत्तो, कांसो, क्रूर ॥५॥
पञ्चक बत्तीसी २६
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३० आसीस
シ
१६
घुल-मिल' र देख
दूध-खांड की ज्यूं दकी ! रहिजे एकामेक । घुल-मिल सागर ! सैण स्यूं, चलै न हंस-विवेक ॥ १ ॥
सागर ! सज्जन बण सदा, तरल दूध तुच्छ नीर ने भी तुरत, आप
रै तुल्य । अपणो मुल्य ॥ २॥
aण मित्र तो तूं बणी, सागर ! सलिल सुजाण । बलै जलै पेहली स्वयं, पय ने पड़े न ताण ॥ ३ ॥
जल जलता ही उछलकर, सागर ! उफण दूध । भाई रे दुख में दुखी, पड़े आग मै कूद ॥४॥
छांटो सागर ! छिडकतां, हियो हुज्यावै हेम । भाई-भाई मै हुवै, पय-पाणी सो प्रेम ॥ ५ ॥
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१७.
आयोडां रो आवर
सागर ! पायो सहज ही, सन्त मिलन संयोग। आगत-स्वागत अतिथि की, करणी दे उपयोग ॥१॥
पड्या कठे है पावणां, मिलै भाग्य बस जोग । सागर ! भगती-भाव स्यूं, कर उत्तम उद्योग ॥२॥ आयोडां री खातरी, करणी है कर्तव्य । भावां मै भालै जगत, सागर ! सभ्यासभ्य ॥३॥
आवो बैठो विनय स्यू, आसण दैणो धाम । आये. रो आव स्यूं, सागर ! करणो काम ॥४॥
व्यवहारिकता मै कदे, मत बणजे तूं मूक। अवसर ओ भपणत्व को, सागर ! तूं मत चूक ॥५॥
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१८ जीणे री जुगत
बणणो चावै तो बणी, सागर ! मीठी दाख । भीतर-बाहिर सरस रस, लोक भरैला साख ॥१॥ सागर ! यदि बणणो सरस, सीख ईख स्यं सीख । चूसणिय रै कालजै, बांधे रस री डीक ।।२॥ मत बणजे तूं बोरियो, ऊपर कोमल कोर। सागर ! सुन्दर रंग पर, भीतर महा कठोर ॥३॥
फिरण-फिरण मै फेर है, सागर ! तूं मत रूस । रेंठ फिरै ईखू सरस, चरखी लेवै चूस ॥४॥
सागर ! तूं रहिजे सदा, धोलो दूध समान । अभिरुचि रै अनुरूप ही, बण विविध पकवान ।।५।।
३२ आसीस
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१६
आज रा अगुवा
अगुवा सागर ! आज रा, केसूला रा फूल । दीसत दीस फूटरा, किन्तु मूल मै भूल ॥१॥
अगुवा सागर ! आकड़ा, फूल देख मत फूल । आम्बा-सा अकडोडिया, भीतर तूल फिजूल ॥२॥ अधिक धनी है आकड़ो, सागर! मत लै नाम । पान फूल फल है घणा, पर के आवै काम? ॥३॥
ऊपरले आलोक मै, अकल उलझगी आज । सागर ! भेद भविष्य रो, समझ नहीं समाज ॥४॥
लेक्चर झाड़े, घर भरै, नेता नीत बिगाड़ । सागर ! यूं कद हो सक, सही समाज-सुधार ॥५॥
पञ्चक बत्तीसी ३३
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२०
आं बडोड़ाऊं दूर
सागर ! मोटो र विचै, छोटां रो बे-हाल । ज्यूं गोधां रै झोड़ मै, बूंटा रो खोगाल ॥१॥
अपणी-अपणी दिन दशा, देख बणाणी बात । बड़ा-बड़ां री बात मै, सागर ! घाल न हाथ ॥२॥
सागर ! खींचाताण मै, हित नहिं आवै हाथ । पड्या पिसीजै बापड़ा, घुण मोठां रै साथ ॥३॥
सागर ! मीठे रै लिए, कदे न खांणी ऐंठ। झूठी पातल चाटणे, स्यूं न भरीज पेट ॥४॥
सागर ! सांगर केर स्यूं, पाली सूआ प्रीत। पड़ सोनै रै पिंजरै, जीण मै के जीत ॥५॥
३४ आसीस
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२१ सुधर' र सुधार
सागर ! सुधरै सागला, इसो सीख विज्ञान । कलाकार करदै तुरत, भाटै नै भगवान ॥१॥
कल बिन बल के काम रो, सागर ! साची मान । रसी-फसी पग बैल रै, निकल न सकै अजाण ॥२॥
देणो भाजन देखकर, सागर ! सहतो घाम । खाटी केरी रो बण, पककर मीठो आम ॥३॥
अति ऊंडी आलोचकर, सागर ! भाजन सोज । सगती सारू सूंपणो, सहतो-सहतो बोझ ॥४॥
सागर ! गुरु लाखां मिलै, चेलो मिलै न एक । कह्यो करणिया है किता, दै उपदेश अनेक ॥२॥
पञ्चक बत्तीसी ३५
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२२
स्याणां री स्याणप
सागर ! स्याणप स्वयं री, काम पड्यां दै काम । है साहजी री सीख रो, फलसै तक परिणाम ॥१॥
अन्त-अन्त स्याणप करै, सागर! कसबड़ हाय । कर्य-करायै काम नै, करदै गतरस प्राय ।।२।।
सागर ! होणो ही चहै, हद महाजनी हिसाब ।। अति कसबड़ के काम री, (जो) करदै काम खराब ॥३॥ सागर ! सह लेणो स्वयं, समय पड्यां नुकसाण । पण शत्रु नै भी सलाह, हित की देणी जाण ।।४।। साच झूठ रो है नहीं, सागर ! सही निवेड। तो तूं के ताणी करै, छुटपुट छेड़ा-छेड़ ॥५॥
३६ आसीस
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२३ आत्म-निदरसण
सुणकर अणगमतो सबद, लाल न करणी आंख । सागर ! पेहली स्वयं की, जीवन झांकी झांक ॥१॥
खिण भर भी सागर ! खुलो, मन मतंग मत छोड़। जद भाग अंकुश लगा, पाछो ही बाहोड़ ॥२॥
देखो भले दबाव दै, झटकै मिलै न तथ्य। तर्क तराजू स्यूं तुलै, सागर! कदे न सत्य ।।३।।
सावधान सागर ! रही, आज 'जवां' को राज । चटको देव एक ही, चलै कई दिन खाज ॥४॥
आत्म-निदरसण रै बिना, सब दरसण बे-कार । सिद्धि-द्वार सागर ! सुलभ, आत्मा ही हरिद्वार ॥५।।
पच्चक बत्तीसी ३७
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२४ स्नेह-राग परिचय
विषय बधै विष बेल ज्यू, परचो मोटो पाप । सागर ! नहिं आवै सुधी!, धूलो खांयां धाप ॥१॥
पूलो हाख्यां पर जलै, छेड्यां ऊठे झाल । रंग-राग री आग रो, सागर! जग-जंजाल ।।२।।
स्नेह-राग सागर ! सबल, भंवर भयंकर भार । भूल-भुलैयो भव-भ्रमण, बुद्धि बिगाड़ विकार ॥३॥
सागर ! परचै मैं पड़यां, हीये रहै न होश । चंचल चित चकरी चढ़े, दै ओरां नै दोष ॥४॥
हीये फूट नै मिलै, भाग फुट रो जोग । सागर ! थाइसेस-सो, (ओ) स्नेह-राग रो रोग ।।५।।
३८ आसीस
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२५ तुकम-तासीर
दुर्जन तजै न दुष्टता सज्जन सजन स्वभाव । सागर ! तो सूखे नहीं, तलियो देत तलाव ॥ १ ॥
तजै 'तुकम तासीर' कद, सोबत सके न छूह' | सागर ! शाहजादो रमै, महिलां मैं धिग् धूंह || २ ||
सागर ! घर परिकर असर, आयां सरसी अन्त । कह, कद कड़वी - बेल पर, मीठो फल मुलकन्त ॥ ३॥
सागर ! बढ़ा न बीसरे, बड़पण झोंका झेल । दर मैं भी देखें नहीं, गज गंडक री गेल || ४ ||
असली रै औलाद की, हुवै न सागर ! होड । बोड़ां री घरघोडिया, खुड़ा सकेँ कद खोड़ ||५||
१. तुकम-ए-तासीर, सोवत-ए-असर ।
पञ्चक बत्तीसी ३६
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४०
आसीस
२६
पाणी - परख
साहूकारी री सदा, रेसी अविचल रेख । चोड़े चींधी चोर कै, शिर पर सागर ! देख ॥१॥
ओछी पत ओछी अकल, अवसर रा अणजाण । अणघड़ अनुभवहीण रा, अ सागर ! अलाण || २ ||
गरमी मैं सूखै नदी, बरस्यां आवै बाढ़ | सागर ! बन्धो बांधकर, सीमित नहरां काढ़ || ३ ||
सिंचन चिंतन स्यूं सरस, सागर ! जीवन खेत । चासे बिजली च्यानणो, सूख न पावै रेत ||४||
पाणी स्यूं सागर ! परख, सूरा, कूआ, सेण । रद पाणी उत पर्छ, मोती, माणस, नेण ॥५॥
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२७ पौरस बढ़ा
कष्ट पड्यां कायम रहै, साहसीक निर्भीक । सागर ! सिसकै सिटलिया, झांक रांक दै रीक ॥१॥
'चम्पक' हिमगिरिपर चढ़े, सागर-तल लै नाप । चन्द्र-लोक जा ऊतरे, साहस रो बल साफ ।।२।।
सहनशीलता री हुवै, हद जद सागर ! हार । नारद, नमे न नागड़ा, नाग बिना फुकार ॥३॥
कह सागर ! पौरुष-कथा, सुणतां चढ़े उमंग । रंग देख बदल्यां करै, ज्यूं खरबूजो रंग ॥४॥
शब्द असंभव कोश मै, साले सागर ! साल । कर्म-शील काढ्यां करै, पाणी फोड़ पताल ।।
पञ्चक बत्तीसी ४१
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४२ आसीस
२८
आत्मालोचन
1
निरखे तो खुदरा निरख दो क्षण दुर्गुण दोष । सागर ! तूं पर - गुण परख, आगम रो उद्घोष ॥ १ ॥
औरां री आलोचना, पागल पुरुष प्रलाप । सागर ! रोही रो रुदन, पाप अनाप-सनाप ॥ २॥
निज अवगुण निरखे नहीं, आखै पर का भेद | चाली सागर ! चालणी, खेद बतावण छेद ॥ ३ ॥
सागर ! काच रु केमरो, दोनूं परख प्रबुद्ध । उलटो अंकन फिल्म मैं, शीसो सुध रो शुद्ध ॥४॥
दूजां नै देख्यां दकी, सरै न गरज लिगार । अन्तर की आलोचना, सागर! प्रवचन -सार ॥५॥
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२६
तूं साधक है
तन-बल तो काची तर्क, मन-बल रह मजबूत । सागर ! तिरै समुद्र मैं, साधक, दूत, सपूत ॥ १ ॥
जल मैं ज्यूं नौका तिरै, त्यूं सागर ! संसार । नौका मैं जल यदि भरें, तो डूबै मझधार ॥२॥
सागर ! कड़वी बात सुण, जो दें मधुर जवाब । ठंडी पाणी उगलती, दै आगी नै दाब ||३||
अति-आरामी, आलसी, अभिमानी, आजाद । लंपट, लोलुप, लालची, सागर ! बो के साध ? ॥४॥
- कांण सागर ! नहीं, खांण पांण ही ध्यान । नहीं बखाण-बाणी समझ, साध असाध समान ॥ ५ ॥
पञ्चक बत्तीसी ४३
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कवि बण, पण...
कविता करतां दधक्षर, सागर! राखी याद । चरण धरै चेतै बिना, (तो) व्यर्थ हुवै बरबाद ।।१।।
राख आदि में ज-भ-ह-र-ष शुरू न करणो छन्द । सुण सागर ! अ-ज-म-न-क पर, मत कर लेखण बंद ॥२॥
करामात कवि री किती, कहं कल्पनानीत । सागर झलक, गिरि गलै, जद कवि गावै गीत ॥३॥
कवि री छवि-सी कल्पना, रवि-सो कवि-उद्योत । नवि, पवि सागर ! अनुभवी कवि जगमगती जोत ॥४॥
कविता तोड़ मरोड़ कर, करै ओर की ओर । नांव आपरो चेपदै, चम्पक ! वो कवि चोर ॥५॥
४४ आसीस
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सागर ! सावधान !
अपणे मुद्दे मै रही, सावचेत खुशहाल । 'चम्पक' सागर ! चमकसी, आज नहीं तो काल ॥१॥
अकलदार ने आंख रो, घणो इशारो एक । अविवेकी नै लाख भी, सागर ! कहकर देख ॥२॥
आग्रह मैं आया करै, अहंकार, आवेश । झूठ, आंट, झंझट, कपट, सागर ! कटुता, क्लेश ॥३॥
आंख देखकर आंकलै, जो भीतरला भाव । 'चम्पक' चतुर चकोर तूं, सागर ! छोड़ विभाव ॥४॥ अन्त मती वैसी गती, जैसी गति मति होय । मति नै बदलण दै मती, सागर ! सिन्धु विलोय ॥५॥
पञ्चक बत्तीसी ४५
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३२ आशीष
सुबह-सुबह स्वाध्याय है, सागर ! साचो स्नान । उडा ऊंघ, आलस उभय, स्थिर चित बणी सुजान ॥१॥
निश्चित ही मिलसी रतन, पाणी माहि मजीक । धीरज धर, कर साधना, सागर ! सिद्धि नजीक ।।२।।
सागर ! बड़ के वृक्ष ज्यू, तूं करज्ये विस्तार। हो-भर्यो छायां घणी, सगलां नै सुखकार ।।३।।
सुखे-सुखे संयम निभा, सागर! तूं सोत्साह । श्याम खोर बण संघ रो, 'चम्पक' री चित-चाह ॥४॥
राजा देव रीझ कर, बड़ी-बड़ी बक्सीस । पर सागर ! चम्पक कन्है (है) आ हार्दिक आशीष ॥५॥
४६ आसीस
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श्रावक-शतक
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सोरठा-छन्द
मंगलीक महावीर, गोतम गणधर गुण निला । भिक्षू भंजन भीर, समरो निशिदिन श्रावकां ! ॥ १ ॥
तुलसी तरणी नाव, सागी इण संसार में । भक्ति करो भल भाव, सगती सारू श्रावकां ||२||
गणी-गणरा गुणग्राम, गाओ गौरव स्यूं गुणी । करो इसो कोइ काम, सुधरै नरभव श्रावकां ! | ३ ||
सामयिक शुभ- ध्यान, चिन्तन और चितारणो । बणो ज्ञान - गलतान, समकित धारी श्रावकां ! | ४ ||
गहरी तात्विक ज्ञान, मिलणो मुश्किल है महा । सीखो तत्त्व सुजान, सारां पेहली श्रावकां ! | ५||
मत द्यो निन्द्रा मान, बातां विकथा बरज कै । बंचे जद व्याख्यान, सुणो ध्यान स्यूं श्रावकां ! | ६ ||
अपछन्दा अवनीत, टालोकड़ गण स्यूं टलै । बरते जो विपरीत, संगत छोड़ो श्रावकां ! ॥७॥
मानवता रो मान, सदा बधावो सोख स्यूं । बणो मती व्यवधान, शुभ कामां में श्रावकां ! | ८||
पर - गुण स्यूं धर प्रेम, निरखो निज अवगुण निपुण । निमल निभाओ नेम, सुखे समाधे श्रावकां ! ६ ॥
श्रावक-शतक
४६
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निर्मल राखो नीत, परमप्रीत पय-जल जिसी। जग में होसी जीत, सच्चाई स्यूं श्रावका !।१०॥
ध्याओ धर्म-ध्यान, पाप-ध्यान नै परिहरो। मिलसी शान्ति महान, सहज भाव स्यूं श्रावका !।११॥
बणज्यो विज्ञ विनीत, चुणज्यो चोखा गुण चतुर । निकलै नव नवनीत, शुभ चिन्तन स्यूं श्रावका !॥१२॥
दूषण मुनि मै देख, चटकै मत थे चिमकज्यो। समझ सीख सुविवेक, स्वामी जी रा श्रावकां!।१३।।
बिना विचाऱ्यां बात, किण स्यूं ही करणी नहीं। है अपण ही हाथ, शोभा लेणी श्रावका !।१४॥
बधज्या घणो बिगाड़, बे-मतलब री बात स्यूं। तिल बणज्यावै ताड़, साम्प्रत देखो श्रावकां!।१५।।
रोजीनां री राड़, आछां नै ओपै नहीं। बोहलो करै बिगाड़, सोचो समझो श्रावका !।१६॥
दिल राखो दरियाव, झटक थे मत झलकज्यो। पड़सी पूर्ण प्रभाव, सगलां ऊपर श्रावका !।१७।।
धन स्यूं नावै धाप, सागर नै ज्यूं सलिल स्यूं। तृष्णा रो आताप, शान्त करो थे श्रावकां!।१८॥
साझो शासण-सेव, अटल राखज्यो आसता। अलगो कर अहमेव, सफल बणो थे श्रावकां !॥१९॥
बारह-व्रत वर रीत, धारो कर कर धारणां। पूरी पालो प्रीत, संयम सागै श्रावकां ॥२०॥
संत-सत्यां रै साथ, धारो धार्मिक धारणा। बिना जरूरत बात, शोभै कोनी श्रावकां !।२१।।
५० आसीस
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संत-सत्यां रै संग, बरतो मत विपरीतता। परिहर प्रेम प्रसंग, शुद्ध रहीज्यो श्रावका !।२२॥
न्यातीलां स्यूं नेह, अणहंतो आछो नहीं। छिन मैं देवै छेह, स्वारथ छुट्यां श्रावकां!।२३।।
पकड़ एक री पक्ष, न्याय निवाण नां धरो। पूजास्यो प्रत्यक्ष, समान समझ्या श्रावका !।२४।।
साची नेक सलाह, द्यो मत दिल देख्यां बिना। बण कर बे-परवाह, साख न खोओ श्रावका !॥२५॥
उद्यम आगेवाण, जैनागम मै जिन कह्यो। तकदीरां रै तांण, समय न खोओ श्रावका !।२६।।
अन्तर आंख उघाड, जोवो पथ जिनराज रो। बांधो जीवन-बाड, सदा सुरक्षित श्रावकां!।२७॥
तप तीखी तलवार, करम कटक स्यूं जुध करण । भरण सुकृत भंडार, सगती साहमो श्रावका !।२८॥
सझो सुरंगो शील, बधसी घणी विशेषता। झूल्यां संयम झील, शिव-सुख मिलसी श्रावकां !।२६॥
मिनखपणे रो मान, मानव बण खोवो मती। इज्जत और ईमान, स्वयं बचाओ श्रावकां!।३०॥
भजल्यो श्री भगवान, भोर सांझ भल भाव स्यूं। गेहरो-गेहरो ज्ञान, सझै नहीं जो श्रावकां !।३१॥
नहीं चहीजै नाम, इसा किता है आदमी। कर्यां करण रो काम, स्वतः नाम है श्रावकां!।३२।।
फाड़ा-तोड़ी-फूट, मन रो जो मैलापणो। लेवै निज गुण लूंट, समझो स्याणां श्रावकां!।३३।।
श्रावक-शतक ५१
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दलबन्दी-दीवार, काम नहीं देवै करण । पेहली चहिजै प्यार, सब कामां मै श्रावका !।३४॥
ओरां नै उपदेश, देणे मै के दक्षता। बढ़ा विवेक विशेष, सुधरो थे खुद श्रावकां!।३५॥
अरे! अणूता आल, दूजां पर देवो मती। होवै बुरो हवाल, सुजस न खोओ श्रावका !॥३६॥
राखो शासण-रीत, परम प्रीत गण-पूज्य स्यूं। बाजोला सुविनीत, शोभा बढ़सी श्रावकां!।३७।।
थे मत खोओ थाप, बिना विचारयां बोल के। चोखी है चुपचाप, सोच्या पेहली श्रावकां!।३८॥
चतुर और चालाक, अन्तर दोन्यां मै अधिक । छोड़ो मन री छाक, सरल बणो थे श्रावका !!३६।।
पूरब पुण्य प्रताप, मिली देह आ मिनख री। परहा परिहर पाप, श्रमण-भूत बण श्रावका !!४०॥
आतम-ज्ञान अनन्त, तर्क-तुला स्यूं नहिं तुलै । तहमेवं ही तंत, सदा सिरे है श्रावका !।४।।
अणुव्रत-व्रत स्यूं ओप, आछी जीवन री अहो। आडम्बर आटोप, सगला छोड़ो श्रावका !!४२॥
अणुव्रत री ले ओट, खोट खराबी मति करो। पापां री आ पोट, स्यान बिगाड़े श्रावका !!४३॥
कूड कपट रो कोट, खतरै स्यूं खाली नहीं। गहरा ऊठ गोट, सुई न सूझे श्रावका !!४४॥
चाल्यां खोटी चाल, पग-पग पिछताणो पड़े। पाणी पेहली पाल, सोहरी बंधणी श्रावकां!।४५।।
५२ आसीस
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होवै काम हरेक, सहज विवेकी रा सदा। विद्या बिना विवेक, शोभै कोनी श्रावकां!।४६।।
बधै सहज बहुमान, रलमिल सगलां स्यूं रह्यां। बाजै जग बलवान, संगठन स्यूं श्रावका !।४७।।
विनय सहित व्यवहार, खिण मै जग नै खींच ले। प्रगटै सहज्यां प्यार, सलिल बण्यां स्यूं श्रावका !!४८।।
वदनीति, अति बात, खुद रो कर दै खातमो। हियो राखज्यो हाथ, सुख पाओला श्रावका !।४६॥
श्रावकपण रो सार, आचार्यां री आसता। विमल विनय व्यवहार, सहनशीलता श्रावका !५०।।
सन्त-सत्यां रै साथ, हंसी-मसखरी हरकता। कोकथ करो न काथ, शरम राखज्यो श्रावकां!।५।।
सदा करो सम्मान, सत्य शील सन्तोष रो। सहज्यां बढ़सी शान, सारै जग मै श्रावकां!।५२।।
कोई स्यूं भी काम, करडो बोल्यां नहिं कढ़े। पास्यो शुभ परिणाम, सावल बोल्यां श्रावका !!५३॥
ओलखज्यो आचार, गण-मर्यादा गौर स्यूं। विद्या रो विस्तार, संजम लारै श्रावकां!।५४॥
बगत-बगत रा बोल, नया-नया जो नीसर । तर्क तराजू सोल, मोचो समझो श्रावका !।५५।।
आपसरी री ऐंठ, सुलझै समझोतो कर्यो। पाछी जमज्या पेठ, संवली सोच्यां श्रावका !!५६।।
अणबणती आसान, सहज नहीं है सुलझणी। 'मैं' रो मुधाभिमान, स्याणप खोवै श्रावका !!५७।।
श्रावक-शतक ५३
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५४ आसीस
जंच नहीं जो बात, आचारज री श्रद्धा भगती साथ, सुदृढ़ राखो
कष्ट पड्यां कमजोर, पाछा देव पांवड़ा । साहमा मंड्यां सजोर, समर जीतस्यो श्रावकां ! १५६ ॥
आसतां । श्रावकां ! | ५८ ॥
समकित रा सुविशेष, जतन जापता जो करै । किंचित रहै न क्लेश, सरसै जीवन श्रावकां ! ॥ ६० ॥
चौबीसी चित चाव, अमल बना आराधना । सहज रहै सद्भाव, सज्झाई ₹ श्रावकां ! ॥ ६१ ॥
ऊंडो दे उपयोग, परमेष्ठी सहज बढ़े शुभ योग, स्मरण कर्यां
पंचक प्रवर | स्यूं श्रावकां ! १६२ ॥
बरतो बगत बिलोक, सीमा में रहकर सदा । लारै होसी लोक, समय पिछाण्यां श्रावकां ||६३ ||
आचारज री आण, प्राणाधिक पहचाणज्यो । तर्क फर्क युत तांण, श्रेष्ठ नहीं है श्रावकां ! | ६४ ||
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नवकरवाली नित्य चवदह नियम चितारणा । करो सदा रो कृत्य, शांत भाव स्यूं श्रावकां ! | ६५॥
गुरु- बचनां पर गोर, गहरा गुण बधसी घणां । कालेजां री कोर, संघ संघपति श्रावकां ! | ६६ ॥
कर मन पर कंट्रोल, रूप देख रीझो मती । आछी सीख अमोल, सत्पुरुषां री श्रावकां ! ॥ ६७ ॥
अवसर नै अवलोक, वरतै बोही विज्ञ है । लेक्चर झाड्यां लोक, सहमा मंडसी श्रावकां ! ॥ ६८ ॥
- मतलब बिखबाद, बढ्यां बणै विसमी स्थिती । आत्मा मै आह्लाद, सदा बढ़ावो श्रावकां ! | ६६ ॥
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करड़ो कोई काम, अणचित्यो आवै अगर । समरो भिक्खू स्याम, संकट टलसी श्रावका ! ७०॥
तीखा-तीखा तीर, मत मारो थे मरम का। चिल ज्यादै चित चीर, शब्दां साटै श्रावका ! ७१॥
तारक तेरापन्थ, भिक्षू गणि खोज्यो भलो। अडिग मना अत्यन्त, सुर तरु सेवो श्रावकां!७२।।
माता-पिता समान, का भाई भल भाव स्यूं । मित्र मित्र मतिमान, सोक बण्यां मत श्रावका !७३।।
सालै नान्ही शूल, खिण-खिण मै खटको रहै । शंका है प्रतिकूल, सुध समकित मै श्रावकां!।७४॥
अटल मना आत्मस्थ, अविचल करो उपासना । मत बणज्यो मध्यस्थ, संत-सत्यां रा श्रावका !७५।।
अणसमझू अणजाण, बात विचार सके नहीं। नाहक ही नुकसाण, सटकै करलै श्रावकां!७६।।
सुगुण सयाणां संग, टालोकड़ रो टालज्यो। रंग्या शासण-रंग, सदा रहीज्यो श्रावकां!७७।।
निन्दक स्यूं अति नेह, अपछन्दा स्यूं प्रीत अति । खिण मै उडज्या खेह, श्रावकता की श्रावकां!।७८॥
हिंसा स्यूं तज हेत, अमल अहिंसा आचरो। खड्या रहो रण खेत, समय पड्यां थे श्रावकां !।७६॥
मिनख, मिनख रो मोल, मिनखपणे स्यूं मापसी। त्याग-तराजू तोल, शासण मै है श्रावकां!1८०॥'
श्रद्धा विनय समेत, धारो आगम धारणा। रल नहिं ज्यावै रेत, सरस सुधा मै श्रावकां!८१॥
श्रावक-शतक ५५
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फहम बिना री बात, चतुरां ! सुण चमको मती। हियो राखज्यो हाथ, समय-समय पर श्रावकां!।८२॥
आगम रो उपकर्म, गुरु गम स्यूं गहरो हुवै। मुश्किल मिलणो मर्म, स्वयं पढ्यां स्यूं श्रावकां !८३।।
मनमत्ते मतिमान, बणणो जाणे है बहुत । अवरोध उत्थान, स्वयं स्वयं रो श्रावकां!८४॥
मोटा महिमावान, नमै सदा नल-नीर ज्यं । ओछां रै अभिमान, सटकै आवै श्रावकां!।८।।
नाहक निन्दक लोक, कर्मठोक निन्दा कर। जाण बणकर जोक, सार चूसलै श्रावकां!।८६।।
निमल करो नित नेम, सामायक सज्झाय वर । सेवा टेमोटेम, संत-सत्यां री श्रावकां !1८७॥
बे-मतलब कर बेहम, बात-बात मै बीचरै। बाजै बो बे-फेहम, शूल सरीखो श्रावका !1८८।।
बिना रीत री बात, देखो तो झट टोकयो। पकड़ो मत पखपात, स्याणां सोतां! श्रावका !८६।।
देखो जो कोइ दोष, कहो जग्यांसर कहण री। मन नै व्यर्थ मसोस, सहन करो मत श्रावका !18॥
निकमा ले ले नाम, रोला करणा रोज रा। कोनी थारां काम, सजग रहीज्यो श्रावका !६१॥
रख-पख झूठी राख, गाला गोलो गुरु कन्है। सटकै खोवै साख, शोभा सगली श्रावका १६२॥
बोलै कड़वा, बोल, जहर घोलकर जीभ मै। टांकी लगै न टोल, स्नेह टूटज्या श्रावकां !।६३।।
५६ आसीस .
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बाजारां मै बैठ, कूड कपट करता रहे। पल मै विकज्या पेठ, सो बरसां री श्रावका !!६४।। कैची देवे काट, सी देवै पल मै सुई। पढ़ो प्रेम रो पाठ, सुइ-डोरै स्यूं श्रावका !६५॥ सावधान सविधान, सोगन मै रहिज्यो सदा। मानवता रो मान, सदा राखज्यो श्रावकां !६६।।
छोड़ो होडा-होड, जीवन नै हलको करो। आ है नूंई मोड़, सावल सोचो श्रावका !।७।।
प्रायः मन मै कोड, आंणे-टांण पर हुवै। आ है नई मोड़, (थे) संजम सीखो श्रावका !!१८॥
आडम्बर द्यो छोड़, जलम मरण अरु ब्याव मै। आ है नूंई मोड़, सदा सादगी श्रावका !!६६॥
तांता द्यो थे तोड़, आर्त-रौद्र दो ध्यान स्यूं । सौ को एक निचोड़, सीधा चालो श्रावका !।१००॥
दोहा
दो हजार सतरह सुखद, द्वि-शताब्दी को दौर । संघ-चांद थे श्रावका !, 'चम्पक' बणो चकोर !।१०१॥
श्रावक-शतक ५७
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संत-चेतावणी
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होणो नहीं हिमायती, दुर्गण बीच दलाल । 'चम्पक' सन्त स्वभाव रो, सन्तां ! राखो ख्याल ॥१॥
चाली 'चम्पक' चालणी, छद्म बतावण छेद । सन्त स्वात्मदर्शी सदा, भेदी भांपै भेद ॥२॥
धिगाणिया 'चम्पक' धस, धींगामस्ती धींग । पण सन्ता! मूंगा पड़े, घणा बध्योडा सींग ॥३॥
अड़ो न 'चम्पक' द्यो अभय, दयापात्र है दीन ! सन्तां! समता धर्म है, मत गूंदो गमगीन ॥४॥
सन्तां जाय स्वभाव कद, 'चम्पक' साधे सूध । रला मीगण्यां रोज ही, बकरी देवै दूध ॥५॥
उद्यम मै 'चम्पक' उकत, होणो नहीं हरान । रुत आया सन्तां ! सरस, फल देवै फलवान ॥६॥
मोटा ही माफी करै, नमसी 'चम्पक' नरम । सन्तां ! राख्यां सरैला, धीरप, धीरज, धरम ॥७॥
कीड़ी पर 'चम्पक' कटक, कमजोरां पर खार। सन्तां ! मर्योड़ां नै अबै, थे के करस्यो मार ॥८॥
संत-चेतावणी ६१
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६२ आसीस
कसतां ही किचरो हुवै, 'चम्पक' कांसी, कांच । सन्तां ! रजमो राखज्यो, नहीं सांच नै आंच ॥६॥
कहण में कुछ और ही, करणो चम्पक और । राजनीति री रीत आ, सन्तां ! करल्यो गौर ॥१०॥
मिनख मतै मोती मिणै नैण-निवाणां नीर । रुलपट री सन्तां ! किसी, 'चम्पक' लेण - लकीर ॥११॥
साथी-संगल्या कद सहै, चेला चांटी चोट । 'चम्पक' रलज्या गेडिया, सन्तां ! मोटा मोट ।। १२ ।।
सिर पोसी के बो सुई, दिन में दीस न बीम । सन्ता ! सार न कहण मै, 'चम्पक' कड़वो नीम ॥ १३ ॥
कमसल तजै कुबाण कद, 'चम्पक' कढ़े न काण । सन्तां ! रेत रलावणो, श्रम नै व्यर्थ सुजाण ॥ १४ ॥
मृदुता स्यूं 'चम्पक' मिनख, करदै काम सहर्ष । सन्तां ! रोल्यां रेत मै, आंधो आदर्श ।।१५।।
'चम्पक' करल्यो जापतो, बगत बड़ो विकराल । सन्तां ! रोक्यो नहि रुके, पाणी फूंटा पाल ।। १६ ।।
मां मढ़ी मुंजेवड़ी, कुण 'चम्पक' सन्तां ! नहि छुटे,
थे-म्हे के तेन । गूंथीज्योड़ा जेन ॥ १७॥
सन्तां ! रखपख डसरूंगस, रो जीनां री राड़ । राजनीति रो रोल ओ, 'चम्पक' पटक पछाड़ || १८ ||
झूठा झूरै झूरणां, 'चम्पक' चिण अवरोध । सन्तां ! पोते ही पड़े, पापी खाड़ो खोद ॥ १६ ॥
व्याज वृद्धि विद्या विविध, असल रकम आचार । सन्तां ! देणो फालतू, बिगड्यै तिवण बघार ॥२०॥
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चहरै चलकै चतुर र, आचरणां री आब । सन्तां ! नहिं रहण सके, रगड्यां क्रीम रबाब ।।२।।
दूजा ₹ शिर द्यो मती, इज्जत रो इल्जाम। सन्तां ! गलै न घालणी, बलबलती बेकाम ॥२॥
मदवो बण मरदै मुलक, ईख चाब कर ईम । सन्तां ! विष उगले विसम, जीम'र मीठो जीम ॥२३॥
इज्जत स्यूं इज्जत बधै, उपकृति स्यूं उपकार। सन्तां ! रंजिस स्यूं रंजिस, प्यार बधावै प्यार ॥२४॥
सन्त सादगी स्यूं रहै, उंडी बात विचार । सन्तां! रंगत रोल दै, आ फिट-फाट अबार ॥२५॥
दूजी तरफ द्विरूपता, एकीपण इक ओर। सन्तां ! रीती ही रहै, अपणायत अंगोर ॥२६॥
रहणो उज्जल धोलियो, ऐयाशी रा ऐन । सन्तां! नै शोभे नहीं, नित री फेना-फेन ॥२७॥
एक तरफ, ओझे, धुजै, हाथ दूसरी ओर । सन्तां ! कुण टिकसी कहो, इसी बेरुखी ठोर ॥२८॥
अपणां स्यूं रहै अणमणो, हमजोल्यां स्यूं हेत। सन्तां ! अणबण रो पड्यो, सीधो सो संकेत ॥२६॥
संयम-रुचि जिण रै जची, रची संघ शुचि संग। सन्तां ! जीवन जंग मै, ऊंच रखै उचरंग ॥३०॥
घुट-घुट घोट घुनरो, कहै न मन री खोल । सन्तां ! छानो नहि रहै, गट-पट गट्टा गोल ॥३॥
जाण रेत रा रमतियां, खमसी खिमता खाण। सन्तां! रमकर ऊठतां, टाबर देत भिसाण ॥३२॥
संत-चेतावणी ६३
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मतिधर नहिं मारै मरक, गम खावै गम्भीर। सन्तां ! रल-मिल कर रहो, परख परायी पीर ॥३३॥
सुधारणी सलटावणी, घर मै घर की बात। सन्तां! बारै बोलणो, सदा संघ रै साथ ॥३४॥
चुगली खावै चेहरो, चलगत कहै चलाक । सन्तां ! रोकी कद रहै, तरकीबां री ताक ॥३५॥
मोटां सागै मसखरी, छोटां सागै छोल। जद कद हद रासो करै, सन्तां! आ रिगटोल ॥३६॥
होणहार रै हाथ है, जस अपजस रो जोग । सन्तां ! रोलो घाल दै, लारै लाग्यां लोग ॥३७॥
काम-काज रै कोड मै, झगड़ो झाले झोड़। सोच समझ सन्तां ! मुड़ो, मनमुटाव री मोड़ ॥३८॥
जाणी मुसकिल जलमभर, टाबरपण री टेव । सन्तां ! दाग न लागज्या, सजग रहो स्वयमेव ॥३६॥
आछा नै ओपै नहीं, ठट्ठा ठोल मखोल। सन्तां ! बात बिगाड़ दे, ओछा अणघड़ टोल ॥४०॥
धसक पग निचलीधरा, डरसी बो डरपोक। सन्तां ! नेडो नहिं रहै, सावधान रै शोक ॥४१॥
पलमा खोलै पारका, ढकण आपरी ढीम। सन्तां ! रोग मिटा सकै ? हजरत नीम-हकीम ॥४२॥
तानो सहै न ताजणो, तेजी तजै न ताव । सन्तां ! रेकारो सुण्यां, उबल जाय उमराव ॥४३।।
थानां लग न थींगला, थलवट रो के थोभ । सन्तां ! सत्य चुभै नहीं, चोभ लोभ रै खोभ |॥४४॥
६४ आसीस
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कुटिचर स्यूं दस-दस कदम, दुर्जन स्यूं दो खात। सन्तां ! टलजो दूर स्यूं, शठ स्यूं सौ-सौ हाथ ।।४।।
उकतै नहीं, उछलै नहीं, धीरा धीरप धार । सन्तां ! सोनो सुध हुवै, तप-तप चोटां खा र ॥४६॥
ढाल जठीनै जल ढलै, निरणो न्याय निवेड़। सन्तां ! रांटो ही रहै, पंखा बाहिरो पेड़ ॥४७॥
पाप पलीतो पीलियो, पांव पांवणी दार । सन्तां ! राख्यो रह सके, दाबा'र कितीक बार ॥४८॥
अ परसंसक अहितकर, फूलो मती फिजूल । सन्तां ! रहस विचारज्यो, भलो बतासी भूल ॥४६॥
छद्म छिपायो कद छिप, बोयो पेड़ बबूल। सन्तां ! उघड्यां ही सरै, धीठ धकैलै धूल ॥५०॥
भूल करै भायला, भडका जसरी भूख । सन्तां! रसतो ही रुल, चेतो जावै चूक ॥५१॥
जथा जोग जाचो जुगत, मान-तान मनुहार । रीत-रीत रा शोभसी, सन्तां ! मैं सतकार ॥५२॥
यज्ञ-याम-यम-यामिनी, योग, योग्यता, याद । सन्तां! रस खोवै विवस, पडतां पांण प्रमाद ॥५३॥
ठीमरता स्यूं ठहरसी, रतन रत्ती रू रबाब । सन्तां ! रिगटोल्यां सदा, खेमो करै खराब ।।५४॥
लंपट, लोलुप, लालची, लोपै लाज लकीर । रांगा रूंगा साटिया, सन्तां ! सहे न सीर ॥५५॥
वाक् चातुर्य, वदान्यता, विद्या, विनय, विवेक । सन्तां ! राखो रेख नै, अरजित कर आरेक ॥५६॥
संत-चेतावणी ६.५
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शान्त साधना साधणी, शरद चन्द्र-सी श्वेत । सन्तां ! शोभा संघ री, हिल-मिल राख्यां हेत ॥५७।।
भिन्न भिन्न नय भेद में, षट् दर्शन षट् कोण । सन्तां ! स्याद्वादी गुणी, गुण नै कर न गोण ॥५८।।
सेवा सुमिरण सादगी, साम्य योग स्वाध्याय । सन्तां ! रच्या-पच्या रहो, संयम स्वान्त सुखाय ॥५६।।
करयां दलाली कोल री, होसी काला हाथ। सन्तां रहणो नहिं कदे, संज्ञा चूकां साथ ॥६०॥
मित बोलो वक्तव्य में, क्षमा करो क्षतव्य । सन्तां ! रीत-रिवाज स्यूं, कार्य करो कर्त्तव्य ॥६१॥
ब्रह्मचर्य रो वदन मै, त्राटक को सो तेज । सन्तां ! रोब रबाब है, आंख्यां रो आदेज ॥६२।।
जाणो, जोता लागग्या, (जद) ज्ञानी करै गुमान । सन्तां ! रती बधावणी, विनयी बण विद्वान ॥६३॥
६६ आसीस
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गुलाब गुणचालीसी
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दोहा
अल-बलड़ अनुचित अधिक, खाणो करै खराब । 'चम्पक' उदर उणोदरी, गुणकरणार गुलाब ! ॥१॥
आवै ज्यूंही ऊर दै, खाऊ लेण खिताब | 'चम्पक' चेतो बापर गड़बड़ हुयां गुलाब ! |२||
इमरत सो करसी असर, लूखी रोटी राब । 'चम्पक' भूख बिना भख्यां, गोटाइ गरल गुलाब ! | ३ ||
ईं ऊमर मैं आमली, आम्बोली मत चाब । 'चम्पक' केरी काचरी, आब गमाय गुलाब ! | 6 ||
उपराथली ज ऊरणो, बे-जर बिना हिसाब । 'चम्पक' चरण रो चकर, गेहलो कार गुलाब ! |५||
ऊंखल, घट्टी, खल, थली, छाज, बुहारी, छाब । 'चम्पक' चूल्हें बैठणो, अशुभ गिणे रे गुलाब ! | ६ ||
एक हाथ है एकलो, दो रो दूणो दाब । 'चम्पक' एकै एक मिल, ग्यारह हुवै गुलाब ! ॥७॥
ऐकान्तिक अत्याग्रह, ताण्यां बधे 'चम्पक' समझोतो सदा, गमतो लगे
ओथाणा नींबू-मिरच, अ आचार 'चम्पक' चीजां तामसी गुण के करें ?
तिजाब ।
गुलाब ! |5||
निकाब | गुलाब !18 ||
गुलाब गुणचालीसी
६६
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और नै अपणो चहै (तो) सेवा साझं सताब । 'चम्पक' चाम चबै नहीं, गमसी काम गुलाब !॥१०॥
अंतस रो ओजस बधा, आपेइ बधसी आब । 'चम्पक' चाल कुचाल स्यूं, पिचके गाल गुलाब !।११।।
करड़ो नहिं कहणो कदे, ज्वर मैं जियां जुलाब । भाजन विन 'चम्पक' भलो, गम खा बैठ गुलाब !।१२॥
खाटो खारो खोपरो, खोडी खांड खिजाब'। 'चम्पक' छोडै खट् खखा, ज्ञानी संत गुलाब !।१३।।
गरम-गरम गलगच, गिजो, गल्यो, गरिष्ट, गिराब।। 'चम्पक' गफलत मै गिट, (तो) गलै शरीर गुलाब !॥१४॥
घमड़ी घाती घूनरो, घपली घाव घिजाब' । 'चम्पक' घाल, घणेर मत, (अ) घातक घणा गुलाब!॥१५॥
चाय चबीणी चीकणी, चूरी चाट चटाब। 'चम्पक' चिपक्या मैं चचा, गेल न छुटै गुलाब !।१६।।
छद्मस्ती री छोल मै, छल मत, छेड न जाब । 'चम्पक' चौनाणी चुक, (तो) गूमर किस्यो गुलाब !॥१७॥
जयणां 'चम्पक' जीव री, जुगतो जुगत जबाब । आं दोऊं बातां दिपै, गण मै सन्त गुलाब !।१८।।
झक्की झूठो झीपरो, झोड़ी बिना हिजाब" । 'चम्पक' टकऱ्यां जो टलै, गौरव बधै गुलाब !।१६।।
१. केश कल्प। २. तोप के गोले सो बिना चबायो। ३. पुराणो घी। ४. चाटणेरी आदत । ५. शर्म। ७० आसीस
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टेच्चर टाबर टिंगर स्यू, टणकां स्यूं टकरांव । 'चम्पक' शोभै नहिं चतुर, गुणिजन कहै गुलाब !॥२०॥
ठगा'र ठोकर खा'र है, ठीमर ठाकर-साब । 'चम्पक' नहिं चेतै, गधो, गुलक', गिवार, गुलाब !।२१।।
डबकै डिगली चूक डफ, डाला डोले डाब। 'चम्पक' जग जूता जड़े, गलियां माहिं गुलाब !।२२।।
ढब्बूशाही ढींगलो, ढबस्यूं ढंगस्यूं ढ़ाब । 'चम्पक' बुचकाऱ्या बहै, गूगो, बलद, गुलाब !।२३।।
तण्यां-धण्यां ही तर्क कर, खुद रह खुली किताब । 'चम्पक' चर्चा गेल स्यू, गोला करै गुलाब !॥२४॥
थंभा ! थां सरिखा थकै ? (तो) छत थांभण कुण थाब'। 'चम्पक' शासण आपणो, सांस न गेर गुलाब !।२५॥
दब्बू दुम्मी नै दकी, देव हरकोइ दाब । 'चम्पक' फुक्कारै फणी, (तो) रोब रबाब गुलाब !॥२६॥
धण्यां कन्है धाडा पड़े, धींगामस्ती धाव' । 'चम्पक' जो बोले बिरै, पड़े गदीड़ गुलाब !॥२७॥
मर राखै नीची निजर, नणां न्हांख नकाब। बायां स्यूं बोले जणां, 'चम्पक' चेत गुलाब !!२८।। पड़े नहीं पड़पंच मै, पजै न जाल-जराब। 'चम्पक' पग नहिं चातरै, गहर गंभीर गुलाब !।२६॥
१. मदवो ऊंट। २. समर्थ । ३. खुल्लै आम। ४. पडदो। ५. पगां रा मोजा ।
गुलाब गुणचालीसी ७१
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फहीड़ा फैकै पड्यो, निकमो बणण नबॉब । 'चम्पक' बादल बरसणो, गरज नहीं गुलाब !।३०॥
बलज्या, बट जावै नहीं, जड़ जेवड़ी जनाब। बचन चूक 'चम्पक' बुरो, गट गुड़ज्याय गुलाब !॥३१॥
भला आदमी! भड़क मत, ताव खा'र बे-ताब। 'चम्पक' औ भाटा भिड़ा, गुमराह करै गुलाब !॥३२॥
मन राखीजे मोकलो, मो. रा मेहराब। मांदा नै महमान नै, मरक न मार गुलाब !।३३।।
यद्यपि यूयं-युयं है, वयं-वयं .. मिजराब। 'चम्पक मिश्री मै मिल्यां, गुलकंद हुवै गुलाब !॥३४॥
रहन सहन मै राजसी, रीति-रिवाज रकाब। 'चम्पक' रंजिस रंचसी, गरदो करै गुलाब !॥३५॥
लगड़ पेच लल्लै चपै, 'चम्पक' लखै लखाब। लखणा रा लाडा लेवे, लुगड लपेट गुलाब !।३६।।
व्यवहारां मै विविदिशा, (तो) विद्या बुद्धि वियाब। 'चम्पक' विनय विवेकवर, बण गतिशील गुलाब !।३७।।
समकित संयम साथ मै संघ आथ असबाब। 'चम्पक' निर्मल चित्त स्यूं, ग्रन्थ्यां खोल गुलाब !॥३८॥
१. बड़ो आदमी। २. उतावल मै। ३. ताज। ४. सितार बजाणे को छल्लो। ५. लेण-देण। ६. लक्षण । ७. सफल। ८. सामान ।
७२ आसीस .
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हसत खिलते हृदय रो, हाल, हियाव, हिसाब । 'चम्पक' न्यारो ही हुवै, घुल-मिल देख गुलाब !॥३६॥
कुंडली-छन्द चेजो चेजारो चिणे, नींवां निरख गुलाब। झड़, झाड़ो, झोलो, झिड़क, झील झिलै क तलाब ?। झील झिलैक तलाब ? खोह रख राजरूपजी की-सी। दो हजार बाइस, 'चम्पक' गुणचालीसी ॥ पूरी, पग मजबूत चाहिजे ठंडो भेजो। नींवां निरख गुलाब ! चिण चेजारो चेजो॥४०॥
गुलाब गुणचालीसी ७३
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परमारथ-पावड्या
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काट च्यार घातिक करम, प्रतिहार्याष्ट प्रतीक । चम्पा ! अर्हत्-पद प्रणम, तीर्थंकर तहतीक' ॥ १॥
दोहा
करें सिद्ध श्रेयस सजग, नमूं सन्त निर्भीक । चम्पा ! चिन्तव चेतना, लम्बी खांची लींक ॥२॥
कृपा हुवै गुरुदेव की, जावै भव- स्थिति पाक । सेवा सन्तारी सझै, 'चम्पक' तिरै चटाक ॥३॥
कठिन मार्ग है मोक्ष रो, चम्पा ! अलख अलीक' । सन्ता बिना अनन्त को, अन्त नहीं नजदीक ॥४॥
कोमल परिषद् प्रशंसा, मीठो जहर मनाक * । चम्पा ! स्तुति पथ फिसलणो, पड़े प्रमत्त तड़ाक ॥५॥
कृष्ण, नील, कापोत मैं, राग- रोष ने रोक । धर्मं- शुक्ल धाऱ्यां ढ़है, चम्पा ! च्यारूं चोक ॥ ६ ॥
कह री कह सामने, नहि तर चुप ही ठीक । वीतराग विधि बांधग्या, चम्पा ! लोप न लीक ॥७॥
१. सत्य ।
२. झट ।
३. अदृश्य । ४. थोड़ा-सा ।
परमारथ-पावड्यां ७७
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केहबत इण में है किसी ? बात बड़ी बारीक। चम्पा! धर्म-ध्यान मैं, राख हृदय रमणीक ।।८।।
कूण जाणे कद आउखो-बन्ध ज्यावै बन्दाक । अप्रमत्त चम्पा ! रही, छोड़ छद्म की छाक ॥६॥
कुमति-कला कुंची कली आस्था राख अनंक । शंका-कंखा सांप रा, चम्पा ! समझी डंक ॥१०॥
किसो जीवणो सो बरस, बैठ्यो कियां निसंक। कर करणी चूकै अणी, चम्पा ! पाप प्रयंक ।।१।।
कर्म कर्योडा भोगणा, उदय पाडदी हाक । चम्पा! क्यूं चल-विचल-मन, मचकोड़े मुंह-नाक ॥१२॥
कुशल ! जरा कौशल दिखा, झुककर चम्पा! झांक। घट-कूऔ कचरो घणो'क, पाणी ? आकां आंक ॥१३॥
काछ-बाच रो साच जो, चम्पा ! कहै दडूक । क्षणिक तनिक सुखहित मती, वधा अनन्तो दुःख ॥१४॥
कर गयी को सोच के ? चम्पा ! अब मत चूक । तन की पोटी पूरग्री, (पण) मन की मिटी न भूख ॥१५॥
कुम्हलावै चम्पा ! तुं क्यूं ! माथे मांड़ी बूक । मणांबन्द मिसरी गिटी, फीको फिर भी थूक ॥१६॥
कोरी मींड्यां मांड दी, एक न मांड्यो अंक । धर्म-अंक लारै धरै, (तो) चम्पा! लागै लंक ॥१७॥
के है बन्धन ? क्यूं बंधै ? टूट कियां विपाक ? चम्पा! थोड़ो सोच क्यूं, देवे उख परिपाक ॥१८॥
काम-भोग दुख रोग है, तांता तोड़ तड़ाक । सुख रो रुख संतोष है, चम्पा ! चेत चटाक ।।१६।।
७८ आसीस
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कुटिल चित्त चंचल-चपल, पड़े पाप रे पंक । चम्पा ! फूलां रै तलै, शूलां रो आतंक ॥२०॥
कामी, कपटी, कलुष कल, रुलत मन नै रोक । चम्पा चंचलता मिट्यां, सरसी सगला थोक ॥२१॥
औरां रो ऐश्वर्य सुख, झांक रांक मत रौंक । करणी करतां क्यूं तन, आवै चम्पा! छींक ॥२२॥
कर्मभोग समभाव स्यूं, आली मत कर आंख । चम्पा ! बांध्या चीकणा, रोवै क्यूं बण रांक ॥२३॥
काम किस्यो छोटो बड़ो, चम्पा ! चढ़ग्यो चोक । पोजीसन रो रोग क्यू, घर मैं घाल्यो लोक ॥२४॥
काम ओ कर्यो बो कर्यो, बदलो मांग वराक। चम्पा! ढोवै भार क्यूं, सीधो काढ़ सुराक ॥२५॥
कुण के केव के करै, कोण ठीक-बे-ठीक । चम्पा! चिता और की, करण बुद्धि बारीक ॥२६॥
क्यूं कांदै रा छूतरा, छोलण बणग्यो छक । आड-डोड आग्रह हटा, चम्पा ! जगा विवेक ॥२७॥
कोमल मन स्यूं कर क्षमा, निपट माननै न्हांख । भूलां ओरां री भुला, खुदरी भूलां झांक ॥२८॥
कर करुणां, वात्सल्यता, खमा जा'र नजदीक । चम्पा ! ओरां रे झुकण, नै तूं मती अडीक ॥२६॥
क्रोध कर्यो गुरुमरडवण्या, चंदकौशिक विष फूंक । चम्पा ! पायो शान्तिधर, केवल कूरगडूक ॥३०॥
क्रोध कलह कारण कह्यो, शान्ति शान्ति सिंदूक । कर विशाल चम्पा ! हियो, मत बण कूप-मंडूक ॥३१॥
परमारथ-पावड्यां ७६
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८०
आसीस
कुण आत्मा परमातमा, विषय बड़ो बारीक । सुलझ्यो गुरु सुलझा सकै, चम्पा ! ठीमर ठीक ॥ ३२ ॥
करामात चम्पा ! सिखी, घणी जमाई धाक । भेद-ज्ञान पायां छुटे, जलम-मरण री छाक ।। ३३ ।।
अर्क ।
के ठा किस शुभोदये, चम्पा ! ऊग्यो aण निशल्य निर्मल असल, अब के तर्क-वितर्क ॥ ३४ ॥
कुगुरु-सुगुरु धर्माधरम, चम्पा ! समझ्यो फर्क । अबकै समकित चरण रो, मिल्यो सहज सम्पर्क ॥ ३५ ॥
किती वार निश्चय कर्यो, अब मत अवसर ताक । चम्पा ! आद अनाद रो, तीन पात रो ढाक ||३६||
को मान चम्पा ! न रुक, स्हास राख मत थाक । लम्बो गेलो काटणो, अठी-बठी मत ताक ॥ ३७ ॥
कुशल- खेम इण डील रा, लुल लुल पूछँ लोक । चम्पा ! गुण चारित्र रा, जगा विवेक, विलोक ॥ ३८ ॥
करणी किरियाराधना (तो) ले आग्या आलोक । आज्ञा ही आगम - अगम, चम्पा ! जीवन झोंक ॥ ३६ ॥
क्रोधी कजियो कर करें, नर जीवन नै नरक । स्वर्ग शान्ति में है सदा, चम्पा ! बोलै चरक ||४०||
करणी रा सब लाड है, कृत- फल चम्पा ! चाख । रेख-मेख आ कर्म री, नींमा फलं न दाख ॥। ४१॥
कद को बह्यो विभाव में, हाय- बोय रो रोग । अब अबन्ध परिणाम स्यूं, चम्पा ! समचित भोग ॥ ४२ ॥
के ठा कुणसे जलम रा, शेष भोगणा भोग । चम्पा ! चुकै उधार क्यूं, बिलखो देख बिजोग || ४३ ||
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कर मत भौतिक कामना, कृत-करणी मत बेच । पुद्गल सुख है पांवला, चम्पा ! लड़ा न पेच ॥ ४४ ॥
के देखे चम्पा ! खड्यो, खिणं गधेड़ा खाज । तूं करसी तो मैं करूं, बणग्यो समज' समाज ॥४५॥
के होग्यो चम्पा ! इयां, मूरत सो मुंहताज ? समृद्धि सम्पन्न क्यूं, बण्यो भिखारी आज ? ||४६ ||
कदको कादै मै कल्यो, पड्यो' र चम्पा ! चेत । अब फिर बोइ मती, गांव-गोरव खेत ॥४७॥
कुत्सित- बुद्धि कु-ज्ञान कद, मिटसी रे मन मीत । सुण चम्पा ! सत्संग है, परमारथ री प्रीत ॥ ४८ ॥
करुणा कर सद्गुरु दियो, चम्पा ! समकित पोत । कर चरित्राराधना, मिलै जोत मै जोत ॥४६॥
कर मत देरी, कस कमर, उठ न झांक इत-उत्त । भक्ति समर्पण मैं भिजो, चम्पा धोलै चित्त ॥५०॥
कर्या आपरा कर्म ही, चम्पा ! सूरज चांद नै
कोमल मन करुणा भर्यो, पावन हुवै प्रसस्त । चम्पा ! क्रूर कठोर मन, अस्त व्यस्त अस्वस्थ ।। ५२ ।।
है सुख दुख रा हेतु । ग्रसले राहू-केतु ॥ ५१ ॥
कठै ज्ञान ज्ञान्या बिना, आंख बिना अखियार्थ । चीन्ह ज्ञान के च्यानणे, चम्पा ! आत्म पदार्थ ।। ५३ ।।
करणी चम्पा ! नहिं करी, वक्त कर्यो बरबाद । भीतर लै नै भूलग्यो, रह्यो बारलो याद ।।५४।।
१. पशुओं का समूह ।
परमारथ- पावड्यां
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केद प्राण क्यूं पीजरै ? मिल्यो न अन्तर भेद। छेद-भेद समझ्यां बिना, चम्पा ! खेद ही खेद ॥५५॥
काम इसो कर, रात नै, आय निचिन्ती नींद। छोड़ परायी पींदणी, चम्पा ! अपणी पीद ॥५६॥
करड़ा बन्धन दो कस्या, चम्पा ! मन मोह अंध । एक सहज स्वच्छन्दता, दूजो है प्रतिबंध ॥५७।।
काम कठिन के सरल के? सुख-दुख एक समान । चोखी-ओखी चीज तो, चम्पा ! मन रो मान ॥५॥
काया माया कारमी, जो जाणे सो जाण । सत्य सरल सीधो सुगम, चम्पा ! प्रकृति पिछाण ॥५६॥
कुण जाणे चम्पा! कणां, कसणो पड़े पिलाण । काल कौतुकी की कला, कहो कुण सक्यो पिछाण ।।६०॥
काठो राखी कालजो, चम्पा! कहणो मान । आर्त-ध्यान मत आदरी, ध्यायी धर्म-ध्यान ॥६१॥
कारण पुनरागमन रो, सूक्ष्म शरीर सुजाण । चम्पा ! छोटोड़ो छुट, (तो) निश्चय निर्वाण ॥६२।।
कालो काजल पाड़ मत, दीपक ! ज्योति स्वरूप । सर्व शक्तिमय क्यूं पड्यो, चम्पा ! बण विद्रूप ॥६३।।
किस्यै जलम रा के पतो, संच्योड़ा पुन-पाप । किस्यै जलम मै ऊघड़े, चम्पा ! रह चुपचाप ॥६४॥
कान, आंख, मुंह, नाक नै, लै चम्पा ! ढक ढूंम । साध खेचरी सुरसरी, लडालूम बन झूम ॥६५।।
किण नै तूं अपणो कहै, चम्पा ! क्यूं ललचाय ।
जीव अकेलो जलमियो, अन्त अकेलो जाय ॥६६॥ ८२ आसीस
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कली-कली चम्पा ! खिलै दिन लेखे मैं आय । शान्ति, स्नेह, सन्तोष, सुख, समता मैं दिन जाय ॥६७॥
करणी करणं वासते, आछो दिन कोइ ओर । मुश्किल मिलणो आज स्यूं, कर चम्पा ! कुछ गोर ॥ ६८ ॥
काल - काल मै कालओ, बीत गयो बे-कार । परमारथ पायो नहीं, चम्पा ! सुरत संभार ॥ ६६ ॥
कोमल धागां में कियां, उलझ्झयो आर्द्रकुमार ? अनुबन्ध अनुराग रो, चम्पा ! जरा विचार ॥७०॥
कर पुरुषारथ पराक्रम, लै बल भूल जगत र भंवर मै, चम्पा !
कनक कामणी दोय है, विग्रह मूलक बक्र । अंतहीन तृष्णा अमित, चम्पा ! मोटो चक्र ॥७२॥
वीर्यं बटोर । पजी न और ॥ ७१ ॥
कुपित कुलांछा मारता, भंवर विवर अणपूर । आरंभ और परिग्रह, चम्पा !
कोकाटा करती है, जलम-मरण री धार । उत्पादी व्यय ध्रौव्य मय, चम्पा ! ओ संसार ॥ ७४ ॥
कर विवेक, वैराग्य स्यूं, अधिक न रम निर्मल निर्वेद मै, चम्पा !
रहिजे दूर ॥७३॥
करण वालो नहिं कियो, दियो जमारो खो । चम्पा ! तूं रो किन ? जिणनै रोणो रो ॥७५॥
आनन्द और । चतुर चकोर ॥ ७६ ॥
कांटै स्यूं कांटो कढ़े, विष दै विष ने मार । मन स्यूं ही मन नै मना, चम्पा ! चोज लगा'र ॥७७॥
कियां हुवै कचरो सफा ? स्याणा सोच विचार । चम्पा ! आश्रव रा पड्या, खुला अठारह द्वार ||७८ ||
परमारथ-पावड्यां ८३
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काढ़-काढ़ कचरो थक्यो, चम्पा ! कितोइ बुहार । (अ) भुंडा दोय भतूलिया, अहंकार-ममकार ।।७।।
किस्यै भरोसै तूं कर, चम्पा ! ओ अहंकार । कठे बीरबल सिकंदर, हिटलर खोज निकार ॥८॥
काल अनन्तो बीतग्यो, रड़बडतां रंगरोल। मिनख-जमारो ओ मिल्यो, चम्पा ! आंख्यां खोल ॥१॥
कम रासन रस्तो घणो, जगड़ वाल जंजाल । जानक थोड़ी जिन्दगी, चम्पा ! झटपट चाल ॥२॥
कर आत्मा रो काम तूं, झूठ जग मत झूल । म्हारापण नै दै मिटा, चम्पा ! भेद न भूल ॥३॥
कसर लारली काढ लै, मिल्यो रत्नत्रय मेल । चम्पा ! पगमत चांतरी, चिल्लां चालै रेल ॥४॥
करी हिफाजत देह री, गयो चेतना भूल । चम्पा ! अब भी चेतज्या, हाल-हाल अनुकूल ॥८॥
कह्यो मान चम्पा ! करै, क्यूं तूं ताव खिंचाव । जीव स्वभाविक शुद्ध है, ओ विभाव भटकाव ॥८६॥
कमर बांध कर आज के, दिन मै करी प्रवेश । माथै मरणो मड़ रह्यो, चम्पा ! अगत अणेश ॥८७॥
किती किताबां पढ़ भले, करलै डिग- पास । मुक्ति क्रिया अभ्यास बिन, (के) चम्पा! सोहरे सास ।।८८॥
क्रिया-बाट नै कर उंची, चम्पा ! दिवलो चास। आछो मण भर ज्ञान स्यू, रत्ती भर अभ्यास ॥८६॥
क्यूं उलझ्यो शब्दां मदां, अन्तर ज्ञान्यां पास। प्रश्न पडूत्तर कर परख, चम्पा! बुझसी प्यास ॥१०॥
८४ आसीस
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क्रोध कलुषता ल्या मती, चम्पा ! मन न मसोस । कर्या आपरा भुगतणां, दूजां नै के दोष ॥ ६१ ॥
करम कमेड़ी रा कर्या, चम्पा ! हर सी हंस | होड हवेल्यां री करें, नहीं छान पर फूस ॥ ६२ ॥
केवल मन ही बंध रो, कारण मन ही मोक्ष | चम्पा ! मन जीत्यां विजय, है प्रत्यक्ष परोक्ष ||३||
परमारथ-पावड्यां ८५
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श्रमण-बावनी
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सोरठा
ॐ अरिहन्त अकर्म, सिद्ध सन्त गुणवन्त शुभ । केवलि-भाषित धर्म, 'चम्पक' लै शरणो श्रमण !।१॥
अवसर रो अहसान, भूल्यो नहिं जावै भलो। जो चावै सम्मान,(तो)'चम्पक' सज्जन बण श्रमण !॥२॥
अहंकार आवेश, 'चम्पक' दानी-देश में। तेस-मेस अवशेष, करै सुजस-रस रो श्रमण ?।३॥ आ मत आप बार, तूं विनोद की बात मैं। 'चम्पक' तज तकरार, तर्क छोड़ सुगणां श्रमण !।४॥
आंख्यां उगलै आग, अगल-डगल बोलै विकल । तेजी 'चम्पक' त्याग, शान्ति राख सुपालै श्रमण !।५।।
इला इमारत इल्म, 'चम्पक' मौकैसर मिलै । फेर न उतरै फिल्म, समय नीसर्यां स्यूं श्रमण !।६॥ इकतरफो इकरार, निभै न दुनिया रो नियम । तेजी तज तकरार, 'चम्पक' सट सलटा श्रमण !७॥ इकतारी इकसार, आखी अण्यां अराधले । 'चम्पक' नै सरदार, शोभै श्रीसंघ मै श्रमण !।।
इक्कै रो इजलास, 'चम्पक' विलखो बादशाह । तेज बतावै तास, संघ संगठन रो श्रमण !।६।।
__ श्रमण-बावनी ८६
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उदय भाव उपभोग, चोखा लागै चित्त नै । क्षायक उपशम योग, 'चम्पक' अणसेंहदा श्रमण !॥१०॥
उतर जणां उतार, धोखो देवणिया घणां । ब्रेक बण्यां बेकार, 'चम्पक' कुण साहरो श्रमण !।११।।
उपकारी स्यूं ऊर्ण, होणो के आसान है ? कर पालड़ो पूर्ण, 'चम्पक' धर्म सुणा श्रमण !।१२।।
उपदेष्टा उपदेश, देव सिंह ज्यूं दहाड़ता। स्याल सरीखा शेष, 'चम्पक' निवडैला श्रमण !।१३।।
उणिहारै उन्मेष, उपकारी रे नहिं उठे। निकलण मत दै नेस, 'चम्पक' समझावै श्रमण !।१४॥
उल्लू नै अफशोष, चम्पक' दिन मैं नहिं दिखै । दोषी नै निज दोष, नहिं दीस शीसै श्रमण !॥१५॥
उलझन मै उपहास, और उभारे उग्रता। 'चम्पक' ल्या ठंडास, मीठा शब्दां स्यूं श्रमण !।१६॥
उलटो करै उजाड़, लल्लै-चप्पै जो लगे । खिणे हाथ स्यूं खाड, 'चम्पक' खुद खातर श्रमण !॥१७॥
ऊफणते ऊफाण, सिरकाजे मत सिलगती। पाणी पडतां पाण, 'चम्पक' शान्त स्वतः श्रमण !।१८।।
एरंड रो इकबाल', देतां लचको धह पड़े। 'चम्पक' झोलो, जाल, साल, सुपारी सहै श्रमण !॥१६॥
एकाचार विचार, 'चम्पक' एक प्ररूपणा । संगठन रो सार, स्वामीजी सोध्यो श्रमण !॥२०॥
१. पेड़।
६० आसीस
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एकठ रो एकन्त, 'चम्पक' सिक्को रह सिरे । भिन्न-भिन्न भाकन्त, सिट भी नहिं सीझै श्रमण !॥२१॥
एकल स्यूं एकन्त, बात-विगत 'चम्पक' वरज । अनरथ करै अनन्त, सर्प-दंश सरिखो श्रमण !।२२।।
एडी माहे ऐंठ, ‘चम्पक' औरत री अकल । चलगत चेन्हा चंठ, सावधान परखै श्रमण !।२३।।
खतम करै सब खेल, 'चम्पक' खारो बोलणो । रच ज्यावै रंग रेल, सावल बोल्यां स्यूं श्रमण !।२४॥
खरो गणीजे खेंट, 'चम्पक' खटको टेंट मै। उलटो चाल्यां रेठ, सूकै सै क्याऱ्या श्रमण !।२५।।
खावै चतुर चरवार, अंग चंग 'चम्पक' लगे। मिनख मान मनवार, कियां भूलज्यावै श्रमण !।२६।।
खुद मनचायो खार, हाथ पेट पर फेरले । 'चम्पक' भाई भार, स्वार्थी जन समझै श्रमण !॥२७॥
गर्भ ज्ञान रै गेल, मेह मै बिजली मेख है। 'चम्पक' धुंओं धकेल, दीयो कद शोभै श्रमण !॥२८॥
घण रो घणोज घेर, गण-गौरव 'चम्पक' गजब । गुणकर अभिमत गेर, सगलां रै सागै श्रमण !।२६॥
छिप-छिप देखै छिन्द्र, 'चम्पक' एकल खोरड़ो। घट कद्र हे भद्र !, ओछी संगत स्यूं श्रमण !।३०॥
छाण-बीण री छ्ट, 'चम्पक' छौले छतका। टुकड़ा ज्यावै टूट, सार नीसरै के ? श्रमण !।३१।।
जीभ झरै रे! जीभ, 'चम्पक' बोल बिगाड़ मत । तोड़ बगावै तीब, सागै के चालै ? श्रमण !॥३२॥
श्रमण-बावनी ८१
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दुख मत मन मै वेद, 'चम्पक' करै जको भरै। पक्की राख उमेद, अघ उघड्यां सरसी श्रमण !।४५।।
दोरी गलणी दाल, 'चम्पक' अन्त दुखी द्विमुख । चलै दुत रफी चाल, भाटा भिड़ाणियां श्रमण !।४६॥
पाइ भर रो फेर, तैल बाल कर बाणियो। 'चम्पक' का? हेर, साहूकार सदा श्रमण !।४७।।
नान्हा सागै नेह, बड़ा-बुढ़ां आगै विनय । 'चम्पक' मधरो मेह, साथ्यां मै शोभै श्रमण !!४८।।
मुकलाई मै मोल, तंगी मै तेजी हुवै। 'चम्पक' गट्टा-गोल, सहयोगी घालै श्रमण !।४६॥
मिट न 'चम्पक' मैल, समता रहै न समय पर । (तो) ख्याला वाला खेल, साधक जन खेलै श्रमण !।५०।।
सत्पुरुषां री सीख, सुण 'चम्पक' सुख स्यूं सुवै। तिल भर रखै न तीख, शान्त सरोवर सो श्रमण !।५१॥
संध्या और प्रभात, फूलण-फूलण मै फरक । ल्यावै दिन इक रात, 'चम्पक' चीन्हे चिह्न श्रमण !।५२।।
श्रमण-बावनी ६३
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दुख मत मन मैं वेद, 'चम्पक' करें जको भरै । पक्की राख उमेद, अघ उघड्यां सरसी श्रमण ! | ४५ ॥
दोरी गलणी दाल, 'चम्पक' अन्त दुखी द्विमुख । चल दुतरफी चाल, भाटा भिड़ाणियां श्रमण ! | ४६ ||
पाइ भर से फेर, तैल बाल कर बाणियो । 'चम्पक' काढ़े हेर, साहूकार श्रमण ! | ४७ ||
सदा
नान्हा सागै नेह, बड़ां - बुढ़ां आगे 'चम्पक' मधरो मेह, साथ्यां मैं
मुकलाई मै मोल, तंगी मैं 'चम्पक' गट्टा-गोल, सहयोगी
विनय ।
शोभै श्रमण ! |४८ ||
तेजी हुवं । घालै श्रमण ! ॥ ४६ ॥
मिटै न 'चम्पक' मैल, समता रहै न समय पर । (तो) ख्याला वाला खेल, साधक जन खेलै श्रमण ! ५०॥
सत्पुरुषां री सीख, सुण 'चम्पक' सुख स्यूं सुवै । तिल भर रखे न तीख, शान्त सरोवर सो श्रमण ! ॥ ५१ ॥
संध्या और प्रभात, फूलण फूलण मैं फरक । त्यावै दिन इक रात, 'चम्पक' चीन्हे चिह्न श्रमण ! ॥ ५२ ॥
श्रमण - बावनी ६३
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शान्ति-सिखावणी
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'गुरु राखै रहणो बठे, मन नै सदा मिलार, 'चम्पक' जी न चुरावणो, श्रम स्यूं शान्तिकुमार !॥१॥
रलमिल ज्याणो रह जठे, 'चम्पक' चित्र जमार, खार दुराव खिचाव में, सार न शान्तिकुमार !॥२॥
काम-काज मै कमकसी, करै तर्क तकरार, 'चम्पक' घसै न काम स्यूं, सुणाले शान्तिकुमार !।३॥
वैरागी बण बीसरे, सुखहित संजम-भार, 'चम्पक' बारां कद सरै, कारज शान्तिकुमार !!४॥
विषय-वासना नहिं बुझी, परिहर घर-परिवार, 'चम्पक' बो खोटी हुयो, सांप्रत शान्तिकुमार !।५।।
'चम्पक' इसी-बिसी जिसी, मिलज्या जग्यां विचार, 'किमेग राई करिस्सइ', सोज्या शान्तिकुमार !॥६॥
सोग्यो-संताप्यो रहै, 'चम्पक' मुंडो चढ़ार, रच्यां-पच्यां बिन नहिं रमे, संयम शान्तिकुमार !।७।।
लुक-छिप कर नहिं बैठणो, ऊंचो नीचो जार, 'चम्पक' चोडे-च्यानणे, सीखो शान्तिकुमार !1८।। पापात्मा नै वस कर, तरै सन्त संसार मार मोह-मद-मान नै संचर शान्तिकुमार !!६॥
शान्ति-सिखावणी ६७
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रोज सिख्योड़ो रात नै, चेते सहित चितार, 'चम्पक' स्वाध्यायी सुर्वे, सीमित शान्तिकुमार !।१०॥
'चम्पक' विकथा मै बगत, गमा मती बेकार, चांक किम्मत समय री, सुधिजन शान्तिकुमार ॥११॥
हंसी टाबरां स्यूं न कर, 'चम्पक' हाथ लगाए, बराबरी का स्यूं वरत, सत्कृत शान्तिकुमार !॥१॥
बायां स्यूं बातां नहीं, करणी निजर उठार, 'चम्पक' राखी आंख रो, संवर शान्तिकुमार !।१३।।
चालाकी गुरुवां कन्है, 'चम्पक' मायाचार, बिल मै बड़तां सांप है, सीधो शान्तिकुमार !।१४।।
सेवा मांग सुज्ञता, चतुराइ आचार, 'चम्पक' विनय-विवेक सह, स्थिरता शान्तिकुमार !।१५।।
सेवा स्यूं फूल-फलै, घुलै प्रेम-व्यवहार, 'चम्पक' आनन्द रै झुल, झूले शान्तिकुमार !।१६॥
चतुर नाम चावै नहीं, काम न समझै भार, 'चम्पक' बाही चाकरी, साची शान्तिकुमार !।१७।।
सेवा 'चम्पक' साधना, आत्म-धर्म अवधार, व्यावच तेरापंथ री, शोभा शान्तिकुमार !।१८॥
परम्परा री धारणा, पेहली विधिसर धार, 'चम्पक' चील्हा पर चलै, साधक शान्तिकुमार !॥१९॥
भूलां भूलै लारली, कर्म निर्जरा धार, 'चम्पक' बा निस्वार्थी, सेवा शान्तिकुमार !॥२०॥
तंग तोड़कर दौड़कर, व्यावच विनय बधार,
'चम्पक' कामू की सदा, सुधरै शान्तिकुमार !।२१।। १८ आसीस
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बहुश्रुती, कर 'चम्पक'
सत्कार,
बड़ा बड़े स्थविरां री आसीस ही, सुरतरु शान्तिकुमार ! | २२||
चम्पक मोटो जगत मै, मां बण मातृ-ऋण स्यूं उऋण,
झट मां आवै याद, जद 'चम्पक' 'मातृ देवो
संघ-संघ
संघ - शक्ति
उघड़े संघ - शक्ति
पर, 'चम्पक'
निछरावल गुरु आण काम पड्यां कायम रहे, बो सिख शान्तिकुमार ! | २५ ||
प्राण उंवार,
'चम्पक' चौड़े चौक मैं, कहै शासण ही सुख-दुःख रो, साथी
रो ही उपकार, सपूत शान्तिकुमार ! | २३॥
भव, ' सरवण
आयां करै डकार,
है,
समुपासना,
संघ री, शक्ति
तप-तेजस्विता, सिंहवाहिनी,
शान्तिकुमार ! ॥ २४ ॥
कर तर
बकार-बकार, शान्तिकुमार ! |२६||
अपरम्पार, शान्तिकुमार ! | २७॥
'चम्पक'
चक्राकार,
साधी शान्तिकुमार ! |२८||
शान्ति - सिखावणी
६६
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सरड़का सोहली
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दोहा
सेकै रोटी स्वयं की, पेली बांधै पाल । (बो) के सड़कासी सरड़का, पाणी मरै पताल ।।
करै न कोई की गई, पड़े न मुंहड़े लाल । सुणा सकै बो सरड़का, मोकै पर मणिलाल ।
मुद्दे मै मजबूत जो, हिरदै में हमदर्द । सुणा सकै मणि ! सरड़का, मस्त-मोड़, मन-मर्द ॥१॥ पज नहीं परपंच मै, पनपण दै नहिं पोल । सुणा सकै मणि ! सरड़का, खरो खेट, जी खोल ।।२।।
अगलै नै नहिं आंगली, टेकण रो दै टेम। सुणा सकै मणि ! सरडका, नीति-निपुण, दृढ़-नेम ॥३॥ लल्ल-चप्पै नहिं लगै, पड़े न आल-पंपाल । सुणा सकै मणि ! सरड़का, हियो हाथ, खुशहाल ।।४।।
अरथ गरथ उलझै नहीं, जगडवाल जंजाल । सुणां सकै बो सरड़का (जो) चालै अपणी चाल ॥५॥
खांपण राखै खाख मै, निर्मोही निर्भीक । सुणां सकै मणि ! सरडका, डांट डपट डाढीक ॥६॥
सागर मै रहणो सदा, बांध मगर स्यूं वैर । सुणां सकै मणि ! सरड़का, दर्दी दुखी दिलेर ।।७।।
सरड़का सोहली १०३
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चत्तर चोगो चोकसी, साचो सुलझ्यो सूत । सुणां सकै मणि ! सरड़का, रांगड़ रण-रजपूत ॥८॥
हार ज्याय तो हर नहीं, जीत्यां नहिं मन-जोम । सुणां सकै मणि ! सरड़का जो वनवासी व्योम ॥६॥
हित की सोचै हर वगत, हिये हेमजल हेज । सुणां सकै मणि ! सरड़का, परचे रो नहिं पेज ॥१०॥
पीसेड़ी पीसै नहीं, ट्रॅक मै दो टूक । सुणां सकै मणि ! सरड़का, दुविधा बिना दडूक ।।११॥
पीच काढ़ दै पीप ने, फेर पंपोले पीड़। सुणां सकै मणि ! सरड़का, भीतर बणकर भीड़ ॥१२॥
पछ उठावै पाछलो, पर आगलो टेक। सुणां सके मणि ! सरड़का, हटक न सके हरेक ॥१३॥
ताब करै तरकीब स्यू, फैकै नहीं फहीड़। सुणां सकै मणि ! सरड़का, छेक देखकर छीड़ ।।१४।।
बिना बगत बोले नहीं, मोकै चुकै न मोल । सुणां सकै मणि ! सरड़का, डिगै न जिणरी डोल ॥१५॥
कसणी पर हीरो कस, काच कांकरा जाच । सुणांसकै मणि ! सरड़का-सोहली 'चम्पक' साच ॥१६॥
१०४ आसीस
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साधक-शतक
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सोरठा-छन्द
ॐ कार अविकार, प्रणव-बीज सां स्यं सिरै। निराकार साकार, सब मंत्रां मै साधकां ॥१॥
'अ-सि-आ-उ-सा' मन्त्र, महाप्रभाविक मांगलिक । तेज तरुणतम तन्त्र, साधो सुधमन साधकां!।२।।
'अ-भी-रा-शि-को' जाप, जयाचार्य रो जागतो। शमन करण संताप, जपो जतन स्यूं साधकां!।३॥
अर्हम् अहम् एक, अगर लीनता लागज्या। विकसित हुवै विवेक, सब कुछ सधज्या साधकां!।४॥
अहम् है आदर्श, अन्तर अहम् अहम् मै । रेस रेफ उत्कर्ष, सुधरै बिगड़े साधकां ॥५॥
अकलदार अहंकार, फटकणदै न पडोस मै। भारी विद्या-भार, सहणो दोरो साधका !॥६॥
इष्ट देव अरहन्त, है आपां रै एकही। दूजां नै धोकन्त, सरधा डोलै साधकां!७॥
इज्जत और इमान, दोनं दोरा राखणा। सहज मान-मम्मान, सोहरो कोनी साधकां!८॥
ईस सेरुओ सार, मांचे रो मंडाणा है। भारी भरखम भार, साल सहेला साधकां !!
साधक-शतक
१०७
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ऊंचो उच्च-विचार, उचित सुझाव उदार मन । ऊपरलो उपचार, सदा राखसी साधकां !॥१०॥
उपयोगी उपवास, द्रव्ये भावे दोउं तरफ। बढ़े आत्म-विश्वास, स्वास्थ्य सुधारै साधकां!।११।।
उलझन में उलझाड़, घालणिया मिलसी घणां। हीये रो हुबसाड़, सुण, सुलझाओ साधकां!।१२।।
एक-एक स्यूं एक, ज्ञानी-ध्यानी गफ-गुणी। गोरख गुदडी केक, शासण-सागर साधकां !॥१३॥
एक तरफ की ऐब, करण सकै बिगाड़ कद ? टांको लागै न टेब, बिना सीवणी साधकां!॥१४॥
एको लारै एक (तो) मींड्यां मांडो मोकली। एकै बिना अनेक, शुन्य-शुन्य है साधकां!।१५॥
कमजोरां नै कोस, करड़ो काठो को मती। मरतां गलो मसोस, थे मत मारो साधकां!।१६।।
कमजोरी रो काम, कोई मै क्यांनै पड़े। पडतां रा परिणाम, सदा चढ़ाज्यो साधकां!।१७।।
कोई नै कमजोर, जाण जलील करो मती। गले लगा, कर गौर, साहरो दीज्यो साधकां!।१८।।
खटा सके कद खाल, नीर निवाणां ही निर्भ। उंचा उठे उछाल, सागर मै ही साधकां!।१६॥
खमतखामणा खेम, कुशल कर कालो कट। हियो हुवै झट हेम, सरल भाव स्यूं साधकां!॥२०॥
ख्याती करै खुवार, मूढ़ बणावै मिनख नै। इन्द्रिय विषय-विकार, स्यान बिगाड़े साधकां ॥२१॥
१०८
आसीस
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गण-गणी में जो गर्क, घुलो मिलो बां मै रलो। संकीलो सम्पर्क, समकित खोवै साधकां !॥२२॥
गुण गिरवा गम्भीर, गाजे पण गरज नहीं। तीखा ताना-तीर, शोभै कोनी साधकां !॥२३॥
गलती, गड़बड़, गेस, गमगीनी, गप, गन्दगी। पड़े न दाबी पेस, साहमी आसी साधकां ॥२४॥
घणो करै घमसाण, घर मै घुस घुसपेठिया। जाण बण अणजाण, सूदा दीसै साधकां !।२५।।
घसपस घाल घणेर, ओछां स्यूं आछो नहीं। कोरो दीसै केर, सीदो फाटै साधकां!॥२६॥
घर मै घर री बात, ढक कर राखो ढंग स्यूं। स्याणप री शुरुआत, सीख्यां सरसी साधकां!।२७॥
चाल चुगल री चांक, छांनी रहै न छिबकली। ईर्ष्यालू री आंख, सटकै समझो साधकां!।२८॥
चमचा जावै चाट, माल मसालो मिनट मै। सूखो सपटम पाट, सिद्धांती रहै साधकां !।२६॥
चटकै जावै चेंट, चींट्यां चीणी नै चुटण । खारो, खरो रु खेंट, सूंघे कोइ न साधकां!।३०॥
छोड़ सुधा रो स्वाद, छेक अही-विष जो छ । अक्कल रो उन्माद, सदा सिदासी साधकां!॥३१॥
छद्मस्था री छोल, छठ गुणठाणे छलै। पण, गण-गालागोल, सहणे सके न साधकां!।३२॥
साधक-शतक १०६
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छली, छुरी, छद, छेद, गयी' न कोई री करै । आफत बिना उमेद, सावचेत रहो साधकां!।३३॥
जीव-दया रा जाण, जयणा राखो जुगत स्यूं। निबलां रो नुकसाण, शास्त्र न मानै साधकां!।३४॥
जगड़वाल जंजाल, दुनियांदारी रो दरो। समकित-रतन सम्भाल, सेंठो राख्या साधकां!।३५॥
जाणपणे रो जोम, करण सकसी केवली। अल्प-ज्ञान मति ओम, शिक्षार्थी है साधकां !।३६॥
झूठो झोड झपाड़, झटपट गलै न घालणो। राल राड़ बिच बाड़, सिरक ज्यावणो साधकां!।३७॥
झोलै नै ल झाल, विरला विरख' इसा मिनख । चांतर ज्यावै चाल, सड़क चालतां साधकां !।३८॥ झेल झोंका झोल, झड़ी पड़ीसी झुपड़ी। डूंगर ज्यावै डोल, सहै सहणियां साधकां!।३।। टक्कर देव टाल, टूटी जोड़े टेम पर। टीस, रीस दै ढाल, स्याणो बोही साधकां !।४०।। टींटोडी ज्यं टांग, ऊंची रख आकाश में। स्यांग्यां वाला सांग, शोभै कोनी साधकां !।४१॥
टक्कै टांग उठार, टेडो चालै टेंट मै। भीतां झेल भार, सिरकी सहै न साधकां! ४२॥
१. आवरण। २. लिहाज। ३. वृक्ष। ४. चूक। ५. सरकंडों की बनी।
११० आसीस
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ठोकर वाली ठोर, ठहर-ठहर कर ठीकसर । चालै चतुर चकोर, संयम-साधक साधकां !।४३॥
ठीमर, ठट्ठा-ठोल, ठाकर जो ठणक्या करै। डूमां वाला डोल, सांपड़तैइ साधकां!।४४॥
ठोल्या खावै ठांव', ठंडो जल ठार, ठरै। नीलम पावै नांव, साण चढ्यां स्यूं साधकां! ४५।।
डाबर-डाबर' डोल, हंस ! हंसाई क्यूं करे ? कियो निभाओ कोल, स्थिरता साधो साधकां!॥४६॥
डटकर एकण ठोड़, करणो-मरणो मांडद्यो। निश्चय, बडो निचोड़, संयम-रुचि रो साधकां!!४७॥
डगमग डांवांडोल, नाव पार कद नीसर? आस्था ही अनमोल, साध्य सिद्धि मै साधकां!।४८॥
ढील दियां बे-ढाल, गोचां खा गुड़क किनो'। साहर्या शिखरां न्हाल, साधो मननै साधकां!।४६॥
ढ़को न अपणा दोष, पड़ो न पड़पंच पारक। सूखो स्याही चोस, सदा सिखावै साधकां!।५०॥
ढिगलां-ढ़िगलां ढाक, अण गिणती रा आकड़ा। श्वेत ढाक अरु आक, साधक, विरला साधकां!॥५१॥
तेज तरुणिमा तोल, आकर्षण चावो अगर । (तो) मूल-बंध रो मोल, समझो, साधो साधकां!॥५२॥
१. मिट्टी का बरतन । २. छोटी तलाई। ३. पतंग। ४. गुदा चक्र को ऊपर खींचने वाली योगक्रिया।
साधक-शतक १११
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तर्क - तर्क र स्थान, जिज्ञासू बण ज्ञान,
तन नै कर तजबीज, जोगी राखे जुगत स्यूं । चढ़ी अमोलक चीज, सिरड्यां' हाथां साधकां ! । ५४ ।।
श्रद्धा श्रद्धा री जग्यां । संचित करज्यो साधकां ! १५३||
थंभां छत ली थांम, भीतां झेल्यो भार सोह । नहि नाम, (ओ) सही समर्पण साधकां ! | ५५ ॥
.२
थड़' थां स्थित प्रज्ञ, पान फूल फल सब मिलै । पकड़ पानड़ो अज्ञ, सोह क्यूं चावै साधकां ! ॥ ५६ ॥
थपथपियो' दे थाप, करदे लोधें ने कलश । गुरुगम बिना कलाप, शास्त्र, शस्त्र, श्रुति साधकां ! १५७ ॥
दया न दान न धर्म, जोर जबरदस्ती जठै । मन परिवर्तन मर्म, सुध श्रद्धा रो साधकां ! | ५८ ॥
दोय जणा बिन धाड़, दोय जणा बिन दोसती । दोय जणा बिन राड़, सुणी न देखी साधकां ! ५६ ॥
दोय मिल्या दुख होय, जड़-चेतन प्रकृति-पुरुष । भाव-विभाव भिजोय, संस्कारां नै साधकां ! | ६० |
धैर्य बिना कद धर्म, टिकै, धिकै, थिरके सिकै । धर्म बिना कद कर्म, सिरकै, छिटकै साधकां ! ॥ ६१ ॥
ध्यान-योग धीमान, गुरु स्यूं धारै धिरप स्यूं । आन-पान रो स्थान, सिरै परखज्यो साधकां ! | ६२ ॥
१. सिरड़ी - सनक |
२. पेड़ का स्कन्ध । ३. कुंभार । ४. गीली मिट्टी ।
११२ आसीस
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ध्याता ध्येय रु ध्यान, एक बणे जद स्थिर पण । पाचूं-पवन समान, मिलै 'शक्ति-शिव' साधकां !।६३॥
नरम नीति स्यूं नेम, नहीं निभला निर्मला। अनुशासन री टेम, शक्ति बरतज्यो साधकां!।६४।।
निर्णय जो निष्कर्ष, निपुण-बुद्धि र न्याय रो। स्वीकृत करो सहर्ष, सरल चित्त स्यूं साधकां!।६५।।
निरतिचार निर्द्वद, संयम समकित साधना। करो छन्द नै बंद, समता-साधक साधकां!१६६॥
पुण्य प्रमाण प्रवीण, प्रभुता प्रियता पूज्यता। करो न पूंजी क्षीण, सम्बोधी-धर साधकां!।६७॥
पालै छप-छप पाप, पछताणो पड़सी पर्छ। छद्मस्थी री छाप, लाग्या सरसी साधकां!६८॥
परम प्रभावी प्रेय, परमेष्ठी पंचांगुली। एक दुष्ट है श्रेय, स्पष्ट-निष्ठ रहो साधकां!॥६६॥
फिरतल री फरियाद, कुण स्वीकार, कुण सुण । स्थिरता रोकुछ स्वाद, स्थिर बण चाखो साधकां!७०।।
फटकारे ही फाव', बोलै पाण, बण बे-रुखो। द्यो आयां नै आव, आदर-सादर साधकां!।७१॥
फैको मती फहीड़, बको मती बेफेम थे। भाग्योडां री भीड़, स्हामो साहसी साधकां!।७२।।
बात-बात मै बर, बांधो मत बैठा-सुतां। ओ जबान रो जैर, सागी शंखियो साधकां !।७३।।
१. मुफ्त-बेकार।
साधक-शतक ११३
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बधतो जाय बिगाड़, द्रष्टा देखै है खड्या। कुण झोले मै झाड़, साहम सकैला साधकां!।७४।।
बातां री बंभेर, घोड़ा दौड़े कागजी। (मैं) लागू खारो जेर, सीधो बोल्या साधकां!७५॥
भीतर-भीतर भेद, बधै बेल विष री बुरी। ऊंडी जठै उमेद, शिल सपाट है साधकां!।७६।।
भावां मै ल्यो भांप, सुस्त देख मुनि सम्पदा । जाय कालजो कांप, सूता-सूतां साधकां!।७७।।
भभकी जसरी भूख, चूंच बाहिरी चिड़कल्यां। चूंचूं कर अचूक, सिट नहीं सीझै साधकां ॥७८।।
महामना ! मनुहार, मानो मन मोटो करो। मेट खार, मन मार, सब मै रलज्यो साधकां!७६॥
मननशील ! महामान्य ! मरम मरक मारो मती। अभिमत हुयां अमान्य, सल मत घालो साधकां11८०।।
मिनख, मेह, मत, मोत, मोती मांग्या कद मिलै ? जगै जोत स्यूं जोत, जदि संयोजक साधकां!।१॥
याद करो आयात, के निर्यात कर्यो ? कुशल ! रीतो ही दिनरात, रह्यो क? सोचो साधकां!!८२॥
यांत्रिक-युग में योग, प्राणायाम प्रयोग है। व्यायामज व्यपयोग, शुभोपयोगी साधकां!।३।।
यात्रा आळू याम, यायावर है यति-व्रती। पालां संयम-स्थाम, सुखसाता स्यूं साधकां!८४॥
राखो द्रष्टा-भाव, एक दृष्टि इण सृष्टि में। लागणद्यो न लगाव, शीस की ज्यूं साधका !।८५॥
११४ आसीस
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राग-रीस है दाग, त्याग विराग-पराग मै। अन्तर धुकती आग, शान्त करो सत साधकां!।८६॥
राग-रसिक, रमणीक, रूप-रसिक, रसना-रसिक । लोप लाज-लय-लीक, सदा सिदावै साधकां!८७।।
लक्खण लक्ष्य रु लेख, लाख लुकायां नहिं लुकै। केक भेख मै छेक, ससंकेत कहुं साधकां!1८८।।
लय, लत, लीक, लिलाड़, लारै लग्या लट्ररिया। दैवै बात बिगाड़, सापादती साधकां!।८।।
लाखां-लाखां लोक, लुल-लुलकर लटका करै। संयम श्लोक विलोक, सद्गुरु कृपया साधकां!।६०॥
वरत जो विपरीत, टालोकड़ गण स्यं टलै । अपछन्दा अवनीत, संगत छोड़ो साधकां!६१॥
विट्टल रो विश्वास, कोइक विट्टल ही करें। शासण रो इतिहास, साखी साहमै साधकां ।२।।
विज्ञ वणिक व्यवसाय, क्रय-विक्रय विणजे विविध । आंकां आंकै आय, सामायक-धर साधकां !।६३॥
शम-दम मै खम-ठोक-जम, नमकर रम विगम तम । जो द्यो प्राक्रम झोंक, (तो) सुगम सुसंयम साधकां !।६४॥
शान्त मना शुभ सोच, विष पीकर शंकर बणो। शिवं स्वात्म संकोच, श्रेयस्कर है साधकां!।६।।
शासन शास्ता शान, शोधित शुद्ध सुशासना। सगला एक समान, स्व-पर न समझ साधकां!।६६॥
साधक-शतक ११५
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षट् - द्रव्यात्मक' लोक, सृष्टि सजीव अजीव री । संतति संक्रम सोधो सोनो साधकां ! ॥६७॥
रोक,
षट् प्रमाद' परिहार, षट् पलिमन्धु' न षट् प्रतिक्रमणाचार, सदा साचवो
४
षट् सद्गुण सम्पन्न हुवै श्रमण गण स्तंभ सो । प्रतिभा प्रभा प्रपन्न, संघ सम्पदा साधकां ! | ६६ ॥
साम्य-योग ल्यो साध, सब समान सुख-दुख स्वगत | स्वानुभूति रो स्वाद, सुधाश्राव है साधकां ! | १०० ॥
सन्त समागम सार, सामेलो साझो सविधि | स्वागत युत सत्कार, शासण शोभा साधकां ! | १०१ ॥
आचरो । साधकां ! |८||
सद्गुरु शीख सचोट, स्वीकारो सम्मान स्यूं । सविनय चरणां लोट, सत्य सुझाओ साधकां ! | १०२ ॥
है अपने ही हाथ, अपणी इज्जत आबरू । राख याद दिन रात, सलाह, संचरो साधकां ! ॥१०३॥
हुवै न कदे हताश, लाख-लाख शाबास,
हंस- वृत्ति हिय-हेज, हंसमुख हर्यो भय रहै ।
( वो) अतिशायी आदेज, स्हेज तेज लहै साधकां ! १०५ ॥
११६ आसीस
आपो नहि दे आपरो ।
बीं साधक नै साधकां ! | १०४ ॥
१. धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय, काल ।
२. मद, विषय, कषाय, निद्रा, आलस्य और प्रतिलेखना ।
३. चपलता, वाचालता, चक्षु-कुशील, चिड़चिड़ापन, अति लोभ और निदानसंकल्पी |
४. सामायक, चौबीसस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और पच्चक्खाण । ५. श्रद्धालु, सत्यवादी, मेधावी, बहुश्रुत, शक्ति सम्पन्न और प्रशान्त-चित ।
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रामायण छन्दै
महावीर निर्वाण-महोत्सव, दो हजार इकतीस सुखेन । देहली रेली बड़ी नवेली, एक मंच पर सारा जैन। दी श्रद्धांजलियां रंगरलियां, भक्ति भाव भृत वरणांमै। सेवाभावी 'चम्पक' 'साधक-शतक' धरै श्रीचरणां मै ॥१०६।।
साधक-शतक ११७
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शिक्षा - सुमरणी
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दोहा
सदा समर्पित सुर-सरी, सागर स्यूं सम्बन्ध । 'चम्पक' श्रीसंघ चरण में, प्रणमै छन्द-प्रबन्ध ॥१॥
नमै खमै बोही गम, गंज गरज री गन्ध । विनय-बिधा 'चम्पक' बिणे, विगत छन्द कर बन्ध ॥२॥
सहज समर्पण सुमन-वन, शोभै 'चम्पक' संघ । सुधा संघ-पति सारणा, सोने मांह सुगंध ॥३॥ इमरत आंख्यां में झर, तपै देह पर तेज । 'चम्पक' चेहरै सोम्यता, सन्त हिये मै हेज ॥४॥ विषय-वासना बुझ गई, आश पाश को अन्त। संयम समता मैं रमै, 'चम्पक' साचो सन्त ॥५॥
सन्त बहै सत्पंथ मै, ग्रन्थ छोड़ निर्ग्रन्थ । 'चम्पक' तंत उदन्त मै, लै अनन्त को अन्त ॥६॥ त्याग-विराग-तड़ाग मै, अतिशायी अनुराग। चंचरीक 'चम्पक' चुस, मुनि-पद-पद्म-पराग ॥७॥ शासण सुर-तरु सुख कर, सिद्धि-सौध-सोपान । 'चम्पक' शासण च्यानणो, आन-पान सम्मान ।।८।।
शासण शीतल छांवली, अणाधार आधार । 'चम्पक' शासण चेतना, हरण पाप हरिद्वार ॥६॥
शिक्षा-सुमरणी १२१
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शासण दुर्लभ देवरो, शासण पूजा-पाठ | शासण ₹ परताप ही, 'चम्पक' सगला ठाठ ॥ १० ॥
२ आस
शंख दक्षिणावर्त है, संघ श्वेत- मन्दार | चिन्तामणि 'चम्पक' चहक, वांछित फल दातार ॥। ११॥
मानसरोवर, मलयगिरि, मख - मयूख - मोहार' । मंगलमय, शासण मुदित, 'चम्पक' चरण पखार ॥ १२ ॥
विद्या स्यूं बेसी बधै, विकट अनास्था आज । 'चम्पक' चौड़े चोक मै, सोचो सुज्ञ समाज ॥ १३॥
बिना हिलायां ओझज्या, लोकोक्ति प्रख्यात । सूती रा पाडा जणै, 'चम्पक' चोड़े बात ॥। १४ ।।
गुड़- लिपटेडी बात स्यूं, राजी 'चम्पक' लागै चबड़को, साच
सापा
-दूती स्यूं सरै, भले पर 'चम्पक' चौड़े पड्यो, बुरो
संघरषण स्यूं संघ मैं, 'चम्पक' पड़े दरार । भीतर ही भीतर धुकै, अणबोली तकरार ॥ १७॥
रहे समाज । सुणायां आज ।। १५ ।।
नेता निरवालो रहै, (तो) बधै न वाद-विवाद | 'चम्पक' कम - बेसी नमक, करै खाद्य बेस्वाद ||१८||
स्याणां 'चम्पक' सोच तूं थारै डावी- जीवणी,
यज्ञ का प्रकाश-द्वार ।
कितोइ काम |
अन्त परिणाम ॥ १६ ॥
सांय-साय सुलग सतत, दिन भर दिल रु दिमाग । 'चम्पक' बातां स्यूं कदे, बुझे न अन्तर- आग ।। १६ ।।
मत इकतरफी तांण । दोन्यूं एक समान ॥ २० ॥
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चम्पक चिड़-भिड़ स्यूं हुवै, घर मै घणो बिगाड़। भुन न्हाख सद्भावना, मनोभेद की भाड़ ॥२१॥
दर्दी नै दीस जियां, अपणो दर्द अमाप । त्यूं दोषी यदि देखले, (तो) 'चम्पक' पलै न पाप ॥२२॥
पक्ष-पात रो पादरो, पड़सी क्यं न प्रभाव। थोथी तर्का स्यूं तण, 'चम्पक' और तणाव ।।२३।।
'चम्पक' चोड़े बातां-बातां मै
सूगली, सापा-दूती साव । बढे, दिक्कत और दुराव ॥२४॥
हाथ-हाथ स्यूं यदि घस, (तो) गरमी बढे विशेष । बात-बात री घर्षणा, 'चम्पक' करदै क्लेश ॥२५॥
बंधी मुट्ठी रहण दै, 'चम्पक' चतुर विचार । भर्यो भरम ही है भलो, हाथ पसार्यो हार ॥२६॥
सन्तां ! शासण रो सदा, हित आपरै हाथ । चम्पक चालो चेत कर, सगला नै ले साथ ॥२७॥
नेता नितरण लागग्या, चलै दुतरफी चाल। 'चम्पक' किण नै दोष दै, कुदरत करै कमाल ॥२८॥
अठी-बठी री बात स्यूं, टूटै हार्दिक हेत। 'चम्पक' अवसर हाल है, चेत सके तो चेत ॥२६॥
कित्ती मेहनत स्यूं घड़ो, त्यार करै कुंभार। चटकै फटकै फूटतां, 'चम्पक' लगे न बार ॥३०॥
सड्या-गल्या जूना पड्या, मुरदा मती उखेड़। छुट-पुट छेड़ा छेड़ स्यूं, 'चम्पक' कठै निवेड़ ? ॥३१॥
द्वंद्व दिमागां मै भर्यो, दिल में खड़ी दिवार। भीतरलो भेद्यां बिना, 'चम्पक' नहिं प्रतिकार ।।३२।।
शिक्षा-सुमरणी १२३
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प्रेम हृदय री देण है, है व्यवहार दिमाग । फूल बिना फूल कठे, 'चम्पक' प्रेम-पराग ॥३३॥
करसी सो भरसी दकी ! धक्कै धिक न पोल । तो कांदां रा छूतका, 'चम्पक' तूं मत छोल ॥३४॥
'चम्पक' होकर ही रहै, होणी अपण आप। नेता री निष्पक्षता, छोडै दिल पर छाप ॥३५॥
बैर मिटै नहिं बैर स्यू, बुझै न घी स्यूं आग। कादै स्यूं 'चम्पक' धुपै, कद कादै रो दाग ? ॥३६॥
दुर्व्यसनी देख्या दुखी, सदा सुखी गुणवान । हलको जीवन हर समय, राखै 'चम्पक' मान ॥३७॥
साच, साच 'चम्पक' सदा, झूठ अन्त है झूठ। छिन मै जावै झूठ स्यूं, प्रेम-प्रीत, मन टूट ॥३८॥
झूठ रो 'चम्पक' जमै, एक बार विश्वास। धग्-धग् अन्तर धड़कतो, रहसी अन्त उदास ।।३।।
अति-परिचित स्यूं अर्थ रो, बणै जितै व्यवहार । करो मती 'चम्पक' कहै, स्वारथियो संसार ।।४०॥
'चम्पक' विनय विवेक बिन, व्यर्थ बाह्य व्यवहार । बगत देखकर बरतणो, साचो शिष्टाचार ॥४१।।
डिगू-पिचं डिग-मिग करै, घड़-घड़ ओघट घाट । 'चम्पक' समकित चरण मै, उलटो कर उचाट ॥४२।।
डोको फाड़े डांग नै, तिल ले चाल्यो ताड़। 'चम्पक' छिपग्यो छोकरां! राई ओले पहाड़ ॥४३॥
डिगली चूक डफोल स्यूं, राख न 'चंपक' राड़।
ओछै मुतलब नै अधम, बोलो करै बिगाड़ ॥४४॥ १२४ आसीस
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डोर हाथ मैजो हुवै, (तो) ल्यावै पतंग मरोड़ । 'चंपक' कूंची हाथ, मैं (तो) सगला आसी दौड़ ॥ ४५ ॥
डूब मुरख डफोल क्यूं, खोद हाथ स्यूं खाड । 'चंपक' रुखवालो लुटै, खेत खायगी बाड़ ॥ ४६ ॥
छोटां ने छिटका मती, चाढ़ 'चंपक' छोटो सो चिणो, कणां
'चंपक' चेतो कर चतुर ! चित मत वकरी चाढ़ । अंतसकै आवेश नै, मुंहडै स्यूं मत काढ़ ॥ ४८ ॥
चिणारै झाड़ । भांजदै भाड़ ॥४७॥
एकेक तो कचरो बणै, बहु मिल बणै बुहारी । तिण स्यूं घण नहिं त्यागणो, 'चम्पक' रख इकतारी ॥४६॥
घण रो मत गहरो घणो, पड़े मती प्रतिकूल । जीते घण ही जगत मै, 'चम्पक' बण अनुकूल ॥५०॥
जन-मत सब कुछ जगत मै, 'चम्पक' देखो जाय । जनमत स्यूं विपरीत जन, घर-घर धक्का खाय ॥५१॥
गलै सुदी गण मै गड्यो, रह 'चम्पक' पग रोप । शान्त स्वतः ही समय स्यूं हुवै कोप - आरोप ॥५२॥
शान्त चित्त 'चम्पक' सदा, कार्य व्यस्त विश्वस्त । रहणो अपण हाल मै मस्त स्वस्थ आत्मस्थ ॥५३॥
सावधान रहणो सुघड़, संयम में प्रति सास । हित खोवै जो हाथ स्यूं, 'चम्पक व्यर्थ विकास ॥ ५४ ॥
चित मै चासी च्यानणो, हित रख करै मती नाहक अती, अन्त
'चम्पक' हाथ | अंधेरी रात ॥ ५५ ॥
आकर झट आवेश में, बक
ज्यावै
बे- फेम | स्याणपरी 'चम्पक' खबर, पड्यां करें बी टेम ॥ ५६ ॥
शिक्षा - सुमरणी १२५
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लेखो अगलो लारलो, लख कर 'चम्पक' बोल। मते मिणीज मिनख रो, एक मिनट मै मोल ॥५७।।
'चम्पक' जीवन-जीतणो, खुलो खिलाणो नाग । काजल री आ कोठरी, लाग न ज्यादै दाग ।।५।।
बहु-बेट्यां पर बेअकल, फाड़े आंख फिजूल । 'चम्पक' बी बदकार रै, धोबां-धोबां धूल ॥५६॥
बिना फेम बोल्यां बधै, बेमतलब रो बैर। ओरां पर आरोप स्यूं, 'चम्पक' हुवै न खैर ॥६०॥
बिगडायल बदनीत तो, बोले आल पंपाल । 'चम्पक' चेतो राख तूं, अपणो आप संभाल ॥६१॥
कोई स्यं करणी नहीं, बिना जरूरत बात। बहु बोलै री बीगड़े, 'चम्पक' जग प्रख्यात ॥६२॥
चालो चोखी चाल मै, करज्यो चोखा काम । 'चम्पक' संशय मत करो, रेख राखसी राम ॥६३।।
ओरां रो अवगुण करण, घड़ मत ओघट घाट । 'चम्पक' मेलै मिनख रो, मिटै नहीं ओचाट ॥६४॥
टेम टुटण रो टाल दै, 'चम्पक' चतुर सुजाण । आपसरी री बात मै, खटै न खेचां ताण ॥६५।।
सुणी सुणाई बात पर, धर मत चम्पक ध्यान । अन्तर कहण-सुणण मै, हुवै जमी-असमान ॥६६॥
मंडे-मंड कराण रो, खोटो ढालो छोड़। 'चम्पक' चुम्बक मै चतुर !, निकल न्याय निचोड़ ॥६७॥
जो चावै जग जीतणो, उत्तम एक उपाय ।।
'चम्पक' कर अहसान तूं, दुश्मण भी दब जाय ॥६॥ १२६ आसीस
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अपणी अकड़ाई अजड़, खतम करै सब खेल । निज री 'चम्पक' नम्रता, मित्र मिलावै मेल ॥६६॥
भाई ने 'चम्पक' भले, तूं बकलै कर ब्हेम । भाई ही आसी भलो, आडो ओहंडी टेम ॥७॥
व्हायल चारै ब्हायलो, लै भायां स्यूं तोड़ । 'चम्पक' चुगणी ठीकरी, भर्यो घड़ो मत फोड़ ॥७१॥
'चम्पक' भाई बूकिया, भाई आंख्यां गोडा। भाई को कमजोर के ? टूट्या तोही टोडा ॥७२॥
ओपै भाई री जग्यां, भाई रो ही मेल । 'चम्पक' लुखी चीकणी, फूटी तो हि बंडेल ॥७३॥ बुरो बैर बिखबाद रो, भायां मै मत घाल । 'चम्पक' तूं चालै मती, राजनीति री चाल ॥७४।।
भाई भूखो भाव रो, रोटी भूखो रांक । सहज मान सम्मान मै, 'चम्पक' चुरा न आंख ।।७५।।
'बडो बिचारला बडी, ओछो ओछी चाल। 'चम्पक' पोटी पाव की, सवासेर मत घाल ॥७६॥
शोषणहीन-समाज री, रचना बड़ो विचार । 'चम्पक' थोथी कल्पना, कर्यां कर सरकार ॥७७।।
चितड़ो चकडोल्यां चढ्यो, राखण रोब रबाब । 'चम्पक' चांदी रो चकर, खेलो करै खराब ॥७८॥
कुण ल्यायो कुण लेयग्यो, किण संग चाली आथ । जाण-बूझ 'चम्पक' जगत, जबरन घालै बाथ ।।७।।
'चम्पक' अंत न चाह को, मांडी माथै बूक । भस्म-व्याधि, भोजन भखै, भांज सकै कद भूख ? ॥८॥
शिक्षा-सुमरणी १२५
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'चम्पक' लिछमी चचला, इण रो के इतबार । कुण ल्यायो कुण लेयग्यो, तो के री तकरार?॥८॥
'चम्पक' चौड़े आयला, आज नहीं तो काल । धन-धरती दोनूं दकी !, है सरकारी माल ।।८२॥ 'चम्पक' धन भेलो करै, चूस-चूस कंजूस । कोड़ां पकड़ीज्यां पड़े, देणी लाखां घूस ।।८३।।
दीपक बुझग्या दीपता, 'चम्पक' चब्या सुपर्व । राज गया, राजा गया, गेहला ! क्यां पर गर्व ? ||८४॥
धरणी रो धन धरण मै, धरयो रहेला लार। खोटा तूं क्यां नै घडै ?, 'चम्पक' जरा विचार ।।५।।
'चम्पक' किण-किणरो चल्यो, गेहला! गर्थ गुमान। मिलसी अंत मसाण मै, सगला एक समान ।।८६॥
कुण किण रै तकदीर रो, जोड़-कोर धर जाय। रखवाली 'चम्पक' रखै, कुण खरच कुण खाय ।।८७।।
संचै मो-मोखी शहद, अधिकी 'चम्पक' आश । अति संचय रो सामनै, प्रतिफल पड्यो खुलास ।।८८॥
खतरो सोनो है खरो, जाणै सब संसार । 'चम्पक' सोह क्यूं चूंटकर, (आ) ले ज्यासी सरकार ॥८६॥
सोनो सरकारी हसी, घणी नहीं है देर। 'चम्पक' चूकैला जको, पिछतावैला फेर ।।६०॥
जोखो मोटो जीव नै, 'चम्पक' अब भी चेत। सोनै रो स्याणा मिनख !, हटा हृदय स्यूं हेत ॥६॥
देतां जी दोरो हवै, खरचै नहीं छदाम । 'चंपक' संग चाले नहीं, (ओ)धन आसी के काम ? ॥१२॥
१२८ आसीस
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'चम्पक' चढ्यो समाज रो, शिर पर मोटी कर्ज । देणो लेणो आपसी, (है) साधारण सो फर्ज ॥१३॥
घणा हुसी खाकर खुशी, हाथ पेट पर फेर। खुवा दूसरै नै खुशी, 'चम्पक' कोइक दिलेर ॥१४॥
एक दालियो भी दकी!, दूजो सके न चाख। 'चम्पक' मत बेचैन बण, भाग भरोसा राख ।।६५॥
आयो हो जद एकलो, जासी एकाएक । झामल झोलो बीच मै, टेको 'चम्पक' टेक ॥१६॥
दीन और दुनियां दोउं, सझै न एकण साथ । 'चम्पक' दिन ₹ च्यानण, रहण सके न रात ॥१७॥
नीयत सारू नीसर, अन्त नतीजो नेम । 'चम्पक' चींधी चोर कै, पीपल चढे न पेम ॥९८||
झूठ छिपायो कद छिपे, 'चम्पक' चोडै आय।। फल दो दिन पेहली पछै, अन्त गतां स्यूं जाय ।।६।।
साच रहेला साच ही, झूठ आखरी झूठ । साची 'चम्पक' सामने, झूठ चलै परपूठ ॥१००।।
आंख कान मै आन्तरो, 'चम्पक' आंगल च्यार। दूरी देखण सुणण री, कहतां पड़े न पार ॥१०॥
कान राग-रसिया खुशी, रंग रूप मै नैन । चाट बटोड़ी जीभड़ी, 'चम्पक' पड़े न चैन ॥१०२॥
सोतां मोत सिरावते, जाग्यां साहमी जाण । 'चंपक' चोकस चालणो, सुण मन-मीत ! सुजाण ।।१०३।।
मिली जकी मै ही मिनख !, सावल करले सन । जाणो 'चम्पक' इक जग्या, का मसाण का कब्र ॥१०४॥
शिक्षा-सुमरणी १२६
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मरण जीण रो मामलो, है होणी रे हाथ । 'चम्पक' कोइ पेली पछ, सगला निभै न साथ ॥१०॥
धर्म-ध्यान में मदद दे, साचो बोही सैण । 'चम्पक' बाधक बणणियां, दुश्मण गोता देण ॥१०६।।
अन्तर-मुख अभ्यास रो, मुश्किल है मंडाण। 'चम्पक' चेतन री चटक (तूं) जोग्यांस्यूं ही जाण ॥१०७।।
कवियां मैं बैठू उर्ले, मुड़ती देखू मोड़। कोड-कोड मै होड मै, 'चम्पक' दोड़ी-दोड़ ॥१०॥
बत्तीस सी०स्कीम मै, शरद च्यानणी रात। चम्पक ! शिक्षा-सुमरणी, सुमर सुमेरु साथ ॥१०६।।
१३० आसीस
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फुटकर फूल
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दोहा
'चम्पक' पावन पावणां, परमेसर रो रूप । मोत्यां मूंघा मोवन्यां! गिण मत छाया धूप ॥१॥
'चम्पक' भावी जोग भल, मोको मिल्यो महान । मांग्या मिले न मोवन्या ! मेह, मोत, मेहमान ॥२॥
पलक बिछादै पावडां, भूल मूल तिस-भूख । सुवरण-मोको मोवन्या ! 'चम्पक' तूं मत चूक ।।३।।
सागर ! समता री सरस, परिणति हुवै प्रवीण । 'चम्पक' चेतन चुप रहै, क्षमता मत कर क्षीण ॥४॥
बराबरीकै स्यूं भिड़ण, 'चम्पक' चहिजै चोज । मरयै हुयै नै मारणौ, मै मरदां के मोज ॥५॥
आहमी-साहमी उतरती, औरां री कर आप। चढ़ती 'चम्पक' जो चहे, (तो) स्वयं सूंफड़ा साफ ॥६॥
उद्यम रो अधिकार है, टलण सकै कद टेम।। होसी जो होगी हुसी, 'चम्पक' खेम अखेम ॥७॥ चुगली खा डूब चुगल, बांध पाप की पोट । 'चम्पक' उठा न गोट तूं , सागर ! हिला न होठ ॥८॥
'चम्पा' चकमो दै मती, भीतरलो टटोल । सागर ! अपणो दोष तूं, ओरां पर मत ढोल ॥६॥
फुटकर फूल १३३
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'चम्पक' सागर ! तूं सुघड़, मत कर गोल-मटोल । ठोस बात ठीमर करै, छोरा ठट्ठा-ठोल ॥१०॥
अठी बठी रा अणघड्या, तूं फहीड़ मत फेंक । ठीमरपण री ठीकसर, 'चम्पक' लागै नेक ॥११॥
बुद्धिहीण बिह्वल बिकल, अकल बिना रा ऊंठ। 'चम्पक' बिगड़ी चासणी, टूटै नमें न ठूठ ।।१२।।
ठबको लाग्यां ठीकरी, कलशो काच कथीर । 'चम्पक' खमसी चोट नै, हीरो-हेम-हमीर ।।१३।।
बचन-बचन मै आन्तरो, पीढ्यां रो पड़ ज्याय । एक बचन मै मिलण रो, 'चम्पक' उपजे चाव ॥१४॥
एक बचन घाधां भरै, घाव घालदै एक। अमृत-जहर जबान मै, 'चम्पक' जगा विवेक ।।१५।
लाग्योडी पर लंण सो, एक बचन दुख देह । एक बचन दै सांत्वना, 'चम्पक' उमड़े नेह ॥१६॥
आग ऊपड़े बचन स्यूं, बचन बणे रस-धार। शत्रु-मित्र बाणी सुगण ! चम्पक' जरा विचार ।।१७।।
निरवद बोल्यां निर्जरा, सावद बन्ध विषाद । एक बचन स्वाध्याय है, 'चम्पक' इक बकबाद ॥१८॥
अर्थशून्य अविवेक वच, अनरथ कर अयथार्थ । निर्जरार्थ निरवद बदै 'चम्पक' बचन यथार्थ ।।१६।।
'चम्पक' झुककर जुगत सर, जडियो जड़े जड़ाव । जमै जग्यासर खटोखट (तो) बाणी बण बणाव ।।२०॥
सागर ! चतुर चलाक मै, अन्तर 'चम्पक' एक । चाल कुचाल चलाक की, विकसित चतुर विवेक ॥२१॥
१३४ आसीस
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'चम्पक' चोटी पर चढ़े, पुरुषां रो पुरुषार्थ । हुवै परायी कृपा पर, चिन्तन कद चरितार्थ ॥२२॥
अनुभव-दीपक स्यूं दिसै, 'चम्पक' च्यारूं कूट । गुण्यां बिना दुनियां गिणे, भण्यो पढ्योड़ो ऊंठ ॥२३॥
गणित रु गुरुरी अलख गति, 'चम्पक' चढ़ आकाश। गगन-दीप दरिया गुरु, पर-हित कर प्रकाश ॥२४॥
डोर सुगुरु के हाथ मै, गोचां खाय पतंग। टूट तो लूट जगत, विधि को 'चम्पक' व्यंग ।।२।।
गुरुवर गुर-ज्ञाता गजब, परखै 'चम्पक' पीड़। जीवन झोंकै जद-कदे, पड़े भगत पर भीड़ ॥२६॥
'चम्पक' मंदिर री मुरत, माथै चाढ़े लोक । आचार्जा री आंण ही, साधै सगला थोक ॥२७॥
जद गुरु देवै ओलमो, झुकज्या चरणां आगे। कद 'चम्पक' पतझड़ बिना, पेड़ां रै फल लागै ॥२८॥
गण गेले गूंज गणी, गण पूजे गणि-गोप। गण जूझै गणि आंण पर, 'चम्पक' गणि गण-ओप ॥२६॥
ऊपर उज्जल धोलियो, मन मिनखां रै मेल । जेपुर री उपमा जचे, 'चम्पक' गल्यां रु हेल ॥३०॥
मन गलतो, मन गोमती, मन ही तीरथ-घाट । मन मंदिर, मन देवता, मन ही पूजा-पाठ ॥३१॥
मन गंगा, मन गंदगी, मन रावण, मन राम ।। सुरग-नरक पुन-पाप मन, मन उजाड़, मन ग्राम ॥३२॥
मन सीता, मन सुर्पणां, मन हि कृष्ण, मन कंस । 'चम्पक' मन योगी-यवन, मन कौओ, मन हंस ।।३३।।
फुटकर फूल १३५
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निजर निर्मली निरखणो, किरतब खुली किताब । 'चंपक' रोब-रबाब रख, खो मत खोह गुलाल ॥३४॥
ऊठ सवारी ओज को, दिन मै देखै ख्वाब । 'चम्पक' पड़ पर-पेज मै, गलती करै गुलाब ॥३५॥
आज बलै क्यूं कालजो, जचै न जुगतो जाब । सागर ! बहम पड़े मनै, गुमशुम कियां गुलाब ।।३६।।
गिरतोड नै थाम'र, चंपा ! चेप टूटतोडै नै। फूंक दूखतै फो. रै दै, सींच सूखतोडै नै ॥३७।।
सज्जन कम संसार मै, दुर्जन घणा दिमाग । हंसू चादर पर हतक, लाग न ज्यावै दाग ॥३८॥
थारी म्हारी उतरती, कर दै प्रीत तुडाय । उडज्या कुबधी काकलो, राजहंस फसज्याय ।।३।।
कण नै तूं मण मानलै, साहस राख संभाल । हंसू काढ़े हिम्मती, पाणी फोड़ पताल ।।।४०॥
कच्चै पक्कै आपरै, घर री हुवै न होड । ओरां री महलायतां, फिरणूं हंसू जोड ।।४।।
वीसा बरसा रो बण्यो, बड़लो जावै टूट । अंकूरै री आश कद, 'चंपक' रहे अखूट ॥४२।।
हाकम देतां हकम तूं जरां भांपलै भाव । 'चंपक' बोही चिमकसी, जिणरै गहरो घाव ॥४३॥
'चंपक' चिन्तन चिंतकां, करो समय समझाय । नुआं मकान बणे नहीं, जूनां ढहता जाय ।।४४।।
सहण री सगती हुवै, तो कर हंसी मजाक । चंपक' जो सुण नहिं सकै, तो जबान बस राख ।।४५।।
१३६ आसीस
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मन देखे जद ही करै, 'चंपक' हसी विनोद । सुण विरोध-प्रतिशोध रो, तूं खाडो मत खोद ।।४६।।
कहणी कदे न काम की, खाण-पाण असुहाण । 'चंपक' निकले चित्त नै, चीर बचन को बाण ॥४७॥
फुटकर फूल १३७
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सोलह सतियां (क्रमशः)
रामायण छन्द
ब्राह्मी' और सुन्दरी' कौशल्याजी' सीता' राजमती । कुन्ती' द्रुपद-सुता चन्दनबाला महारानी मृगावती । चतुर-चेलना प्रभावती' दीपती-सुभद्रा'२ दमयन्ती"। सुलसा" शिवा५ सोलवीं पद्मावती" सती शुभ जयवन्ती ॥१॥
चतुवशिति-स्तव (लोगस्स) के आधार पर
पैंसठियो यन्त्र
दोहा
श्री नेमी संभव' सुविधि, धर्म५ शान्ति स्वयमेव । अनन्त" मुनि सुव्रत नमी", अजित' चन्द्रप्रभ देव ॥१॥ ऋषभ' सुपारस विमल" मलि", पुष्प५ अंक पच्चीस । अरह वीर सुमति पदम', वासुपुज्य जगदीश ॥२॥ श्री शीतल' श्रेयांस" जिन, कुन्थु" पाम भव-सेतु । अभिनन्दन वन्दन कर, 'चंपक' मंगल हेतु ॥३॥
१३८ आसीस
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सात बात से एक जवाब
मनोहर- छन्द
एकरस्यां मोहन पे, गोप्यां मिल आई सात । एक साथ बोली, मांगें पूरी करवाइये । कविता सुणाओ नाथ ! कुश्ती दिखाओ' द्वार बन्द कर आओ', ब्याह मेरो रचाइये । कहो जी ! गुजरियों को गो-रस क्यूं लूट्यो आप' । घूमन की इच्छा, एक रथ तो मंगाइये । उबराणे फिरते क्यों ? 'चंपक' चकोर होके । 'जोरी नां' कहे कृष्ण, करूं क्या बताइये ॥ १ ॥
१. कविता - जोड़ी नहीं ।
२. कुश्ती कैसे लड़ ? –- पहलवान जोड़ी का नहीं ।
३. द्वार बंद तो करूं - पर किवाड़ों की जोड़ी नहीं ।
४. विवाह के लिए जोड़ीदार -बराबर का वर कहां है ?
५. जोरी दावे थोड़ा ही लूटा था ?
६. रथ के लिए बैलों की जोड़ी चाहिए, वह नहीं है ।
७. जूतों की जोड़ी नहीं है क्या करूं ? नंगे पांव फिरना पड़ता है ।
फुटकर - फूल
१३६
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पचक्खाण-निर्णय-विधि
रामायण-छन्द
एक कोटि इक भांगो रोकै, दोय कोटि स्यूं तीन रुकै, तीन कोटि मै सात रुकैला, चार कोटि मै नौ ठबकै । पांच कोटि मै तेरह गिणज्यो, छव मै रुकै भंग इकवीस, सात कोटि मै रुकै पचीसी, आठ कोटि रोके तेतीस । नव कोटि पचखाण करै तो, सगला भांगा रुक ज्यावै, करण-जोग रो लेखो भिन भिन, 'चम्पक' स्याणां समझावै ॥१॥
करण-जोग-कोटि भांगा रुके आंक ११-१२-१३ २१-२२-२३ ३१-३२-३३ १४१=१
१ x x x x x x x x १४२-२
२ १ x x x x x x x १४३=३
३ - ३ -१ XXX XXX २४१=४
४. ३. १ १ x
१ x
५ - ४ - १ २- १. x x x x २४३=६
६-६ - २ ३- ३-१ XXX ३४१७
७ - ६ - २ ५- ३-१ १xx ३४२-८
६-७ - २ ७- ५-१ २- १-X ३४३=8
६-६-३ ६-६-३ ३-३- १
२x२=५
१४० आसीस .
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महाव्रतां रा २२५ भांगा
करण जोग स्यूं कर गुणां थावर पांचां संग। पंचेन्द्रिय विकलेन्द्रियां प्रथम इक्यासी भंग ॥१॥ क्रोध, लोभ, भय, हास्य स्यूं नवगुण कर नतशीस । दूजे महाव्रत रा बणै औ भांगा छत्तीस ॥२॥ अप्पं बहुवं अणुथुलं चित्त अचित्तमतान्त। तीजै महाव्रत रा बणे भांगा चोपन शान्त ।।३।। सप्त वीस चोथे गुणो देव मिनख तिर्यंच । मिश्र अचित्त सचित्त स्यूं करो पांचवें संच ॥४॥
५४ २७-२७ इक्यासी छत्तीस मिलाल्यो चोपन दो सतवीस ।
२५
'चम्पक' भांगा महाव्रतां रा मैं दो सौ पच्चीस ।।५।।
चौबीस तीर्थकरां री पहचाण
गीतक
वृषभ' हाथी' अश्व' बन्दर क्रोच' कमल' रु स्वस्तिक', शशि मगर' श्रीवत्स गेंडो" महिष शूकर" श्येनक"। वज्र" मृग अज" और नंद्यावर्त कलश" रु कूर्म" स्यूं, नील-उत्पल" शंख फणधर सिंह" चीन्हों मर्म स्यूं ॥१॥
फुटकर फूल
१४१
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घासो-गोली
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स्वस्थ अगर रहणो हुवै, 'चम्पक' कहणो मान । हित-मित पथ्याहार रो, सन्तां राखो ध्यान ॥ १ ॥
टाली - टाली मत करो, सब रस मांगे देह | सन्तां ! उदर उणोदरी, राखो निःसन्देह || २ ||
'चम्पक' नियमित घूमणो, आसण प्राणायाम । एक हवा सौ दवा रो, सन्तां ! करसी काम || ३ ||
रोग, बैर विष बेल है, कहणं मैं के लाज ? घासै - गोली रो करो, सन्तां ! प्रथम इलाज ॥४॥
अजीरण हु तो
अगर अजीरण रो बहम, पीओ निरणो पाणी । उत्तम औषध अपच रो, संतां ! ऋषि-जन बाणी ॥ ५ ॥
लै घासो घस सूंठ मै, काली नमक डली । 'चम्पा' ! सट कर नहीं तर, खटकै अली सली ॥६॥
जीव दोरो हुवै तो
जीव दोरो होवै जरां, दोय लूंग ले चाव । 'चम्पक' अन्तर आग आ रूई मै मत दाब ||७||
इमरत-धारा अधिकतर, सुलभ मिलै सब ठोड़ 1 च्यार बूंद ले क्यूं करै, 'चम्पा' ! भाजा-दोड़ ॥८॥
घासो- गोली
१.४.५
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कबजी हुवै तो
इसब गोल हरडै नमक, ल्यो जो हो अनुकूल । कब्ज रोग रो मूल है सन्तां ! करो न भूल ॥६॥
पेट-दर्द
पेट-दर्द असह्य तो, सांभर घी मै सांध। द्यो समाधि झटपट हुवै, सन्तां ! धीरज बांध ॥१०॥
आधो हलदी-गांठियो, रगड़ छाछ मै चाटै। असर तुरत 'चम्पक' कर पेट-दर्द नै दाटै॥११॥
आधण सरिखो गरम जल, कप भर ल्यो मुनिराय । घोल चमच चीणी पिओ, पेट आफरो जाय ॥१२॥
छव मासा भर सुंठ मै, मासो कालो लूण। उदर शूल में फाकतां, इन्जेक्सन सो सूंण ।।१३।।
संठ मिरच इक इक पिपल, साजी जरा मिलाय । घस तातै जल स्यूं पि, पेट-शूल मिट ज्याय ॥१४॥
बादी-गेस
सुंठ रेत मै सिकी हुवे, कालो नमक मिलाय। दो दो रत्ती भातरा, गेस पेट रो जाय ॥१५॥
धणियै री गूली दुणी मिसरी जीम्यां वाद। फाकी लेलै गेस हर 'चम्पा' ! छोड़ प्रमाद ।।१६।।
पीपल १ लंग १ सोडो मिठो, चमठी पीपरमेन्ट । लै भोजन के बाद मै, गेस मिटै अरजेन्ट ॥१७॥
आंव में
सौंफ झूठ छीपा हरड, मिसरी तिणी मिलाय । फाकी आठाना भरी, आंव पुराणी जाय ॥१८॥
१४६ आसीस
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भूनेड़ी जोहरड़ अरु, चीणी तिन-तिन मासा। फाकै नित दोन्यू वगत, जावै आंव अकाशां ॥१६॥
लस्सी कच्चे दूध री, तज मासा भर लेवै। 'चम्पा' ! अजमा आंव मै, खून बन्द कर देवै ॥२०॥
तिन-तिन मासा चिणी मै अमचर फाक पी पाणी। हफ्ते भर दिनगै-सिंज्या, विचै सूफ नहिं खाणी ॥२१॥
पइस भर छोटी दुधी, पाव दही में लेवै। तीन दिनां तक रोज तो, आंव नांव नहिं रेवै ॥२२॥
खूनी उलटी-दस्त मै
पांच नीम रा पानड़ा, गोल मिरच ल्यो दोय । घासो उलटी दस्त मै, खून बन्ध झट होय ॥२३॥ 'चम्पा' ! कप भर चाय मै, चम्मच भर घी घाल । पायां खूनी दस्त रो, सरल इलाज कमाल ॥२४॥
दांत-दर्द मै
दांत सुरक्षित राखणां, तो अंगुली स्यूं खूब । रगड़ मसूड़ा दस मिनट, नित 'चम्पा' ! मत ऊब ।।२५।।
दांत दरद ज्यादा कर (तो) हलदी मसलो भाई । दाबो कपूर कांकरी (या) हींग सुसरल दुवाई ॥२६॥
तीन लूंग नीम्बू रै रस मैं, पीस दांत पर मसलो। दर्द मिटै 'चम्पक' हो ज्वावै, झट हल मसलो सगलो ॥२७॥
'चम्पा' ! दांतां पर मसल रोज तिली रो तेल । मुंह बंदकर, झार्यो छुटै पायरिया स्यूं गेल ॥२८॥
दांत कढ़ायां नहिं हवे, कदाच लोही बन्द । फूओ कडवै तैल रो, दाबो कै आनन्द ॥२६॥
घासो-गोली १४७
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आंख की दुवाई
कानां री किट्टी तथा, उठतां वासी थूक । सन्तां ! घालो आंख मै, अंजन अजब अचूक ।।३०॥
चम्पा पड़ज्या पितरडो, गुडनै जरा तपा'र'। एक आंगली आंज कर, बाकी बांधो वार ॥३१॥
नाक री फुणसी पर
फुणसी निकलै नाक पर, टीकी द्यो घिस लूंग। अथवा काली मिरच की, भूल तैल मत सूंघ ।।३२॥
हो ज्यावै रूं-तोडियो फुणसी उठे विषेली। रगड़ अफीम लगाय द्यो, संता ! सारां पेली ॥३३॥
ताव-बुखार, शरदी-जुखाम
ज्वर नै भूखी राखणी जुखाम पथ्याहार । मांगै सन्तां ! मानल्यो, नेक सलाह सुखकार ॥३४॥
ताती मिसरी चाबकर, गरम उदग पी त्याग । करो सांझ का सन्त जन, शरदी जासी भाग ।।३।।
लंग सुंठ अजवाण ल्यो, पीपल तुलसी पत्र । घाल लूंण पंच मेल को, घासो बड़ो विचित्र ॥३६।।
दीपन पाचन ज्वर-हरण, दोष-शमन हित दोय । गोलीद्यो संजीवनी, काया कंचन होय ॥३७।।
बीस पीस काली मिरच, काढ़े विधि उपरान्त । छांण, ठार, पीवै कट, मलेरिया री रान्त ।।३८॥
१. एक बूंद नींबू रस मिलाकर ।
१४८ आसीस
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दूखे छाती पासल्यां, दो मुनका कर साफ । हींग दो रती घालद्यो, सावल अपणै आप || ३६ || राख पुराण बोरै री, दो रत्ती शहद मिलाय । चाटै मलेरिया एकान्तर, चोथ तेजरो जाय ॥ ४० ॥
खासी
खांड फिटकड़ी रो फूल्यो द्यो जलस्यूं औषधि सेहली । दो-दो घंटा स्यूं दो पुड़ियां बुखार चढ़ियां पेहली ॥ ४१ ॥
गलै रो इलाज
शरदी स्यूं दूखै गलो, उन्हे जल रै साथ । करो गिरारा लूंण का, सन्तां ! मानो बात ॥४२॥
गरमी स्यूं सूकै गलो, चिपज्यावै जो कंठ । ठंडे पाणी स्यूं करो, कुरला तज अंट-संट ||४३||
करो गरारा हींग रा, जो होवै स्वर-भंग । मिटै खरखरी गलै री, कवोष्ण जल र संग || ४४ ||
कफ रो हुवै प्रकोप तो, जरा फिटकड़ी घोल । करो गारगल कफ झड़ै, जय- भिक्षु की बोल ||४५ ||
तैल गुणगुणो तिली रो जको कान मैं घालै । चमत्कार बो गलै रा टोन्सल, सुजन मिटाले ॥ ४६ ॥
त्यो अरहर की दाल रो थोड़ो उबल्यो पाणी । करो गरारा मुनिजनां ! जो टोन्सल सुजन मिटाणी ॥४७॥
च्यार-पांच काली मिरच डली लूंग की न्हांक । चाबो पाणी मत पिओ, खासी जाय चटाक ||४८ ||
रगड़ व्यार पिस्ता मियां, चाटै शहत मिलाय । सूखो कफ खलकै तुरत, 'चम्पक' त्यो अजमाय ॥ ४६ ॥
घासो - गोली १४६
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सिर-दर्द
छोटी सीसी मै भरो, पीस हींग बारीक । सूंघाओ सिर-दर्द झट, होसी सन्तां ! ठीक ।।५।।
सूखा तुलसी-पत्र ल्या, पीस छांण द्यो नास । पांच मिनट मैं सिर-दरद, मिटै करो विश्वास ॥५१।।
बे-हिसाब माथो दुखै (तो) पीपल जल में पीस । छांण नाक मैं बूंद दो सूंघो, ऊठ चीस ॥५२॥
झलझलाट लागै घणो (पण) पीड़ा करसी कूच । चम्पा अजमाइश सुदा, मणि-मुनि नै ल्यो पूछ ।।५३।।
सात विदामा एकमिर, इक इलायची घोट । सिता मिला चाट्यां मिट, सिर की शूल सचोट ॥५४॥
मधु-मेह
रस गिलोय चम्मच भर्यो, चमच्यो शहत मिलाय । चाटै रोजीनां सुबह, (तो) सब प्रमेह मिट ज्याय ॥५५॥
शहद आंवला-रस हलद, कर समभाग प्रयोग । चम्मच भर दोन्यूं वगत, मिटै प्रमेयज-रोग ॥५६॥
सत गिलोय, आंवला, हलद सम चम्मच भर फाक । जल स्यूं गिट, भोजन करै शूगर मिटै सटाक ॥५७।।
'चम्पा' ! चोआनी भरी लै बूंटी गुडमार।। स्वरस करेलै रो मिला (तो) शुगर समुद्रां-पार ॥५८।।
सांधां रो दरद (गठिया-वात)
चीड़ भेड रो बीस ग्राम ले सुबह बीस ही सिंज्या । सात दिनां से सांधा खुलज्या 'चम्पक' धीज पतीज्या ॥५॥
१५० आसीस
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लकबै री शन्यता पर
दस पन्द्रह काली मिरच, घी मै घिस बारीक । लकबै पर मालिस करै (तो) सात दिनां मै ठीक ॥६०॥
धासो-गोली १५१
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यादगारां
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मुनि राजमलजी (आत्मा) नै सीख
अजी! राजमल जी कियां? चाल्या इयां अबोल ? 'चम्पक' मिनटां मै कऱ्यां, थे तो बिस्तर गोल ।।१।।
जाता-जातां सीख ल्यो, अणसण-रोली घोल। 'चम्पक' तिलक करै चतुर ! जमग्यो रंग जसोल ॥२॥
२०२१ चेत वदी ५
जसोल
यदिगरि १५५
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गणेशमलजी स्वामी (जसोल) की स्मृति में
सोरठा
गहरो गुणी गणेश, गलै सुदी गण मै गड्यो । बल बलवान विशेष, 'चम्पक' चतुरां चित चढ्यो ॥ १ ॥
डायँ हाथ में हाथ, पकड्या दोन्यूं म्हारला । जोर लगा इक साथ, 'चम्पक' कस्यो छुड़ाण नै ||२||
पूंचा जाता टूट, जोर जाय जंबूरी छूट, स्यात्
'चम्पक' आवै याद, बो दिन बीयां को बियां। गुण गणेश साल्हाद, गणि गण रो भारी भगत ॥४॥
लगातो और जो । सिकंजो सिरकज्या ॥ ३ ॥
पूरी ही परतीत, रीत - नीत रो रांगड़ी | बरतेsो विपरीत, नहीं सुहातो संघ स्यूं ॥ ५॥
मुनि जीवण-मुलतान सेवा साझी सांतरी । भल भावी बलवान, टाली 'चम्पक' नहिं टलै ॥ ६ ॥
चढ़े सिराडै काम, जो राखँ शासण - शरण । नित गणेश रो नाम, 'चम्पक' चित चेत करे ||७||
१५६ आसीस
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रावतमलजी स्वामी की स्मृति में
सोरठा
साताकारी सन्त, समझदार स्थाणो सुघड़ | मुनिरावत मतिमन्त, साचो सेवक संघ रो ॥ १ ॥
गण-गणपति रा गीत, गौरव स्यूं गातो गुणी । निश्छल निर्मल नीत, निरतिचार निर्भय निपुण || २ ||
संयम मै सानन्द सावधान 'चम्पक' सजग | (अब) राखीजे जयचन्द !, रावत मुनि री रीन तूं ॥३॥
यादगारां १५७
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सोहन मुनि (चूरू) की स्मृति में
१५८ आसीस
दोहा
अड़ी-खंभ खूंटो खरो, गण रो खैरखवाह । टेक निभायी एक-सी, वाह ! सोहन मुनि वाह ॥ १ ॥
सेवा मुनि नगराज री, और छत्र रो त्याग । ari हाथां गया, (ओ) सोहन रो सोभाग || २ ||
थां सरिखो शासण भगत विरलो, कवि बे-जोड़ । पलक इशारे परखतो, मंत्री-मुनि री मोड़ || ३ ||
वाह रे वाह थांरो विनय, भक्ति मान-मनुहार । सोहन मुनि-सा समर्पित लाखां में दो चार ॥४॥
'चम्पक' चित्त चितारसी, जदकद ल्हसण - प्याज । सोहन ! सम्वत सात है, आंख्यां सामै आज || ५ ||
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सहिष्णुता की प्रतिमूर्ति, साध्वीप्रमुखा, महासती लाडांजी की पुण्य स्मृति में
दोहा
खरी कुशल खेमंकरी, खटी न खामी लाडां 'दीपां' दूसरी, हथणी की
दीपक लाडां दीपती, दीदारु चम्प ! चरुडो च्यानणो, पटुता प्रीत
सी
खेह ।
बिज्जल बंकी बेनड़ी, निर्मल 'चम्पक' आज चली गयी, मैं समरूं
देह ॥ १ ॥
दाठीक |
कला - कुशल कोमल कमल, पद की रंच न पीक । 'चम्पक' ! राखण चोकसी, लाडां तजी न लीक ॥३॥
प्रतीक ॥२॥
धीरी धरणीधर जिसी, सरल स्वभावी शान्त । शुभ चिन्तन 'चम्पक' सतत, बणी न लाडां भ्रान्त ॥४॥
शासण नै सुगणी सती, दीन्हो अपणो भोग । 'चम्पक' अब चेत करें, लाडां नै सब लोग ॥५॥
शिक्षा - प्रिय, सेवा सजग, सहिष्णुता संस्कार । मातृ-हृदय स्याणी सदय, सती सिरे सरदार ॥ ६ ॥
शासण - नैण |
दिन - रैणं ॥ ७ ॥
यादगारां १५६
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साध्वी रतनाजी (राजलदेसर) की स्मृति मै (२०२५, भाद्रपद, कृष्णा १३, चूरू)
सोरठा
वाह ! रतनाजी ! वाह !, करी फतह रण-खेत में। 'चम्पक' री चित चाह, लाख-लाख शाबास ल्यो॥१॥
रतनां रतन अमोल, शासण मै स्याणी सती। गम्यो न गाला-गोल, साफ कह्यो खुल्लो सुण्यो ॥२॥
दष्टि धण्यां री देख, पेहलां, पग धरती पर्छ। राखी रतनां रेख, आखी अणियां एक-सी ॥३॥
हित री हक री बात, कहतां रतनां कद चुकी। सुस्ताती नहिं स्यात्, करी न कोई री गई ।।४।।
सेवाकरण सचेष्ट, गिण्यो न छायां धूप नै । सागी मां-सी श्रेष्ठ, रतनां रोगी-ग्लान री॥५॥
चतर हाथ री आम, रतनां रंग-रोगान मै। इस्यो-विस्यो कोई काम, दाय न आतो देखतां ॥६॥
'चम्पक' नित अविवाद, पथ-त्यावण घासो घसण। आसी रतनां याद, सांधण टूटी पातरी ॥७॥
१६० आसीस
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आशुकवि सोहनलाल सेठिया (सरदारशहर) के प्रति
स्याणो सोहन सेठियो, समझदार समयज्ञ। शासण र इतिहास रो, संग्राहक मर्मज्ञ ॥१॥
मालचन्द जी रा मिल्या, शुभ सात्विक संस्कार। विमल विवेकी विज्ञ वर, गहर गंभीर विचार ।।२।।
अन्तरंग-पार्षद असल, विधि-वेत्ता विश्वस्त । टाबर होकर ठिमर-सा, लिखतो पत्र प्रशस्त ॥३॥
आंख इशारे ओलखतो, आशय इंगियागार। अति उपयोगी आशु-कवि, उद्यमशील उदार ॥४॥
बिनय मढ़ी, बोली बडी, घड़ी बुद्धि बजराट । जुड़ी-कड़ी सोहन श्रमण-सागर की गधाट ॥५॥
आस्था गणि-गण री सुदृढ़ श्रद्धावान सुभाष । स्मरण-शक्ति अद्भुत उपज, अहं न आयो पास ॥६॥
वर्तन चिन्तन कथन हो, अनुशीलन अनुरूप । 'चम्पक' सोहन चमकग्यो, श्रावकता रो स्तूप ॥७॥
यादगार १६१
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प्रचलिया सुगनू बाबू की याद में
दोहा
भद्र - पुरुष, भाविक भलो भातृ-भक्ति भरपूर । भीतर भीरु, भुज-बली, छल-बल-दल स्यूं दूर ॥ १ ॥
शासण रो सेवक सुघड़, सभ्य, शील-संगीन । शान्त स्वभावी, सन्त-सो, सुगनचन्द शालीन ||२||
पग-पग रस्तो नापतो, यात्रावां रो रूप । साताकारी सांतरी, गिणी न छायां
धूप ॥ ३ ॥
बंगाली - बाबू जिसो, बण्यो बणायो वेश । काली कांबल इकपखी, विनयी विज्ञ विशेष || ४ ||
नफरत झंझट-झूठ स्यूं, गम्यो न वाद-विवाद | आंचलियै री आसथा, 'चम्पक' आसी याद ||५||
१६२ आसीस
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सेठ भंवरलाल दूगड़ की याद में
दोहा
विज्ञ, विवेकी, वैद्य बो, धीर, वीर, गंभीर । माखण ज्यूं पिघलत हियो, परख पराई पीर ॥१॥
दरद्यां पर दिल री दया, रोग्यां रो हो राम। दुखियां री 'भंवरू' दवा, थाक्यां रो विश्राम ॥२॥
जाणकार जस हाथ मै, निरधनियां स्यूं नेह । गिणी न आधी-पाछली, 'भंवरू' आंधी-मेह ॥३॥
सेठां रै घर रो रह्यो, रजवाड़ी सम्मान। (पर) 'भंवरू' मै देख्यो नहिं, दर मै मान-गुमान ॥४॥
सीधो-सादो संजमी, सन्त-सत्यां रो दास । सोनो 'चम्पक' सोलवू, 'भंवरू' रो विश्वास ॥५॥
फुलड़ां पर भंवरा फिरै, फिर्या भंवर पर फूल । विधना ओ के बे-बगत, करगी ऊल-पंचूल ।।६।।
सेठां ! अब सेंठा रयो, सगला कहै समझाय। (पर) 'चम्पक' चतुरां चित चढ्यो, 'भंवर' न भूल्यो जाय ॥७॥
यादगारां १६३
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मोहनलालजी खटेड़ (लाडणू) की याद में
बोहा
भाई मोहनलालजी, श्रावक कर अनशन-आराधना, कीन्हो
उभय पक्ष निर्मल कर्यो, पायो जन्म प्रमाण । ज्ञान-ध्यान स्वाध्याय मैं रहता आगेवाण ॥ २ ॥
सुघड़ सुजाण । स्वर्ग - प्रयाण ॥ १॥
7
कहता कम, सुणता घणी करता जुगती जाण । थोडे में सलटावता, तज मन खींचा ताण ॥ ३॥
हमदर्दी हृद हिम्मती, सुविवेकी दाठीक | लल्ले-चप्पे स्यूं पर, वर निस्पृह निर्भीक ॥४॥
कहणं री मुंह कही, बण कर बे-परवाह । हि कहरी अन्त तक, कहो कुण पायो थाह ॥५॥
सलाह लेवता सैकडां, देता हित-मित सीख । भारी चिड़ ही झूठ स्यूं, गिण्यो न दूर नजीक || ६ ||
नित निर्मल करणी करी, स्वाभिमान युत नेक । 'चम्पक' भाई सैकड़ों (पर) मोहन-सा कोइ एक ॥७॥
१६४ आसीस
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हणूतम लजी सुराणा (चूरू) के प्रति
दोहा
हाजर सेठ हणूतमल, हरदम शासण हेत। सब स्यूं ऊपर समझतो, सदा सुगुरु संकेत ॥१॥
संघ-द्रोही स्यूं स्वप्न मै, भी नहिं मिलती रूह। गण-गणि री गमती नहीं, चम्पक ऊह-पचूह ॥२॥
'चम्पक' बो जलम्यो नहीं, रुकण झुकण री रात। टाली कदे न टेम पर, सेठाणी री बात ॥३॥
आदर' गे फादर अवल, संत-सत्यां रो भक्त । 'चम्पक' कदे न चूकतो, वक्त व्यक्त अव्यक्त ॥४॥
जी-सा सुणतां झिझकतो, 'अम्मापिउ' समाण । दृढ़-धर्मी चम्पक' खरो, (वो) दिया ठिकाणे प्राण ॥५॥
१. आदर्श साहित्य-संघ ।
यादगारी १६५
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दफ्तरी जयचन्दलालजी की याद में
दोहा
स्याणो शासण भक्त, हद हो हाथी हिम्मती। हमदर्दी हर वक्त, दुःखदर्दी को दफ्तरी ।।१।।
निस्संकिय निर्भीक, काम करावण कलकुशल । धीर-धुनी दाठीक, 'चम्पक' तेजस्वी चतुर ॥२॥
१६६ असीस
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पद्यात्मक पत्र
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पत्र संख्या ३
भीनासर वि० सं० २००० मिगसर सुदी ११
दोहा
हृदय-कमल विकसावसी, देख्यां तुझ मुख भान । आनन्द अनुपम जे हुसी, ते जाण भगवान ॥१॥
परम पूज्य महाराज रै, श्री चरणां अनुरक्त । सुखसाता पूछ सुखद, बड़बंधव विधियुक्त ॥२॥
देव सुमंगल दृष्टि स्यूं, बहुत-बहुत आनन्द। वरतै, चाहूं आप री, करुणा वदना-नन्द ! ॥३॥
वत्सलता चिरंकाल तक, चावै है श्री-संघ । पावो जग मै जय-विजय, पग-पग पर रस-रंग ॥४॥
भ्रात ! बाट आगमन की, देखू मै दिन-रैन । सुख-संवाद सुण्यां हुवै, चित मैं 'चम्पक' चैन ॥५॥
भक्ति-पत्र के रूप मै, भेजूं दूहा पांच । आंख पांख 'चम्पक' तुंही, तुंहि चूगो तुंहि चांच ॥६॥
पद्यात्मक पत्र १६६
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पत्र संख्या ५
बम्बई
२०११ माघ सुदी १५
दोहा
भव्य ! मातृदेवो भव, आप्त वाक्य अनुसार । मात-चरण 'चम्पक' करै, वन्दन सौ-सौ-बार ॥१॥
स्वस्ती श्री गुरुदेव के, पग-पग जय-जयकार । जन-मनहारी स्वाम के, जग-जस अपरम्पार ॥२॥
बड़भागी गुरुदेव के, चिंहु दिशि रेलम्पेल । दिन दूणी निशि चौगुणी, बधै संघ री बेल ॥३॥
मन प्रसन्न गुरुदेव को, सुन्दर स्वास्थ्य विशेष । चित चिन्ता करज्यो मती, यद्यपि बास विदेश ।।४।।
सोरठा
सब शहरां शिरमोड़, मुम्बई सागी मोहमयी। सुन्दरता बे-जोड़, निवसै लोग सुसभ्य-सा ॥५॥
प्रकृति देही धार, मानो भू-पर ऊतरी। इत जल जलाकार, इत पहाड़ ऊंचा हा ॥६॥ दरियो करै किलोल, चढे उछाला खावतो।
करतो घोल-मथोल, टोलां स्यूं टकरावतो॥७॥ १७० आसीस
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बम्बई रै अनुरूप, होयो पुज्य पधारणो। लोकां पण धर चूंप, लाहो सेवा रो लियो ॥८॥
बण्या घणां प्रोग्राम, देख्यां जी-सोरो हवै। माह-मोच्छव रो काम, सारां मै हद लेयग्यो ॥६॥
ही सगली तजबीज (पण) कमी आपरी खटकती। मंजुल मूर्ति घणीज, रह-रह चेतै आंवती ॥१०॥
अनुभव ही अनुमान, प्रख्याती मै के कहूं?। लारै फिरै निधान, होणहार पुण्यवान कै ॥११॥
श्री गुरुराज प्रताप, सुखसाता वरत अठ। माजी ! घणीज आप, चित्त-समाधी राखज्यो ॥१२॥
करज्यो पर-उपकार, विचर-विचर गांवां नगर । भगर सखर सुखकार, सदा स्वास्थ्य री साधना ॥१३॥
वृद्धावस्था पेख, सेवा रो लाहो लियो। ओरुं अवसर देख, धणी घणी करसी कृपा ॥१४॥
करो सतत स्वाध्याय, आं थांरै अनुरूप है। जीवन सफल गिणाय (जद) मै भी करस्यूं अनुकरण ॥१५॥
इण ऊमर रै माह, ओ साहस, संयम-निमल । राखो मन उत्साह, धन्य-धन्य है आपनै ।।१६॥
विरह असह्य अवश्य, (पण) अछो वीरमाता तुम्हे। समझो सकल रहस्य, गाढ़ घणेरो राखज्यो ।।१७।।
ले म्हारो अभिधान, थे सुखसाता पूछज्यो। सतियां सहु गणवान, सब नै सोहरा राखज्यो॥१८॥
समाचार सुखकार, सुणां घणां लोगां कनै । हुवै हर्ष अणपार, (पण) म्हांनै चेतै राखज्यो॥१६॥
पद्यात्मक पत्र १७१
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सकल कुशल संवाद, थारै ही परताप स्यूं। फिर-फिर आवै याद, साद सुवत्सलता मर्या ॥२०॥
माजी! कृपा विशेष, बणी सवाई नित रहै। बातां से अवशेष, मिल्यां कहण रा भाव है ॥२१॥
मातृ-भक्त अनन्य, 'चम्पक' चित चरणां वसै । वो दिन ऊगै धन्य, जद मिलणो होसी सुखद ॥२२॥
दोहा तत्रस्थित सतियां भणी, वंचे चम्पक रेस । सुखसाता सब राखज्यो, हिलमिल हेत विशेष ॥२३॥ समझदार नै है सदा, घणो इशारो एक । जाझी सेवा साझज्यो, जागृत राख विवेक ॥२४॥
सत्यां ! ज्यादा के लिखू, सो बातां इक बात। माजी मन राजी रहै, ज्यूं करज्यो सहु साथ ।।२५।।
सोरठा
श्रमण रु हंस गुलाब, हीरो मणी वसन्त युत । सविनय आदर-भाव, पूछ सुखसाता प्रगट ॥२६॥
स्वीकृत करो प्रणाम, अन्तर आशिर्वाद द्यो। आवां गण-गणि काम, चम्पक' म्हे चित चाव स्यूं ॥२७।।
१७३ आसीस
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पत्र-संख्या ६
सरदारशहर २०१६ फागण वदी ८
दोहा स्वस्ति श्री मातेश्वरी !, सुखपृच्छा साल्हाद । खिण-खिण आवै आपरी, म्हां सगलां नै याद ॥१॥
म्हे सगला सकुशल अठ, श्री गुरुदेव प्रसाद । शिघ्र मिलेला आपनै, गुरु-दर्शण रो स्वाद ॥२॥
सफल सुफल यात्रा करी, जावां माजी पास । म्हां सगलां रै चित्त मै, है अधिको उल्लास ।।३॥
चढ़यो शिखर गण आपणो, भारी बढ्यो विकास। जुग-जुग जावेला पढ्यो, (ओ) यात्रा रो इतिहास॥४॥ विजय हवै जावै जठ, बधै घणो सम्मान । पुण्यवान गुरुदेव रै, पग-पग प्रगट निधान ।।५।। संयम सफलो आपरो, वरते है शुभ-योग। आही म्हारी कामना, रहिज्यो सदा निरोग ॥६॥ सेवा मै जो साधव्यां, सुख-पृच्छा सविधान । माजी ज्यूं राजी रहै, सगला राख्या ध्यान ॥७॥
पुण्याई दिन-दिन बधो, माजी! वय रै साथ। 'चम्पक' अब मिलस्या जणां, करस्या सारी बात ।।८।।
पद्यात्मक पत्र १७३
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सब सन्ता री तरफ स्यूं, सुखसाता सह हर्ष 1 तुलसी - शासण मै तपो, माताजी सौ वर्ष ॥ ६ ॥
जस, मिलाप, मोहन, पिथू, सम्पत, मणी, महेश । सागर रूप वसन्त की, सुख-पृच्छा सुविशेष ॥ १० ॥
माजी ! गुरुकुलवास ओ, सेवा से संयोग । बगसावो गुरु महर कर, यात्रा रो शुभ योग ॥ ११ ॥
माताजी ! म्हां पर धण्यां, करी घणी धणियाप । म्हे सगला सकुशल अठ, थांरै ही परताप ॥ १२ ॥
१७४ आसीस
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दोहा
म्हे तो चिकमंगलोर में थे वीदासर ठीक । दूरी 'चम्पक' देह पर, अन्तर अति नजदीक ॥ १॥
पत्र संख्या ३० २०२५ प्रथम आषाढ़ वदी २ २ जून १९६६
मन में आवे उड मिलूं, पगां हुवै जो पांख । है ? क्यूं ? क्यूं नहि मिटै, झट ल्यूं 'चम्पक' झांक || २ ||
राजरूप जी री रही, रंग रजवाड़ी चाल । 'चम्पक' झूमर कुल कला, लाड ! लाडली - लाल ||३||
वदना - मां री बहुमुखी, ढली जु छव भायां री छवि मयी ( तूं ) लाड
!
धीरज ढाल ।
लाडली - लाल ॥४॥
सिंह पुरुष 'चम्पक' चतुर, माहवत मोहनलाल । बीं भाई री बैन तूं, लाड ! लाडली - लाल ॥५॥
कोठारी करड़ै मतै, नीतिमान ननिहाल । बैद सुनहली कुल - बधू ( तूं ) लाड ! लाडली लाल ॥ ६ ॥
संयम लीन्हो सिंह ज्यू, ठेट निभायी टेक | 'चम्पक' चेतै राखज्ये, रण - रजपूती रेख ॥७॥
अधिकारी पद मैं अखी, सारी शासण - सेव । निरतिचार 'चम्पक' निमल, अलगो रख अहमेव ॥ ८ ॥
पद्यात्मक पत्र
१७५
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शासण भिक्षु स्वाम रो, मिलियो मोट भाग। तुलसी-सो नायक तरुण, 'चम्पक' चैन चिराग ॥६॥
कहै 'चम्पक' सुण बहन ! कद, टलै आखिरी टेम। प्राप्त करी पंडित-मरण, कुशल-खेम बण हेम ॥१०॥
रोग असाध्य शरीर मै, समता युत खुशहाल । 'चम्पक' शतमुख जन कहै, (आ) लाडां करै कमाल ॥११॥
सहनशीलता सजगता, रत स्वाध्याय पुनीत । आ अंतिम आराधना (थे) रह्या जमारो जीत ॥१२॥
पर माजी रो बांधज्यो, सुदृढ़ धीरज बांध । लाखीणी लाडां बणै, चमकै 'चम्पक' चांद ॥१३॥
आज्ञा अनुशासन-कुशल, वर वात्सल्य अगाध । सुगणी स्याणी सति करै, अब लाडां नै याद ॥१४॥
आस-पास होतो अगर, (तो) दिखलातो दो हाथ । 'चम्पक' सेवा साझ तो, बणा अनोखी बात ॥१५॥
अब लाडां! मोको निरख, खांप दिखाजे खंग। 'चम्पक' तूं मत चूकजे, राजपूतण ! रण-रंग ॥१६॥
१७६ आसीस
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पत्र संख्या ३३
बैंगलूर २०२६ भादवासुदी ११/१२
दोहा
तन-बल ज्यूं-ज्यूं तनु हुवे, मन-बल कै मजबूत । काची नहिं ताकै कदे, सूरा सिंह सपूत ॥१॥ रांगड-रण. मै रत रहै, रढ़ियालो रजपूत । जुग-जुग रेहसी जींवती, लाडां! सबल सपूत ॥२॥
साहस लाडां रो सुणं, तो पौरुष चदै प्रचूर । मिलण री मन मै घणी, पण पैंडो अति दूर ॥३॥
पद्यात्मक पत्र १७७
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पत्र-संख्या ३५
वैगलूर २३-१०-१९६६ २०२६ आसोजसुदी १३
दोहा
जयवन्तो शासन जबर, अति उन्नत इतिहास । आपां बडभागी इसो, पायो परम प्रकाश ॥१॥
एक-एक स्यूं ही अधिक, त्यागी तपसी सन्त । पर लाडांजी लेयग्या, बाजी तंतो तंत ॥२।।
सहनशीलता वेदनां, दोन्यां विजयी बणै सहिष्णुता, लाडों
रो रो
संघर्ष । उत्कर्ष ॥३॥
गांव-गांव रा जातरी, आव दर्शण हेत । मुख-मुख स्यूं आवाज इक, लाडां बड़ी सचेत ॥४॥
वीदासर वासी सुघड़, खूब निभावै फर्ज । सुण श्री चित परसन हुयो, (जद) करी चोरड्यो अर्ज ॥५॥
पसरै संघ प्रभावना, है सगलां रो काम । 'चम्पक' जी सोरो हुवै, जद सुणूं पूर्ण आराम ॥६॥ स्वास्थ्य लाभ लाडां वरो, करो संघ री सेव । (तो) 'चम्पक' दर्शण शीघ्र ही, देसी श्री गुरुदेव ॥७॥
१७८
आसीस
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पत्र-संख्या ३६
दोहा
देव गुरु परताप स्यं, अनान्द वरतै अत्र । शुभ भगिनी भगिनी सुणो, लाडां! चम्पक पत्र ॥१॥
सकल सिद्धि दाता सुगुरु, समरूं बारम्बार । जननी रो इण जगत मै, है अनन्त उपकार ॥२॥
संस्कारी सम्यक्त्व शुभ, सुध संयम सहयोग । आत्म-साधना में अतुल, पावन मिल्यो प्रयोग ॥३॥
ओ भैक्षव-शासन अमल, लहक लीला लहर। कहो बखाणूं मै किती, माताजी की महर ॥४॥
लाता भाई-बहन रा, आपां कर्या अपार । पण संयम बिन जीव री, सरी न गरज लिगार ॥५॥
मोको अबकै ओ मिल्यो, सऱ्या मनोरथ सार। समकित चारित पुल सफल, तऱ्या सिंधु-संसार ॥६॥
जीव विभावी भाव मै, रुल्यो अनन्तो काल । सहज आत्म-दर्शण बिना, सगलो आल जंजाल ॥७॥
कर्म-वर्गणा रो कर्यो, संचय आद अनाद । उज्ज्वलता तप-निर्जरा, बणै स्वर्ण निर्खाद ।।८।।
पद्यात्मक पत्र १७६.
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१०० आसीस
अप्रमत्त लाडां रहो, खिण खिण चतुर सुजाण । वरो आत्म-आरोग्यता, करो स्व-पर- कल्याण ॥६॥
आत्म-भावना मै मगन, लगन एक अवलोय । शरीर आत्मा अलग है, दोय मिल्यां दुख होय ॥ १०॥
समतायुत स्वाध्याय में, बणो हृदय तल्लीन । करो उपक्रम जुगत स्यूं, बणै विरूप विलीन ॥ ११ ॥
आत्म स्वरूपोदय हुवै, निखरै अन्तर-नाद । भावै 'चम्पक' भावना, आत्मानन्द अगाध ।। १२ ।।
गुरु-दर्शण री चावना, हुयां करें हरवक्त 1 ( पर) भावां मैं भगवान रा, दर्शण देखें भक्त ॥ १३ ॥
वीदासर रो क्षेत्र ओ, मां-बेट्यां रो जोग । स्थाणा श्रावक श्राविका, नदी- नाव संयोग ॥ १४ ॥
सेवा में सतियां सतत, सावधान सोत्साह । भैक्षव शासण री हुवै, जग मैं यूं वाह ! वाह ।। १५ ।।
फर्ज सिर्फ पुरुषार्थ रो, होसी होवण हार । आत्म-भावना परक औ, 'चम्पक' खुला विचार ॥ १६ ॥
ज्यू- ज्यूं पैंडो काटस्यां, होस्यां त्यूं नजदीक । 'चम्पक' देव गुरु कृपा, जो होसी सो ठीक ॥ १७॥
वीदासर रा लोग मिल, मांगीलाल भी कहण में
करी अर्ज सविवेक । कमी न राखी एक ।। १८ ।।
समाचार विधि-विधि सुण्या, पर दर्शण रो जोग । आसी जद मिलणो हुसी, लाडां ! बणो निरोग ॥ १६ ॥
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पत्र संख्या ३७
नागपुर २०२७ मिगसर कृष्णाह
दोहा माजी ! म्हे महाराष्ट्र मै, पायो सुखे प्रवेश । सरकारी सम्मान स्यूं, स्वागत विधि सुविशेष ॥१॥ गण-गौरव गरिमा गहन, अतिशय धर आचार्य। सावचेत श्रावक सुघड़, कर्यो कठिनतर कार्य ॥२॥ रोज रायपुर मै रह्यो, रोलो सीता-राम। गुंडां रे हाथां गरक, तपग्यो शहर तमाम ॥३॥
रोया घणाज रोवणां, धेख्यां पोखण धेख। कृत नहिं करणै रा कर्या, दंग रह्या सब देख ॥४॥
नाच मोरियो पग निरख, नीर झरै भर नैण । पिछतावै पापी पछ, कवियां री आ कैण ॥५॥
परतख परख्यो पारखू, शासण रो सौभाग । तुलसी फौलादी पुरुष, 'चम्पक' चैन-चिराग ।।६।।
माजी ! थारी महर स्यूं, लागी लीला लहर। जय गूंज जावां जठे, आनन्द आ पहर ॥७॥ संगीना सह संतरी, पुलिस जवान ससेन । अफसर फटफटिया लियां, आगे-लारै भेन ॥८॥
पद्यात्मक पत्र १८१
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सागै यात्री सात सौ, लोऱ्या गाड्या लेण । बावन कारां मोटरां, वोलेन्टर अति सेण ॥६॥
धर कुंचा धर मंजलां, दोडां दोनूं टेम । मन मै माजी मिलण री, क्षण-क्षण कुशलै खेम ॥१०॥
सदा समाधी मै सुखे, रहै निरुज तनुरत्न । 'चम्पक' चतुर चकोर चित, प्रतिपल करो प्रयत्न ॥११॥
१८२ आसीस
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संस्मरण पदावली
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( इण अठहत्तर दूहां में अठहत्तर संस्मरण आयोडा है । वे अन्त में क्रमवार हिन्दी भाषा में दीयोडा है ।)
आपसरी मै बांटकर, खाणो सदा हाल काम आवै संन्तां !
(बै) माजी
रा
पडूं परायी भीड़ मैं, 'चम्पक' हलदी - दूधरी,
जद
(बा)
कद हुवै प्रमाद | घटना आवै याद ॥२॥
कह्यो न सदतो, रेंवतो, ( म्हारो ) तोरो चढ्यो अकास । पड़ी प्रकृति जावै कियां, सन्तां ! सोहरै सास || ३ ||
खुवार |
संस्कार ॥ १ ॥
सोचूं आज हंसी आवै, बो भी हो कुछ टाबरपण । रोयो दादोजी ₹ सागै बैकूंठी मैं बैठण | हप-हप कर चिता जली जद, पड्यो एक पलको सो । 'चम्पक' चमक्यो चित चेतना को अनुभव हलको सो ॥४॥
म्हें लड़ पड़ता शान मैं, पत्थर फेंक अजाण । अखी प्रमाण लिलाड़ मैं (ओ) 'चम्पक' पड्यो निसाण ||५||
पकड़
पूंछड़ी उंदरड़ी, मै ल्यातो मन-मोद | डर लाडांजी भाजता, बड़ता मां की गोद ॥६॥
किरचा रोज चुरावतो, लुक-छिप भर-भर मुट्ठी । ल्हापां मैं चनपट पड़ी, 'चम्पक' चोरी छूटी ॥७॥
मैं राणावजी र कुनै, डुब्यो जद उगी किरण वैराग री, मोत
कोठा मैं । दीसगी सामैं ||८||
संस्मरण पदावली १८५
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बी कूअं पडतां नै राख्यो, हाथ झाल प्रेमालू । अबे पकड़ काढ़ो तो जाणूं, रोज कहै ओ बालू ॥ ६ ॥
बालू ! हाल के बीगड्यो, कर हिम्मत अविखिन्न । मित्रता को अमिट, 'चम्पक' मांडै चिह्न ॥ १० ॥
असल
बाबू अब पास होग्या, मामाजी आई शरम, छोड दी बीड़ी, चम्पो
अपणो-सो पर दुख हुवै, चिलचट्टै स्यूं छूटगी,
कहो करणियों के करें, एक रुपैये में टली,
मार्यो तीर । खांच लकीर ॥ ११॥
जाण्यो लाड़ांजी
arरूपजी री घटी, घटना घड़गी इतिहास । इं अनित्य संसार स्यूं, 'चम्पक' बग्यो उदास || १४ ||
सन्तां ! गरज दूध री पाले, लाडणूं रो पाणी । हर मोसम मैं साताकारी, हेल्यां बड़ी सुहाणी ॥ इर्या समिति देख'र चालो, चेतावै अ कांटा । आस-पास रा गांव बसावे, लाडणूं रा भाटा ।। १५ ।।।
सीधी पट्ट्यां सांतरी, और दूध सो सन्तां ! म्हारो लाडणूं, लन्दन री
१८६ आसीस
जद बाड़ खेत ने खाय । 'चम्पक' कुसंग
समेर पूनू - सागर जस्सू - रणजीतो पेहर्या ओढ्या देव कुंवर-सा, अ बैंगाणी परिवार अनोखो देखो ! दगग- दगग रस्तो बेहव है, जाण
पेहलां - पेल । गेल ॥ १२ ॥
री
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झाड्यां ।
धोरा तप-ठरै, कट ज्यावै - ओला- बोझा बारह ही पून्यूं सुखदाई, (अं) लाडणूं री बाड्यां ॥ १७ ॥
-
हनुमान | टाबर पुनवान ॥
मन रो कोड ।
हरिसन - रोड ॥ १८ ॥
जद राम चरित्र मंडासी, गणिवर ढ़ालां फरमासी ।
बलाय ।। १३ ।।
पाणी । सहनाणी ॥ १६॥
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चम्पो भी कंठ मिलासी, मधरी तान- तान-तान । सोहन ! मुनि ! मत करो मसखरी, संत सुजान जान जान ॥ १६ ॥
तार नहीं, टेम नहि, तो ही चाल मलकती चालै,
दरब घणां, दाता घणां, (पर) अन्तराय अगवाणी । ढूंढ़ण रिषि नै राजग्रही मैं, मिल्यो न भोजन - पाणी ॥ २१ ॥
नहीं दिये मै तेल । (म्हारै ) लाडणं री रेल ॥२०॥
करुणा-धाम ।
किती कहूं कालू कृपा, कृत-मुख चम्पा ! तू उलझ्यो कठै ? (ओ) नहीं आपणो काम ||२२||
गुरु की गुरुता एक शब्द मैं ही
अनपार ।
गजब की, वत्सलता दियो, म्हारो जहर उतार ॥२३॥
सन्तां ! शासण मैं सदा, सेवा धर्मं श्री कालू करुणा करी, क्यो
सुमिरन शक्ति अचिन्त्य है, परख्यो धर अनुराग । निकल्यो निबिये ईडबे, (जद) पैरां पर स्यूं नाग ॥ २५ ॥
अतुल्य । सेवा - मुल्य ||२४||
सन्तां ! कठिन- कठिन सेवा को अवसर जद- कद आवै । सब स्यूं आगे रह सेवार्थी, 'चंपक' भाग्य सरावे ॥ २६ ॥
गीली गार दिवार थे, चढ़ग्या लडदा च्यार । ढ़हण रा 'चंपक' ढ़चक, अ साहमा आसार ||२७||
छग्गू - बा ! आ के ल्याया, पाणी लारै लहताण ।
रह्या तिसाया, चढ्यो तावड़ो, वाहरे ! वाह ! 'धमताण' ॥ २८ ॥
पुस्त पुराणा री पकी, मुचै न मिनख मकान | अस्थिर 'चंपक' आज रा नुआं
मकान जुवान ॥ २६ ॥
सकै
'चंपक' चेहकै को चकर, सह नहि टहण्यां तो नीचै टिकी, ऊपर जड्या
हरेक । उवेख ||३०||
संस्मरण पदावली १८७
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कशा मार, खेंचै कुशा, ओ बे-अकल अजाण । करमा नै रोसी, कुशी! प्रोथी तजसी प्राण ॥३१॥ बड़ो कुमाणस सागरियो, गोरांजी! थारो भाई। बाई! इंनै समझाओ तो, मनै हुवै सुखदाई। देखो फोड़ी नुई पातरी, थाडो-सो चिमठाओ। भलै आदमी मैं कद आसी, अक्कल मनै बताओ ॥३२॥
मांडीखेड़ा ! तूं बडो, बहमी भी बे-डंग । (पण) दिखा दियो परतापजी, रजपूती रो रंग ॥३३॥
हाथी के हांक्यां करै, ऊठां ज्यूं टिचकार । (आ)जाणै एक गिवार भी(थे)कियांचलाओसरकार॥३४॥
छांनै सिरहाणे छिपा, चिट कद स्यूं क्यूं मेली। तुलसी ! 'चंपक' चिमठियो, बणी अबूझ पहेली ॥३॥
विनय मान-सम्मान में, मै स्नेहार्द अखट। के ठा? भाई बैठणो क नहीं, कह चल्यो ऊठ ॥३६॥
बुरा न मानें, पूछ रहा हूं, झिझक है कि, कुछ उलझन ? कवि बैठे कमरे के भीतर,(और)बाहर कवि-सम्मेलन ॥३७॥
म्हारै कहणे स्यूं हुवे, कद विनीत-अविनीत । (इं) मजलिस ने पूछो जरा, तुम कितनेक विनीत ॥३८।।
कृपा गुरांरी है जठ, बठै मधुर मधु-मास । संघ गुणी, चंपक रिणी, कृपा-कृपा सहवास ।।३६।
अकलदार पेहली बता! आज्ञा है कि आहार? खाऊं या सेवा करूं? सागर ! सोच विचार ।।४०।।
अणहोणी होसी नहीं, होसी जो होणी । मन मानी तांणो मती, गुरु-दृष्टि जोणी ॥ धर्म-विहीन-समाज के? ठप समाज बिन-धर्म। स्वर-व्यंजन-सी एकता, चंपक समझ्यो मर्म ॥४१।।
१८८ आसीस.
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बा मटकी पटकी बठे, अटकी अठ अजेस। 'चंपक' चटकी पण दकी, भटकी मती मुनेस ॥४२॥
आछो सोच्यो आपपण, म्हारे जची न हाल । (अ) तीनूं टाबर एक-सा, 'चंपक' लागै चाल ।। कमी न राखी आफ्तो, कृपा करायी धाप । 'चंपक' आगै आगलां रा अपणा पुन-पाप ॥४३॥
करै संघ-हित करणियां, प्राणार्पण प्रख्यात । गम खालेण मैं जीवण ! गजब जिसी के बात ॥४४॥
कविता कुदरत की कला, सागर ! मिल्यो सुयोग । (पण) आइन्दा अपशब्द रो, फेर न करी प्रयोग ।।४५ ।।
आगेसर करणी नहीं, सागर ! इसी मजाक। धसकै स्यूं फाटै हियो, हुवे अनर्थ हकनाक ॥४६।।
घृणा न करणी घाव स्यूं, रोगी स्यूं अनुराग । सागर ! सेवा सन्त री, मिलै पुरबल भाग ॥४७॥
सागर ! मत कर सूमड़ा, कर काठो कंजूस। दियां नहीं खूटै दरब, मत बण मक्खीचूस ॥४८॥
सागर ! सोह क्यूं सुलभ है दुर्लभ सेवा-धर्म । ओ तप 'चंपक' गहनतम, मानवता रो मर्म ॥४६॥
छग्गू-बा गमेती बाबो, आवै आडो-आडो। 'चंपक' वरस चोरासीआया, तोही गुड़कावै गाडो॥५०॥
माली सींच्यो, तरु फल्यो, चढ्यो भगत-जन हाथ । चंपै री आ पुज्यता, सदा सफेदी साथ ॥५१॥
सिवा आपरै कुण सके, म्हारा रस्ता रोक । आज्ञा लिछमण-रेख आ, 'चंपक' चोड़े चौक ॥५२॥
संस्मरण पदावली १८६
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अटकल-पटकल कुछ नहीं, कल बाबै रो नांव । जस जद मिलणे रो हुवै, (तो) 'चंपक' लागै दांव ।।५३॥
मांगी मांग करी घणी, पर नहिं मानी एक । पड्यो गुरां नै पिघलणो, रही भगत री टेक॥ भगत बड़ो संसार मैं, सब ली इक मति ठान । भगतां रै लारै झुक, देखो यूं भगवान ।। भगती मै सगती विविध-जुगती करै विनीत । रीत प्रीत री देखल्यो, हुई भगत री जीत ॥५४॥
गफलत स्यूं गोता पड़े, खेद खिन्न हो ज्याय । 'चंपक' जो पथ चूकज्या(बो)पग-पग पर पिछताय ॥५॥
मांगीलाल मतंग ज्यूं चाल, पूसरास रा पूत । बिन मतलब ही खांधा तोड़े, आ कुणसी आकूत ॥५६॥
गंगापुर स्यूं गंगापुर तक, दिवस इग्यारह लाग्या । पुर'र पहनो मिला, भाग अट्ठारह गांवां रा जाग्या।। अमावसी पधरावणो, एकम हुवै विहार । दो संवत गंगापुर फरस्या, चंपक जय-जयकार ।।५७।।
ओ कांटो कद स्यूं उग्यो, अरे ! फूटरा फूल । 'चंपक' होकर चतुर क्यूं, गई विधाता भूल ।।५।। कांटो पग रो काढ़ दे, चंपक चतुर चकोर । (पर) मन रो कांटो मांयलो, कहो कुण काढ़े कोर ॥५६॥
एक जग्यां दरडो पड़े (जद) ढिगलो दूजी ठोर । चंपक धन चोरी बिना, भेलो हुवै न भोर ।।६।।
ठीक नहीं है ठाकरां! बेजां ओ विसवास । अंत जिनावर जात रो, 'चंपक' के इकलास ।। चंपक के इकलास, क आछो नहिं आसंगो। बिना अरथ कोइ बगत, अचानक बधै अडंगो ।। खतरनाक खुंखार नै, रखणो घणो नजदीक । नीपीतां री प्रीत आ, नहीं ठाकरां! ठीक ॥६१॥
१६० आसीस
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लाग्यो 'चंपक' लोभ में, कुक्कर बिना बिचार। कई दिनां तक खटकसी, ओ कंगण केदार ॥६२॥
अरे ! बाप रो मोह ओ, आछो नहिं है अन्त । 'चंपक' फोड़ा पड़ेला, सुणले सन्त वसन्त ॥ मालव री काची रही, ठेट जेट की जेट । गा, गलावडो ले गयी, खेलो मिटियामेट ॥६३।।
छोटी-सी गलती बण, 'चम्पक' भारी भूल । सारहीण सिगरेट में, मानो अनरथ मूल ॥६४॥
गई अकल गावन्तरै, सागरिया! की सोच । नाभी जड़ नर-देह री, कहदे निस्संकोच ॥६५॥
कीड्यांभी कोनी कर, निःकरमा स्यूं नेह । पकड़ टांगड़ी फैंक दै, परली कानी पेह ॥६६॥
मतलबस्यूं 'चंपक' मिल ज्याणो, बता बड़ी के बात? एक साथ निभावै बीरो, सदा निभाणो साथ ॥६७।।
संयम सुध-बुध बिसर कर, भाजड़ भाजी जाय । 'चंपक' चेतो बाप रे, (जद) फल प्रमाद रा पाय ॥६॥
जो देणे जोगो हवै, उणन ही बतलावै । 'चंपक' मांगण नै भलां! कुण किणर घर जावै ॥६६॥ कालै स्यूं क्यांन करै ? मूरख ! माथा कूट । कुओ कबूतर नै दिस, झूठे नै सो झूठ ।।७०॥ 'चंपक' काम बढ़ेला चनणं! जग मै जता न जात। लवै अबै क्यूं लागगी, खरची थारै हाथ ॥ ७१।। भाई भाई रै घरै, आवै मोटै भाग । 'चंपक' भगती भाव स्यूं, बधै धर्म अनुराग ॥७२॥ चंपक जैन समाज रो, गूंजै गौरव गान। पड्यो सामने प्रेम रो, फल चोड़े चौगान ॥७३।।
संस्मरण पदावली १९१
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ताकत राखी काल तक, थांभण नभ भुज-थंभ। पडूं-पडूं चंपक पड्यो, (ओ) दुखे देह रो दंभ ॥७४।।
पख रो 'चंपक' पादरो, उफणे इयां उफाण । (थां) मोटोडारै झोड़ मैं, (आ)नान्हां रो नुकसाण ॥७॥ तपी तपस्या तीव्रतम, महामना महावीर । तपग्यो 'चंपक' तावड़ो, ओ मन बण्यो अधीर ।।७६।।
पोथी सागर ! के पढू, समझ लियो मैं सार । प्रेम भाव रा पाधरा, 'चंपक' अक्खर च्यार ॥७७॥
'चंपक' चवदस च्यानणी, याद रहेला रोज । सालासर रीसाख स्यूं, जा सागर ! कर मोज ॥७८।।
१९२ आसीस
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संस्मरण
[संस्मरण पदावली में संदभित संस्मरणों
का अनुक्रम से प्रस्तुतीकरण]
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बड़ा वह, जो खिलाकर खाये
उदारता सहज नहीं उभरती, जब तक आत्म-सम्मान न जगे। आधिपत्य की सुरक्षा का बोध ही दूसरों के दुःख में सहयोगी बनाता है। माता-पिता का संस्कार और व्यवहार, उदार बनने में शत-प्रतिशत काम करता है। आत्म-प्रतिष्ठा और स्वाभिमान जगे, इसलिए बच्चे के हर उचित कार्य की प्रशंसा आवश्यक है-ये शब्द थे स्व० भाईजी महाराज के ।
बचपन से ही चम्पूभाई दयालु थे। उन्हें मां बार-बार समझाया करती, बेटा! अच्छे लड़के हर चीज को मिल-बांट कर खाया करते हैं। अपने से कमजोर को कभी सताया नहीं करते। यही कारण था स्वर्गीय भाईजी महाराज सदा कमजोरों की सहायता करते। वे जो चीज खुद खाते, बांट-बांटकर खाना पसंद करते। ___ अपने अनुभव सुनाते हुए उन्होंने बताया-एक बार मैं आम खा रहा था। पास खड़ा मुसलमानी-मोलारी का लड़का टुगर-टुगर देखता रहा । उसका मन भी आम खाने को ललचा रहा था । वह अपनी मां के पास जा, रोने लगा। मां बरतन मल रही थी। उस गरीब मां के पास आम कहां था? उसने लड़के को डांटा । जब वह नहीं माना तो उसने एक थप्पड़ जड़ दिया।
मुझसे देखा नहीं गया। मैं घर में जा, छींके पर से एक आम उतार लाया। उसको दिया। अब वह खुश था। उन दिनों हमारे मरुस्थल-प्रदेश में आम थे कहां? इने-गिने लोगों तक आम पहुंच पाते थे। कोई-कोई रईश ही आम का उपयोग करता था। ___ मां के पास मेरी शिकायत पहुंची। मुझे बुलाकर पूछा गया। मां ने आंख दिखायी। मैंने बाल-सुलभ सरलता से कहा-मां ! तुमने ही तो कहा था-हर चीज बांट-बांटकर खानी चाहिए।
संस्मरण १६५
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मां हंस पड़ी । मेरी पीठ थपथपाते हुए मां ने कहा— बहुत अच्छा किया बेटा ! खिलाकर खाने वाला ही बड़ा होता है ।
भाजी महाराज ने एक पद्य कहकर उस स्मृति को ताजा किया -
'आपसरी में बांट कर खाणो सदा खुवा'र । हाल काम आवै सन्ता ! (ब) माजी रा संस्कार ॥'
१६६ आसीस
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२
हल्दी-दूध
क्या कभी स्वार्थ का त्याग दिये बिना परार्थ सधता है ? उसकी पीड़ा अपनी पीड़ा है, यह आत्म-भाव ही तो संघीयता है । त्याग पराग है । औरों का सहयोग कर जताओ मत । प्रशंसा की भूख पुण्य - निर्जरा का नाश कर देती है । हम-दर्द बनते सिर-दर्द हो तो हो । काम करने के बाद तख्ती को धो डालो। कुछ करके गिनाने वाला अपने आपको गिराने वाला होता है ।
भाजी महाराज ने बताया - बचपन में मैं एक बार दुलेछी के दासे पर चलतेचलते गली में गिर गया। मां ने मुझे हल्दी डालकर गरम दूध पिलाया । मैं ठीक हो गया । कुछ दिनों के बाद मेरे साथ एक लड़के की कुश्ती हुई । मैंने उसे धर पटका । वह चित् हो गया । उसके पैर में चोट आई। उससे उठा नहीं गया । मैं दौड़ा | घर से एक गिलास गरम दूध और हल्दी लाया । उसे पिला दिया ।
-
मां व्याख्यान सुनकर आयी । देखा, दूध कम है- -क्या बात है ? पूछताछ की। मैं बोला- मैं ले गया। मां ने कहा- क्यों ? मैंने बताया- - लड़का गिर गया था, उसके चोट आई थी । दूध-हल्दी पीने से वह ठीक हो जाएगा । उसके घर दूध-हल्दी कहां है मां ?
मां ने कहा- पर तुम बिना पूछे कैसे ले गये ? दूध कम होने का बहम कितनों पर जाता ?
मैं गम्भीर हो गया । गलती का अहसास हुआ। मुझे अनबोल देख मां ने कहाकल तुम्हें दूध नहीं मिलेगा ।
बात खतम हुई । दूसरे दिन मनुहारें करने पर भी मैंने दूध नहीं पिया | दादाजी को पता चला। उन्होंने मुझसे कारण पूछा । मैंने आपबीती बतायी। शाबासी भी मिली और हिदायत भी मिली। दादाजी ने अपने कटोरे में से मुझे दूध पिलाया और कहा - 'काम पूछकर करो, कर लिया हो तो बाद में कह दो ।'
संस्मरण १६७
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प्रारंभ से ही मुझे पराये दुःख में पड़ने की आदत थी और आज भी है । पर मर्यादा-विधि का उल्लंघन होते ही याद आ जाता है
'पडूं परायी भीड़ मैं, जदकद हुवै प्रमाद। 'चम्पक' हलदी-दूधरी, (बा) घटना आवै याद॥'
१९८ आसीस
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मझ में कितना आग्रह था
अति आग्रह मनो-क्लेश का कारण है। जब अहं फुफकारता है, आदमी कर्तव्याकर्तव्य भूल जाता है। व्यक्ति में आकांक्षाभीप्सित जिद्द होता है। मनोवांछित न हो तब तक चैन नहीं पड़ता। यह है, तो सही, पर आग्रह के पीछे सत्य का बल चाहिए। सत्य-बल का प्रयोग किसी को अनुचित दबाने, विवश करने के लिए नहीं, पुनचिन्तन के लिए हो । अनुशासन सत्याग्रह भी खतरनाक है। अपने अधिकारों की मांग व्यक्ति की जन्म-सिद्ध स्वतंत्रता है। पर उसमें विनय-विवेक और औचित्य का ख्याल अवश्य होना चाहिए।
श्री भाईजी महाराज फरमाया करते-बचपन में मुझे कोई ओलंभा नहीं दे सकता था। घर या बाहर कोई कुछ कह देता तो दादाजी के पास शिकायत जाती और उसे ऐसी डांट पड़ती, वह भी याद रखता। __ मैं भी कम नहीं था। सब कहते, दादाजी ने इसे बिगाड़ दिया है। इतना सिर चढ़ा बच्चा, क्या काम का? पर मेरी तो वहां सब कुछ फबती थी। छह और भाइयो में मैंने जितनी मौज की/जिद्द चलाई/मनमानी की, क्या कोई करेगा?
एक दिन मैं भोजन करने बैठा। माताजी ने मुझे थोड़ा-सा कड़ा डांटा । मैं उस दिन जिद्द पर था 'छींके पैदा आम दे' (छोंके पर रखे आम दो)।
होता यों, बाजार से जब भी सब्जी-फल आते, छांटकर कुछ ऊपर धर देती। मैं चटोकड़ा था, दादाजी का मुंहलगा लाडला। ऐसी-वैसी चीज, जो सबके लिए हो, मैं क्यों खाऊं? छांटकर रखी गयी, अच्छी बढ़िया चीज खाऊंगा। मां प्रायः तो मुझे ऊपर रखी चीजें दे देती। पर उस दिन सभी बच्चे घर पर थे। मेरी जिद्द पूरा करना मां के लिए भी भारी था। मैं जब किसी तरह माना ही नहीं, तो माताजी ने तंग आकर थप्पड़ मार दिया। बस, फिर क्या था, मेरा मूड बिगड़ गया। मैं खाना छोड़, रोता हुआ बाहर चला गया। दादाजी दुलेछी (बैठक) में बैठे थे।
संस्मरण १६६
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उन्होंने मुझे बुलाया / मनाया / कुसलाया/ समझाया / अपने पास बिठाकर खाना खिलाया ।
आज भी याद है, दादाजी ने उस दिन माताजी को कितना कड़ा उलाहना दिया था - शायद जरूरत से ज्यादा । कहते-कहते उन्होंने यहां तक कह दिया'खबरदार ! मेरे चम्पूं को आइन्दा कुछ कहने की जरूरत नहीं है । यह जो करे करने दो ।'
माताजी जैसी विनीत महिला भी बिरली ही होगी । उन्हें अनुशासन का इतना ख्याल था, उस दिन के बाद मुझे कभी कुछ कहा हो, याद नहीं पड़ता । बच्चा समझ - अनसमझ में कौन-सा तूफान नहीं करता ? पर मांजी मेरी सभी हरकतें चाहे - अनचाहे स्मित हास्य में क्षम्य कर देती थीं ।
मैं आज सोचता हूं, मुझमें कितना आग्रह था । कुछ-कुछ अब भी है । बहुत ढला हूँ, पर फिर भी
कह्यो न सदतो, रेंवतो ( म्हारो ) तोरो चढ्यो अकास | पड़ी प्रकृति जावै कियां ? सन्तां ! सोहरै सांस ॥'
२०० आसीस.
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मुझे भी उस दिन एक अपूर्व अनुभव हुआ
जन्म और मृत्यु के इन झूलते दो तारों के बीच लटकती जिन्दगी भी एक बड़ा आश्चर्य है । आदमी जब तक जीता है, कितनों से अपनत्व जोड़ता है। आगे-पीछे की सोचता है। किन-किन तमन्नाओं के संग्रह करता है। पर जब जाता है खाली हाथ/अनबोल/असहाय । सब कुछ यहीं धरा रहता है । अपने कहे जाने वाले, दोदस दिन रो लेते हैं। शेष रहती हैं व्यक्ति की स्मृतियां । वे भी कितने दिन ? समय बीतता है, स्मृतियां अनन्त में विलीन हो जाती हैं। सच पूछो तो जाने वाले को कोई नहीं रोता । रोते हैं हम अपने सुख को/स्वार्थ को।
बचपन कितना भोला होता है। वह यह तो नहीं जानता, क्या हुआ? पर जब मृतक की चिता जलती है, उस लपट में प्रकाश के भीतर भी कुछ दिखता है। मेरे अपने स्नेही/प्यारे को क्यों जला दिया? वह अब कहां गया? क्या सभी यों ही जाएंगे?
श्री भाईजी महाराज सुनाया करते थे--मुझे भी उस दिन एक अव्यक्त अनुभव मिला। दादा राजरूपजी का देहान्त वि० सं० १६७३ फाल्गुन कृष्णा चतुर्दशी को हुआ। तब तक मुझे यह पता ही नहीं था, मृत्यु क्या होती है । हम दादापोतों के कोई जन्म-जात संस्कार ही ऐसे थे, मेरे बिना उन्हें और उनके बिना मुझे चैन नहीं पड़ता। मेरा खाना-पीना/नहाना-धोना/सोना-उठना सब कुछ दादाजी के साथ होता । मेरी हर फरमाइश वे पूरी करते । करते भी खूब चाव-उच्छाव से। __दादाजी के तकलीफ थी । मैं भी पास बैठा था। सांस निकला। एक बार सब रोये । मैं भी रोया। और-और रोये थे कुछ दूसरे कारण से, मैं रोया था दादाजी की तकलीफ में सहभागी बनने।
कुछ देर के बाद सब शान्त, मैं भी शांत । शायद इसलिए कि कपड़ा उठा दिया गया है, दादाजी को नींद आयी है। लम्बी नींद आ गयी है, यह मुझे क्या पता ?
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थोड़ी देर बाद एक खंभे से उन्हें बांध दिया गया। मैं रोया, दादाजी को खोलने गया । क्या कहूं उस भोलेपन की बात?
बैकुंठी तैयार हुई। पूछने पर बताया गया-दादाजी को इसमें बिठाएंगे। खुशी हुई। दादाजी को नये कपड़े पहनाये । मैं भी नये कपड़े पहनने को अड़ा। बदले में एक चद्दर मेरे सिर पर लपेट दी गयी, 'पोतिया' कहा गया । मैं पोता था, पोतिया बांध लिया।
दादाजी को बैकुंठी में बिठाया गया। मैं अब इसलिए रोया-मैं भी दादाजी के साथ बैकुंठी में बैलूंगा । मुझे समझाया गया। पास ले जाकर दिखाया गया। इसमें बैठने को और जगह नहीं है, अपन आगे-आगे दंडोत करते चलेंगे, दादाजी राजी होंगे, चीजें दिलाएंगे।
'सोचूं आज हंसी आवै, वो भी हो कुछ टाबरपण।
रोयो, दादाजी रै साग, बैकुंठी में बैठण ॥' अंततः अन्त्येष्टि यात्रा-जुलूस सझा। आगे-आगे बाजे बज रहे थे । हम छोटेबड़े बहुत सारे लोग, बैकुंठी के सामने साष्टांग दंडवत करते जोगीदड़े (श्मशान) तक पहुंचे। मन में एक खुशी थी, दादाजी की बरनोली निकल रही है। लोगों के कंधों पर दादाजी चढ़े हुए हैं। झालर बज रही है। लोग पीछे-'अरिहंत नाम सत है-सत बोल्यां गत है', बोल रहे हैं । पैसे उछाले जा रहे हैं।
हम श्मशान घाट में रुके। लकड़ियां जंचायी गयीं। उस पर बैकुंठी धरी और ज्योंही आग लगायी कि मेरे होश-हवाश उड़ गये। मैं जोर-जोर से चिल्लायाअरे ! मेरे दादाजी को मत जलाओ रे ! पर मेरा वहां क्या बस चलता ! मैं रोरोकर थक गया।
मूथोसा (सदासुखजी वैद) ने मेरे सिर पर हाथ फेरकर कहा-'चम्पू ! लाड़ी! दादोजी चलग्या। इं मरे. शरीर री तो आही गति है' सुनकर मेरे मन में एक क्षणिक, अव्यक्त/अज्ञात/अपूर्व अनुभव हुआ।
हपड़-हपड़ कर चिता जली जद, पड्यो एक पलको-सो। 'चम्पक' चमक्यो चित्त, चेतना को अनुभव हलको-सो।।
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ललाट पर निशान
शारीरिक और मानसिक विकास के लिए खेल भी आवश्यक होते हैं। खेल-खेल में बच्चों के व्यायाम के साथ-साथ सहज प्राणायाम भी सधता है । दीर्घश्वास का अभ्यास और सम स्वांस प्रयोग खेलों में अनायास ही हो जाता है । बच्चा गिरता है / उठता है / दौडता है / श्वास रोक कर खड़ा रहता है / प्रेक्षा करता है । खेल का खेल, योग का योग । हमारे युग में प्रमुख स्वास्थ्यप्रद खेल थे - कबड्डी, लुकमींचणी, मालदड़ी, गुल्ली - दंडा, लूंणा-घाटी, घोड़ीसवार, सिलियोभाटो, चोर-चोर, दड़बड़ी, ster-ड़ी और बोल मेरी मच्छी कित्ता पानी ।
भाईजी महाराज फरमाया करते - हमारा मोहल्ला विशेष अनुशासित था । हम सब एक थे । हमारा एका गांव भर में नामी था । हमारी दूसरी पट्टी के लड़के तगड़े और लड़ाकू थे । बीच के तीन साल तक मैं अपने संगठन ( बचाड़ी -पालटी) का प्रमुख रहा । हमारे बीच होने वाले खेल - विवाद को प्रमुख सुलटाया करता । हम लोग रात को एक मोहल्ले से दूसरे मोहल्ले को चीरते हुए निकलते और बोलते – 'बा० ची० - बा० ची ० ' हम तुम्हारे बास को चीर कर निकल रहे हैं, ताकत हो तो रोक लो । न रोकने पर बास-संगठन की हार मानी जाती । हमारी दूसरी पट्टी को चीरकर जाने की किसी की हिम्मत नहीं थी । को चीरकर हम आ जाते और नुक्कड़ पर खड़े रहकर नारे हुर्रे' 'हिपि हिप हुर्रे ।'
मुहल्ला चीरते समय कभी-कभी भिड़ंत हो जाती । पहले हाथा-पाई और फिर तकरार बढ़ जाने पर पत्थर भी चल पड़ते । चोटें भी लगतीं, पर उन दिनों गिनता कौन था सामान्य चोट को । पत्थर लगता, खून निकल आता, और हम गली की मिट्टी उठाकर उसे लगा देते । बारीक-बारीक मिट्टी घाव भर देती । ऐसी ही एक भिड़न्त में मेरे सिर पर पत्थर लगा। उसका निशान आज भी मेरे ललाट पर
संस्मरण
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दूसरी - दूसरी पट्टियों लगाते - 'हिपि - हिपि
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हमारे साथी लड़के को कोई दूसरे मोहल्ले वाला पीट देता तो फिर उसका बदला भी पूरा मजा चखाकर लेते। हम अपने संगठन के लिए पूरे ईमानदार और वफादार थे।
'म्हे लड़-पड़ता शान मैं, पत्थर फेंक अजाण । अखी प्रमाण लिलाड मैं (औ) 'चम्पक' पड्यो निशाण ॥
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मेरी शरारत, लाडांजी की मुसीबत
बच्चे शरारती तो होते ही हैं । वह उमर भी वैसी ही हुआ करती है । फिर लाडले बच्चे का तो कहना ही क्या ? श्री भाईजी महाराज, बचपन में सबके मुंहलगे थे । अतः शैतान होना सहज था । दादा राजरूपजी के होते उन्हें कोई होंठ का फटकारा भी नहीं दे सकता था | दादाजी के देहान्त के बाद भी वह पुराना रीति-रिवाज वैसा ही रहा । तूफानी आदतें उमर के साथ-साथ बढ़े जा रही थीं। एक बार अपनी शरारतों का विवरण करते हुए श्री भाईजी महाराज ने स्वयं फरमाया ।
बहन लाडकुंवर बाई चुहिया से बहुत डरती थीं। कोई चूहा रसोई घर में दिख जाता तो वह ऐसे चिल्लाकर भागती मानो कोई काला सांप निकल आया हो । उनकी चिल्लाहट सुनकर घर के सब लोग इक्ट्ठे हो जाते। मुझे अनायास ही एक कौतुक हाथ लग गया। मैं झूठ-मूठ ही कह दिया करता
'बाई ! बाई ! उंदरी, उंदरी' और बाइसा घुघाकर गली में जा बोलती । चुहिया हमारे लिए तमाशा बन गया ।
मैं कई बार औरे (कोठे) में से चुहिया की पूंछ पकड़कर ले आता और फिर देखो नाटक । तमाशा तो हमारे होता, लाडांजी को तो जी की बन जाती। वे ही जानतीं जो उनमें बीता करती । वे आगे-आगे दौड़तीं और मैं पूंछ पकड़ी चुहिया लिये, पीछे हो जाता । खूब छकाता । अंत वे मां की शरण में जा पहुंचतीं और जब मांजी की दाकल - डांट पड़ती तब मैं मानता ।
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'पकड़ पूंछडी उंदरड़ी, मैं ल्यातो मन-मोद | डर लाडांजी भाजता, बड़ता मां की गोद ||
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एक चनपट में चोरी छूटी
बालक सहज-स्वभावी होता है । उसमें अच्छे-बुरे संस्कार अड़ोस-पड़ोस से आते हैं । बच्चे को भले-बुरे का परिणामी ज्ञान नहीं होता । वह दूसरे के कहे कहे कर डालता है । सोचने की अपनी शक्ति नहीं होती । परिणाम उसके समझ से बाहर होती है । सिखाये-सिखाये वह बुरी आदत में पड़ जाता है और वह ना समझ, बुरे जीवन का रास्ता पकड़ लेता है ।
यों तो हर बच्चा जानता है, अच्छा क्या होता है, बुरा क्या होता है ? तभी तो वह बुरा काम छुपकर करता है । छुपकर करने का अर्थ है बुरा काम । पाप और क्या होता है ? जो चोरी-छिपे किया जाए वही तो है पाप ।
किसी की सिखावट, फुसलाहट, प्रभाव या प्रलोभन से बच्चा घर का सामान चुराने लगता है। आंख बचाकर वह चोरी करता भी है और अपने आपको होशियार भी मानता है । उसका कोमल मानस अनभिज्ञ होता है । यदि समय रहते मां-बांप संभाल सकें तो उसकी आदत बदल भी सकती है, अन्यथा एक बुराई हजार बुराई पैदा करती है। लापरवाह अभिभावक इसके जुम्मेदार होते हैं। बच्चों का जीवन बनाना भी एक कला है ।
तुच्छ स्वार्थ-पोषण के लिए अपने कहलाने वाले लोग बच्चों को कैसे बिगाड़ते हैं | अपना एक संस्मरण सुनाते हुए श्री भाईजी महाराज फरमाया करते थे
उन दिनों मेरे में एक नयी आदत शुरू हो रही थी । मेरे एक निकटतम सम्बन्धी मुझे प्रोत्साहित कर रहे थे । हमारे घर में माताजी की ओर से सभी खाद्य पदार्थ खुले रहा करते थे । हम बच्चे जब भी जी चाहता, उनका स्वतंत्र उपयोग करते, किसी को कोई रोक-टोक नहीं थी ।
हमारी शाल के टोडियाले में एक भांड में सुपारियां भरी रहा करतीं । अब वह खाली होने लगी । मैं कभी मुट्ठी भर कभी कम - बेसी सुपारियां चुराने लगा ।
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चुपके से इधर-उधर देख, सुपारी ले जाता और उन्हें दे आता, जिन्होंने मुझे यह सब करना सिखाया था । वे शाबासी देते और मैं फूल जाता ।
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कई दिनों तक माताजी सोचती रहीं, भांड खाली हो रहा है, इतनी सुपारी तो खर्च नहीं होती, क्या बात है ? पर बहम भी करे तो किस पर ?
'चोर की दाढ़ी में तिनका' - एक दिन मैं पकड़ा गया । सुपारियां लेकर दौड़ रहा था । माताजी रसोई घर से बाहर निकलीं। मैं घबराया । एक सुपारी का टुकड़ा मेरी मुट्ठी में से नीचे गिरा । बस, फिर क्या था, रंगे हाथों चोर पकड़ा गया। एक चनपट पड़ी। हाथ पकड़कर मां मुझे ओरे में ले गयीं। मैंने सच-सच बता दिया ।
सब कुछ साफ-साफ पता लगने के बाद भी मांजी की गंभीरता ने उन्हें (जिनका नाम चोड़े हुआ था) दरसाया तक नहीं । हां, उस दिन के बाद मांजी हम बच्चों पर आंख अवश्य रखने लगीं, बच्चे कहां जाते हैं, कहां बैठते हैं । बस एक चनपट के मूल्य में मेरी चोरी की आदत छूट गयी ।
"किरचा रोज चुरावतो, लुक-छिप भर-भर मुट्ठी । ल्हापां मैं चनपट पड़ी 'चम्पक' चोरी छूटी ॥"
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वैराग्य की पहली किरण
आज जहां उच्छृखलता की एक उदंड लहर चारों ओर दौड़ रही है, वहां उस युग में बड़ों के प्रति आदर-सम्मान और सहज श्रद्धाभाव था। उन दिनों गृहपतिअभिभावक का ही बहुमान / संकोच-शर्म पर्याप्त नहीं था, अड़ोस-पड़ोस के बुजुर्गों का भी रोब-रवाब और लाज-लिहाज था। ___ अपने लड़के और पड़ोसी के लड़के में उस समय भेद जैसा नहीं था। उस अपनत्व भरे माहौल में एक आम धारणा थी- बच्चा-बच्चा है । जितने हम अपने बच्चे के लिए जिम्मेदार हैं, उससे कहीं अधिक पड़ोसी के बच्चे की भी हम पर जिम्मेदारी है।
__ श्री भाईजी महाराज फरमाया करते-जब हम खेलते, चालीस-चालीस, पचास-पचास बच्चे मिलकर गली में गोधम / धूम मचाया करते। मुझे याद है सेठ मोतीलाल जी बरमेचा जब भी गली की मोड़ मुड़ते, खांसते (खांसना उनका सहज स्वभाव था)। खंखारा सुनते ही हम सबको जाने क्या हो जाता, चिड़ियों के झुंड में पत्थर की तरह हम सब भाग-भागकर अड़ोस-पड़ोस के घरों में छुप जाया करते। म्याऊं-म्याऊं हो जाते । उनका इतना डर क्यों लगता, पता नहीं, पर उनका मुहल्ले भर में सामूहिक प्रभाव था।
एक बार हम कुछ साथी चले । जेठ की मध्य दुपहरी । राणावजी के कुएं पहुंचे (वर्तमान में जो जैन विश्वभारती में है) । कुएं का कोठा (टांका) पानी से भरा था। हमने कपड़े उतारे । मैं नहाने कोठे के छज्जों पर उतरा । तैरना जानता नहीं था। किसी मित्र ने कहा-इस छज्जे से उस छज्जे तक ऊपर की कंगार (दासा) पकड़े-पकड़े पहुंची तो जानूं । मैं बिना सोचे चल पड़ा । मेरा सीने तक शरीर पानी में था। दोनों हाथों से दीवार की कंगार पकड़े-पकड़े मैं चल रहा था। आधी दूर गया कि ऊपर से हाथ छूट गया। २०८ आसीस
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मेरा राम पानी में डुबकियां खाने लगा। आज भी उस दिन की याद आने ही सारा शरीर सिहर उठता है । मैं मौत के मुंह में था। सांस घुटने लगी। एक बार ऊपर आया, फिर पानी में । गुटर-गुटर धुंघाट होने लगा। सारे साथी हक्के-बक्के थे। दूसरी बार फिर ऊपर आने का प्रयत्न किया, पर विफल । तीसरी बार जोर मारकर हाथ ऊपर की ओर निकाले कि किसी साथी ने हाथ थाम लिया । बस, अब क्या था, क्षण भर में पानी से बाहर । डूबते को तिनके का सहारा यों होता है। अब नहाना-धोना किसे सूझे । पर, डर था किसी को पता लग गया तो? हम सबने कपड़े पहने और घर की राह ली।
हम कुएं से उतरे ही थे कि पूनमचंद जी गोलछा आ गये । हमें काटो तो खून नहीं। उन्होंने दूर से जुता निकाला और धमकाया। 'छोरां ! कुमाणसां ! कठैई कालो मुंडो कराओ । कोई डूब'र मरग्यो तो? चालो घरे।' एक-दो के जूते की पड़ी भी, पर किसी की क्या मजाल, जो उनके सामने चूं भी करे। हम सबके पांव चिपक गये । भविष्य में बे-वक्त कुएं पर नहीं आने का वचन लेकर, हमें छोड़ दिया।
- रास्ते में हम सबने तय किया, इस घटना का किसी को पता नहीं चले । बात हम सब पी गये।
उस दिन मैंने नया जन्म पाया। पानी से इतना डर बैठ गया जो आज तक भी नहीं निकल पा रहा है। आज भी जब उस दिन की याद करता हूं, मन भयभीत हो उठता है।
मेरे वैराग्य का मूल दिन वह था। मैंने उस रात बहुत चिन्तन किया, मुझे जीवन की नश्वरता पानी में तैरती-डूबती दिखने लगी।
मैं राणावजी रे कुवै, डुब्यो जद कोठा मै। उगी किरण वैराग्य री, मौत दीसगी सामै ॥"
संस्मरण
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कआं डाकने की शर्त
उमर का भी एक अलग रंग है। बच्चे से किशोर होते ही उसकी गतिविधि मोड़ लेने लगती है । वह गुण-दोष को इतना महत्त्व नहीं देता, जितना मनचाही कर लेने को देता है। ज्यों-ज्यों वह बड़ा होता है, उसके शारीरिक विकास के साथ-साथ मानसिक और बौद्धिक विकास भी बढ़ता है । खान-पान, रहन-सहन और खेल-कूद के साथ बोलचाल की भाषा में विस्तार आता है। ____ अभिभावक उसे थोड़ी-सी छूट दे दें तो वह निश्चित भाव से अभिवृद्धि करता है, छूट के साथ थोड़ा-सा स्नेह प्यार भी मिलता रहे तो उसकी विकास-ग्रन्थियां और अधिक तेजी से रस-स्राव करने लगती हैं। कुंठित वातावरण ग्रंथि-विकास में अवरोध पैदा करता है, ग्रंथि-स्राव कभी-कभी रुक भी जाता है।
उस उमर में किशोर कितना दुस्साहसी हो जाता है, एक अनुभव सुनाते हुए श्री भाईजी महाराज ने बताया
दादा राजरूपजी का हाथ बहुत उदार था। रईसी रहन-सहन, लाड-बाई का विवाह, और आले-दोले घर-खर्च से आर्थिक स्थिति डगमगा गई। दादाजी के देहान्त के बाद उनके ओसर ने कर्जदारी बढ़ा दी। पिता झूमरमल जी शरमालू थे। इज्जत के प्रश्न ने उनको चिन्ताग्रस्त बना दिया। अब क्या होगा? इसी सोच में वे बीमार हए और वि० सं० १९७६ जेठ शुक्ला १२ को उन्होंने प्राण दे दिए । घरखर्च की चिन्ता, बड़ा परिवार, कर्जदारी और काम-धन्धा चौपट । भाई मोहनलालजी अकेले कमाऊ। __मैं उन दिनों १२ वर्ष का हो रहा था । मुझे भी घर की चिन्ता सताने लगी। मैं वि० सं० १९७७ में दिसावर गया । 'खुशालचन्द लिछमणदास' के यहां सिराजगंज (वर्तमात बंगलादेश) में काम सीखने लगा। वह भी एक लगन थी, छहसात महीनों में ही मैं एक दुकानदार के रूप में उभरा । प्रारम्भ से ही हिसाब-किताब २१० आसीस
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और काम का मुझे शौक था। __लाडनं निवासी बोरड डालमचन्दजी 'कमलपुर' रहा करते थे। वे धर्म-ध्यान और तत्त्व-चर्चा के रसिक थे। खुशदिल, सज्जन-स्वभावी, साहसी, कुशल व्यवसायी और विनोदप्रिय । वे सिराजगंज आये। मेरी ग्राहक पटाने की कला ने उन्हें आकर्षित किया। वे मुझे मांग कर कमलपुर ले गये।
डालमचन्द जी का बड़ा पुत्र बालचन्द उन दिनों कमलपुर में ही था। हम दोनों बराबरी की-सी उमर के थे। घरेलू व्यवहार में बालचन्द और चम्पालाल में कोई भेद नहीं था काम-काज पूरा कर लेने के बाद हम दोनों साथ-साथ खेलते।।
हम दोनों एक दिन खेल रहे थे। लगने-पड़ने का डर था ही नहीं। कभी दरखतों पर चढ़ते, कभी दीवार फांदते । आज न जाने हमें क्यों सूझी, वहीं पिछवाड़े एक कुआं था। हमने शर्त लगायी-भागते-भागते आओ और छलांग लगाकर कुएं को डाको। पहल मैंने की । मैं छलांग मारकर कुआं डाक गया । बालचन्द कुआं डाक रहा था, पैर सही नहीं जमा । वह फिसल गया। कुएं में गिर ही रहा था कि मैंने दौड़कर थाम लिया। वह गिरते-गिरते बचा । थोड़ी-सी रगड़ आयी। दोनों के मुंह सफेद पड़ गये । हमने किसी को पता नहीं लगने दिया।
बालचन्द आजकल नयी-पुरानी धारणा में उलझा हुआ है। अच्छा समझदार, तत्त्व-ज्ञाता, बोल-थोकड़ों का माहिर और समझने,-समझाने की हटौती (अभ्यासशक्ति) वाला होकर भी नहीं समझ रहा है। मैंने कई बार प्रयत्न भी किया है। मित्रता के नाते कड़ा भी कहा है, पर अभी उसके गले बात उतर नहीं रही है। हर बार वह कहता है-मुनिश्री ! आपने उस कुएं से तो हाथ पकड़कर उबार लिया, पर इस कुएं से बचाना मुश्किल है। क्योंकि मेरी धारणा अभी इसे कुआं मानने को भी तैयार नहीं है । और मैं उसे कहता हूं-यह भयंकर कुआं है बालू । अनन्त जन्ममरण बढ़ाने वाला कुआं, और वह यह कहकर टाल देता है
'बी कुएं पड़तां नै राख्यो, हाथ झाल प्रेमाल । अब पकड़ काढ़ौ तो जाणूं, रोज कहै औ बालू ।।'
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दोस्ती का चिन्ह
बचपन बचपन ही तो होता है । उसमें गम्भीरता कहां से आयेगी ? अनुभव छुटपन से परे की बात है । बड़प्पन और शिष्टता, यों तो वंशगत संस्कारों की देन हैं, पर उनका विकास और हास अभिभावकों पर निर्भर करता है । यदि अभिनियन्ता बार-बार बच्चों को सभ्यता की ओर संकेत देता रहता है, तो सहज ही बच्चों के समझ में आने लगता है कि मुझे ऐसा व्यवहार करना चाहिए जिससे मैं भी अच्छा, प्यारा लड़का बन सकता हूं। किसी भी गलती के बाद बच्चे को भूल का अहसास कराना भी एक योग्य शिक्षक की कला है ।
श्री भाईजी महाराज ने एक अनुभव सुनाते हुए इस ओर इंगित किया
कमलपुर में मैं और बालचन्द बोरड़ एक दिन पिछवाड़े बाड़े में खेल रहे थे । आज हममें राजपूती जागी थी। दोनों के हाथों में बांस की लम्बी-लम्बी खापटियां थीं। हम बहादुर योद्धा बनकर पट्टा खेलने चले थे। बांस की खापटियां हमारी बनावटी तलवारें थी । हम उछल उछलकर एक-दूसरे पर वार कर रहे थे । सामने वाले का घातक वार बचाकर अपना कौशल दिखाते दिखाते अचानक मेरी तलवार (खापटी) असावधानी से बालचन्द के हाथ में जा चुभी । बस, अब क्या था खून ही खून । कुएं पर जाकर हमने पानी से हाथ धोया पर खून नहीं रुका। पट्टी बांधी तो खून अधिक चमकने लगा । हम घबराये । दोषी यों तो दोनों ही थे, पर मेरी गलती बड़ी थी ।
मैं डालचन्दजी के पास गया और सच्ची-सच्ची बात कह दी । वे सत्य को बहुत पसंद करते थे । उपालंभ के बदले उन्होंने मुझे थपथपाया और कहा- कोई बात नहीं, लग गई तो लग गयी। बहादुर योद्धा क्या खून देखकर घबराते हैं । चम्पू पर आगे ध्यान रखना, ऐसा खेल कभी नहीं खेलना चाहिए। नहीं तो आंख में लग तो ? देख ! बालू के लगी कोई चिन्ता नहीं, पर अभी तेरे लग जाती तो भाई
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मोहनलाल का ओलंभा मुझे आता न ?
मैं शरमाया-शरमाया, सकुंचाया-सा बोला 'खून बंद नहीं हो रहा है, अब क्या होगा?' वे बोले, 'चलो, अभी उसे भी बंद करते हैं। वे आये। पानी टपकाया पर खून नहीं रुका। लगता है किसी रक्तवाहिनी नस पर चोट लगी है। डालचन्दजी अनुभवी व्यक्ति थे। उन्होंने रामू (नौकर)को आवाज दी । सरसों का तेल मंगाया, एक रुई का फोहा बनाकर हाथ पर बांधा । बहता हुआ लोहू थोड़ी देर में बंद हो गया। अब मेरे जी में जी आया। घाव भरते तो कई दिन लगे । आज भी डालचंदजी का बड़प्पन मुझे अभिभूत करता है।
बालचन्द की बांह पर अभी भी वह निशान है। मेरी दीक्षा के बाद जब भी वह आता है, वह अपने हाथ का निशान दिखाया करता है और कहा करता हैयह है मित्रता की अमिट निशानी। पर मुनिश्री ! यह निशान तो शरीर के साथ मिट जाएगा। कोई ऐसा दोस्ती का निशान बनाओ जो सदा-सदा के लिए अमिट हो जाए । आप तो तर गये और मैं संसार में फंस गया । मैं उसे कहा करत--
'बालू ! हाल के बीगड्यो, कर हिम्मत अविखिन्न। असल मित्रता को अमिट, 'चम्पक' मांडे चिन्ह ॥"
संस्मरण २१३
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सुधार का नया तरीका
लाडनूं की बात है। मामा नेमीचन्द कोठारी उन दिनों पलासबाड़ी (बंगाल) में रहा करते थे। उनकी दुकान (फर्म) का नाम सुखलाल नेमीचंद पड़ता था। वे अपनी बहन (मां वदना जी) से मिलने आये। बालक चम्पालाल से बातचीत हुई। उनका मन भर आया। वे चाहते थे, ऐसे योग्य लड़के को मैं अपने पास रखू । उन्होंने अपना अभिप्राय बहन को जताया। मांजी ने कहा- भाई ! मुणू (मोहनलाल) जाण । मामाजी ने भानेज मोहनलाल जी को पत्र दिया । स्वीकृति आई । कोठारीजी लाडनूं से भानेज चम्पालाल को पलासबाड़ी ले गये। पलासबाड़ी काम-धंधे के लिए अच्छा स्थान था । भाईजी महाराज का वहां खूब मन लगा। खुली छूट-खाओपीओ और काम के समय मन लगाकर काम करो। वहीं एक नयी आदत शुरू हुई। भाईजी महाराज फरमाया करते
मेरा उन दिनों बाबूगिरी का नया दौर प्रारम्भ हुआ। फिट-फाट कपड़े पहनना और धुआं निकालना । मैं नया बाबू था । मुझे सभी बंगाली, 'खोखा बाबू' कहते । खोखा वहां छोटे को कहते हैं। मैं अब 'खोखा बाबू' जो बन गया था, अतः बाबूगिरी के सभी लक्षण आवश्यक थे । मैं बीड़ी पीने लगा। पर पीता था छिपेछिपे । कभी-कभी बीड़ी पीकर धुआं फेंकता और शीशे में देखता, देखें, कैसा लगता हूं। अब मुझे बीड़ी का रस लग गया था। मामाजी का डर भी लगता था। एक दिन कोठे की खिड़की में बैठा मस्ती से बीड़ी पी रहा था। कोई आयेगा, यह बहम ही नहीं था। निश्चित धुआं फेंक रहा था। बाबूगिरी का अहं धुएं के साथ गोटे बना रहा था। मैं बस खींचकर ज्योंही धुआं फेंकने लगा कि अचानक मामाजी कोठे में आ गये। उन्हें देखते ही मैंने सुलगती बीड़ी फुर्ती से पांव तले दबा ली, पर धुआं कहां दबता ? बहुत मावधानी बरती । झट से, खिड़की बंद कर अंधेरा करने की नाकाम कोशिश की।
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मामाजी बड़े गम्भीर थे। उन्होंने देखा, अनदेखा कर दिया। मानो उन्हें पता ही न चला हो । मुझे पानी का गिलास लाने को कहा । मैं पानी लाया। वे पानी पीकर दुकान के काम में लग गये । मैं भी दुकान में आया तो सही, पर दिल धड़क रहा था। मन के भीतर चोर जो बैठा था। हर क्षण वही सन्देह था-मामाजी क्या कहेंगे? उनकी प्रकृति से मैं खूब वाकिफ था। जब वे कहने लगते, छींट नहीं छोड़ते । मैं मन ही मन सोच रहा था-चंपला ! आज खैरियत नहीं है । जब भी वे बोलते, मुझे वे ही स्वर फूटते नजर आते। आज क्या होगा? हे भगवान ! आज बच जाऊं तोलाखों पाये। दिन भर कोई चर्चा नहीं चली। मेरे में विश्वास हो गया-सचमुच मामाजी को पता ही नहीं चला। __सदा की भांति सायंकाल मजलिस जुड़ी । मैं भी वहीं बैठा,था। अड़ोसी-पड़ोसी सभी लोग जमा थे। बातें चल रही थीं-देश की, दिशावर की, बाजार की, समाज की। अब मैं तो बे-फिकर था। इतने में मामा नेमीचन्द जी ने मेरी ओर देख चुटकी भरते हुए कहा-'अबै बाबू पास हो गया है।' वे आगे कुछ नहीं बोले, केवल जमीन पर एक सांकेतिक लकीर खींची। दूसरे लोग तो कुछ नहीं समझे, पर मेरा चेहरा फक । काटो तो खून नहीं । मैं अवाक्, जैसा था वैसा ही रह गया। फटी-फटी आंखें । पसीना-पसीना । जाऊं तो जाऊं कहां? शर्म से सिर झुक गया। ऊपर आकाश, नीचे धरती, बीच में अधर झूलता मेरा मन । लगा वह लकीर मुझे कुछ कह रही थी।
मैंने भीतर ही भीतर दृढ़ संकल्प किया आज से बीड़ी पिऊ तो त्याग । मैंने भी जमीन कुरेदकर एक लकीर खींची। मामाजी समझ गये। बात का रुख बदल गया। दूसरी चर्चा छिड़ी और मैं निश्चिन्त हुआ । मामाजी की वह युक्ति आज भी मैं सोचता हूं, हम सभी लोग अपना लें तो सुधार का एक नया आयाम न खुल जाए? बस, उस दिन से सदा-सदा के लिए मेरी बीड़ी छूट गयी
'बाबू अबे पास होग्या, मामाजी मार्यो तीर। आई शरम, छोड़ दी बीड़ी, चम्पो खांच लकीर ॥'
संस्मरण २१५
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.. १२ तिलचटा : एक उद्बोधन
वि०सं० २००६ की बात है। हम दिल्ली नया बाजार वृद्धिचन्द जैन स्मृति भवन में बैठे थे। वहां एक तिलचटा निकल आया। श्री भाईजी महाराज आसण छोड़ उठ खड़े हुए। मैंने ऐसा पहले-पहल देखा। पास ही बैठे थे कोठारी सागरमलजी राखेचा (लाडनूं)। उन्हें एक पुरानी बचपन की स्मृति याद आ गई । वे बोले- क्यों भाईजी महाराज, याद है तिलचटा ?
भाईजी महाराज ने फरमाया-हां, याद है। इसी तिलचटे ने ही तो लाडांजी का चहिया से पीछा छुड़ाया था। हमने जब जानना चाहा, यह तिलचटा फिर क्या बला है ? भाईजी महाराज ने स्मृतियों के बंडल में से एक गठड़ी खोली
वि० सं० १९८० की बात है। मैं उन दिनों कलकत्ता में था। मामाजी हमीरमलजी कोठारी अपने समय के सम्मान्य व्यक्ति थे। बारह नम्बर पोचागली में निवास और गणेश भगत कटले में दुकान (गद्दी) थी। अब वे निवास स्थान का परिवर्तन कर क्लाइव स्ट्रीट विलायती कोठी में चले गए थे। पूजा की बिक्री सामने थी। उन्हें एक आदमी की और अपेक्षा थी, अतः उन्होंने मुझे पलासबाड़ी से कलकत्ता बुला लिया। मैं कलकत्ता पहुंचकर बहुत खुश इसलिए था-शहरी वातावरण, मौज, शौक, और मनोरंजन का वहां रंग ही न्यारा था।
वहां मैंने पहले-पहल तिलचटा देखा । देश में तिलचटा होता नहीं । मैं घबराया। उसका आकार ही ऐसा था। मैं चिल्लाकर भागा। भाई सागरमल कोठारी के हाथ एक मसाला लग गया। हम दोनों एक ही उमर के थे। मुझे छकाने का दूसरा उपाय नहीं दीखता तो सागर तिलचठा पकड़ लाता और मैं दोनों हाथ ऊपर कर हार मान लिया करता।
गणपत महाराज रसोई किया करते । मेरी आदत शुरू से ही इस माने में खराब थी। मैं रसोई में कमियां निकालता । खाना खाते समय कई नखरे करता।
२१६ आसीस
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जब ज्यादा तंग करता तो गणपत महाराज सागर को आवाज देते और वह भला आदमी तिलचटा उठा लाता । तिलचटा देखते ही मैं मैदान छोड़ भाग खड़ा होता।
कई बार सागर मुझे सुख से खाना भी नहीं खाने देता। ज्योंही यह आवाज देता 'चम्पू भाईजी ! तिलचटो' और मेरा राम थाली फेंक दौड़ पड़ता। __ भय ही तो आदमी को मारता है। कई बार मैं तिलचटे के बहम में रात को नींद में ही धुधा पड़ता। मामाजी बहुत समझाते, पर भय नहीं निकला सो आज तक नहीं निकला।
वहां मैं रह-रहकर याद करता बहन लाडांजी को । जब मैं चुहिया पकड़कर उन्हें डराता था तब उनमें क्या बीतती होगी? जो डराता है, वह डरता है। जो मारता है, वह मरता है । चम्पा ! वह औरों के लिए भी मत कर, जो अपने को नहीं सुहाता । जब मैं कलकत्ता से देश आया, मेरी चुहिया वाली आदत छूट गयी थी। मेरी आत्मा रह-रहकर कहती
'अपणो-सो पर-दुख हुवै, जाण्यो पहलां-पेल । तिलचटे स्यूं छूटगी, लाडांजी की गेल ॥'
संस्मरण २१
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मैंने अक्ल सीखी एक रुपये में
फिसलन भरे शहरी वातावरण का उल्लेख करते हुए श्री भाईजी महाराज ने अपना एक निजी अनुभव सुनाया। उन्होंने कहा-'शहरों में पग-पग पर पतन की खाइयां खुदी पड़ी हैं । ऐसे लोगों की आज कोई कमी नहीं है, जो अपना कहलाकर अपनों का ही जीवन बरबाद करने में तुले हुए हैं । जब बड़ा भाई ही छोटे भाई को गलत रास्ते ले जाए, औरों से क्या आशा की जा सकती है। मैं भी एक दिन फंस गया था जंजाल में । कलकत्ते की बात है।
__ बिना किसी नामोल्लेख के श्री भाईजी महाराज बता रहे थे-मैं तकादा लेकर आ रहा था । मेरे अत्यन्त निकट के भाई साहब मिल गये । वे सब बातों में पास थे । सर्वगुण सम्पन्न । मैं जानता था उनकी गतिविधि । पर नया-नया था, लिहाजन मैं उनके साथ हो गया। बात-बात में उन्होंने कहा-चम्पा ! चल इधर से चलें । मैं संकोचवश इनकार नहीं कर सका। आगे जाकर वे कहने लगे-'आव ! आव, एक गाना सुनकर चलेंगे। यहां गायक मंडली शानदार है ।' मैंने आना-कानी की, पर फंस गया था, निकल नहीं सका । यह मेरी अपनी दुर्बलता थी। साथ-साथ मैं रास्तों से अनजान था, करता भी तो क्या ?
हम गायन में बैठ गए। मैं वहां न रुक सकता था, न वहां से उठ ही सकता था। मन में भय था। मामाजी क्या कहेंगे ? देर जो हो रही है। वहां वे इन्तजार कर रहे होंगे। मुझे तब तक यह पता नहीं था, यह देह-व्यापार केन्द्र है ।
घंटा भर के बाद जब हम उठकर चलने लगे। सवाल आया पैसों का । भाई साहब तो भूखे फकीर थे। उन्होंने मुझे आदेश की भाषा में कहा-'चम्पा ! एक रुपया दे दो।'
हुकुम करते उन्हें क्या जोर आया? मैंने पूछा-'रुपया कैसा?' वे तड़ककर बोले-'कैसा? कैसा? गाने-बजाने का।' उन्होंने रोब गांठा । पर मैं देता कहां से?
२१८ आसीस
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रुपये तो तकादे के थे, पूरे आना-पाई सहित गिने-गिनाये । दूं तो कहां से? न दूं तो खतरा था । बिना कुछ बोले मैंने रुपया निकालकर दे दिया ।
सवाल तो अब था एक रुपये का हिसाब क्या दूंगा ? उन्होंने रास्ते भर मुझे तरकीबें समझायीं । मैं गद्दी (दुकान) आया । चेहरा उड़ा हुआ था । मन में रुपये घटने की चिन्ता थी । उसे तो घटना ही था । इतनी हथफेरी जानता नहीं था । नया नया शिकारी जो था । तकादे की थैली रोकड़िये को पकड़ा दी। रुपया घटा । मैंने उसकी कमी को पूरा बताने दुबारा गिने । थैली को उलटाकर झटकाया । इधर-उधर देखने का नाटक रचा। पर रुपया थैली में तो था नहीं जो झटकाने से निकल आये । अपनी अनभिज्ञता बतायी। झूठ का आश्रय लिया, गिनती में फर्क रह गया होगा ? पर भीतर से आत्मा रह-रहकर बोल रही थी - चम्पा ! अब ? मैं उदास - हताश, खोया-खोया-सा, मामाजी के पास आया ।
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मामाजी हमीरमलजी कोठारी देखते ही समझ गए, मेरी परेशानी । उन्होंने अपने पास बिठाया और पूछा। मैंने सच - सच सब कुछ बता दिया । वे बड़े विज्ञ थे । उन्होंने मुझे आश्वासन दिया, 'घबराओ मत, यह कलकत्ता है, यहां जाने ऐस कितने ही लोग मिलेंगे । बच-बचकर चलना सीखो। सावधान रहो। कुछ भी नहीं बिगड़ा, एक रुपये में ही निपट गया। यहां तो तकादे की थैली भी छीनी जाती है और जान भी खतरे में होती है । जो हुआ, भूल जाओ । पर आगे सचेत रहना । किसी की बातों में मत आना ।
मेरा मन भीतर ही भीतर कसमसा रहा था। रात को नींद नहीं आई । मैंने दृढ़ निश्चय किया, एक निर्णय लिया । फिर जब कभी भाई साहब सामने आते दिख जाते, तो मैं अपना रास्ता ही बदल लेता । मैंने एक रुपये में अक्ल यों सीखी
कहो ! करणियो के करै, जद बाड खेत नैं खाय । एक रुपैये में टली, 'चम्पक' कुसंग बलाय ॥
संस्मरण २१६
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आत्माभिमुख
तब एक सामान्य-सी घटना भी व्यक्ति के लिए विशेष बोधक बन जाती है जब जन्मांतर के संस्कार परिपाक लेकर उभरते हैं । मन बदल जाता है । एक घटनाप्रसंग पर भाईजी महाराज के साथ भी ऐसा ही हुआ। संसार का प्रत्येक पदार्थ उन्हें हिलता-सा नजर आने लगा। इसी चिन्तन ने उन्हें आत्मदर्शी बना दिया ।
__ कोठारी चैनरूप जी तकादे गये थे। उनके साथ बारदानेवाला जमादार था। सामने एक गुण्डा मिला। पड़ोस से निकलते हुए उसने चैनरूपजी के कन्धे पर टक्कर मारी। चनरूपजी शरीर से मजबूत काठी वाले थे। थे भी साहसी, बहादुर । गुंडा पुनः लौटा । उसने तकादे के पैसों वाली लाल थैली छीननी चाही । झपट मारी। चैनरूप के बगल में दबी थैली जब उसके हाथ न लगी तो उसने उनके दाहिने कन्धे पर छुरा मारा। सावधान चैनरूपजी उसके वार को नाकाम कर गए । वे बाल-बाल बचे । उसने सीने पर हाथ मारा । चैनरूप ने दूसरे हाथ से उसे रोक दिया। वह भाग छूटा। भीड़ इकट्ठी हो गयी। इस हाथापायी में चैनरूपी के कोट का गिन्नी वाला बोताम (बटन) टूटकर कहीं गिर पड़ा । जमादार ने ढूंढा वह भी मिल गया । घर आये। किसी से कुछ नहीं कहा । सो गए।
प्रातः मुन्ना सनावत (गुंडों का सरदार) आया। चौकीदार बहादुर सिंह से बोला-बाबू का क्या हाल है ? ठीक-ठाक तो है चैतू बाबू ? बहादुर सिंह ऊपर आया । सब कुछ सामान्य था । मुन्ना चला गया। __ चैनरूपजी उठे, नहाए । कन्धे पर चरमराहट लगा । विशेष ध्यान नहीं दिया, कपड़े पहनने लगे। जाकेट फटी हुई थी। कोट भी फटा था। कमीज संभाला, बनियान देखा । अब गया ध्यान कन्धे पर, छुरे की नोक का जरा-सा निशान कन्धे पर था।
कोठारी हमीरमल जी को पता चला । रात की सारी घटना सुनी। दुपहरी २२० आसीस
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में मुन्ना पुनः आया । कोठारी जी के पांव छूकर कहने लगा- बाबाजी ! नमस्ते ।
हमीरमलजी बोले- 'मुन्ना ! मरवा देता न तेरे रहते यह हाल ?' मुन्ने ने माफी मांगते हुए कहा - 'बाबाजी ! आपका दिनमान सिकन्दर था । वरना आज हम नीमतलाघाट (कलकत्ता का श्मशान) ही मिलते। बाबाजी ! जो कुछ हुआ भूल जाइये ।'
वह सायंकाल अपने साथी को लेकर आया । माफी मंगवाकर हम सभी बच्चों की पहचान करवायी । भाईजी महाराज फरमाया करते थे । उस दिन के बाद मेरा मन बदल गया । जीवन की नश्वरता का एक बोध हुआ ।
मैं खोया-खोया-सा उदास उदास रहने लगा । मेरी आत्मा किसी अचित्य के चिन्तन की गहराई में मन ही मन कुछ नया निर्णय कर चुकी थी ।
चैनरूपजी री घटी, घटना घड़गी इतिहास | इं अनित्य संसार स्यूं ' चम्पक' बण्यो उदास ॥
संस्मरण
२२१
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लाडनं में कांटा-भाटा
लाडनूं का मीठा और गहरा स्वास्थ्यप्रद पानी, खुली आबो-हवा, ऊंचाई पर बसी बस्ती, आत्ममुखी दृष्टि वाले लोग, कुल मिलाकर अलभ्य विशेषताओं का धनी लाडनूं नगर अपने आपमें अनौपम्य कहा जा सकता है। श्री भाईजी महाराज को बचपन से ही अपनी मातृभूमि पर सात्विक अभिमान था। वे सदा लाडनूं की गौरवगाथा मुक्तकंठ से गाया करते।
वि० सं० १६.२ का चातुर्मास बीदासर सम्पन्न कर श्री कालूगणीराज लाडनूं पधार रहे थे। 'खानपुर' के पास की कंकरीली धरती, नंगे पांव चलने वालों को अक्सर परेशान करती ही है। उस दिन चांदमलजी स्वामी अधिक परेशान हुए होंगे। उनका कवि हृदय उकता गया। सरदी के दिन । कंकरों पर चलना कठिन पड़ रहा था। इधर-उधर बाड़ के कांटे थे। इतने में पीछे से आए चम्पक मुनि (श्री भाईजी महाराज)। चांदमलजी स्वामी और चम्पक मुनि अभयराजजी स्वामी के साझ-मंडल में साथ-साथ रहते थे। चम्पक मुनि को देख चांदमलजी स्वामी बोले-'चम्पा ! यह क्या तेरा लाडनूं है ? कांटों और कांकरों से पग फूट
'लाडन में कांटा-भाटा, सुजानगढ़ में सी,
बीदासर में दूध मिसरी, पोल-घोल पी। चम्पक मुनि से नहीं रहा गया। उन्होंने भी लाडनूं की प्रशस्ति में एक पद्य बनाया और जब-जब संत कहते—'लाडनूं में कांटा-भाटा' तो भाईजी महाराज जवाब में कहते-संतो ! यह लाडनूं है, इसकी होड कोई कर सकता है ? यह हो न, औरों का काम चले ! इस धरती का क्या कहना ! २२२ आसीस
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संता! गरज दूधरी पाल, लाडनूं रो पाणी, हर मौसम मैं साताकारी, हेल्यां बड़ी सुहाणी॥ इर्या समिति देख'र चालो, चेतावै मैं कांटा, आसपास रा गांव बसाव, लाडनूं रा भाटा।
संस्मरण २२३
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लाडनू-लंदन
१९८६ लाडनं चातुर्मास में एक बार कविवर मुनिश्री चांदमल जी स्वामी के पैर में पुरानी बाड़ का कांटा चुभ गया। कोशिश की, पर वह नहीं निकला। उस युग के कांटा-विशेषज्ञ चौथ मुनि, सोहन मुनि (चूरू) आदि कई संतों ने खूब मेहनत की, पर कांटा भुरता (टूटता) गया, आखिर पुरानी बाड़ का जो था। सभी ने परामर्श दिया-'अब इसे छोड़ दो, फाबे (पंजे) में बेढब चुभा कांटा अड़ गया है, खोदतेखोदते पांव बींध गया है, अब यह अभी नहीं निकलेगा।
चांदमलजी स्वामी की पीड़ा देख चम्पक मुनि से नहीं रहा गया। वे बोले, एक बार मुझे दो। वे बैठे । सबने मना किया, पर देखते-देखते गहरा शूल का सांता दिया कि कांटा नोक सहित एक ही सपाके में ऊपर आ गया।
पास खड़े सोहन मुनि (चूरू) ने कहा-'वाह रे ! लाडनूं का पानी' सुनते ही वेदना-व्यथा भरा चांद मुनि का कवित्व जाग उठा, उन्होंने कहा
कांटा भाटा कांकरा, और लौह का पात। चम्पा ! थांरी चंदेरी री, च्यारूं बातां ख्यात ॥
भला, लाडनूं की हल्की बात चम्पक मुनिको कब सुहाती। उन्होंने भी प्रतिवादी पद्य बनाया और उत्तर दिया
सीधी पट्यां सांतरी, और दूध सो पाणी,
सन्तां ! म्हारोलाडनूं, लन्दन री सहनाणी। सुनते ही सारा वातावरण स्मित हास्य से मुखरित हो उठा।
२२४ आसीस.
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लाडनं की बाड्यां
चांदमलजी स्वामी (जयपुर) एक अल्हड़ कवि संत थे। उनकी कविताओं की शानी तेरापंथ के इतिहास में नहीं मिलती। प्रकृति में अवश्य उफान था, पर थे बड़े सरस और विनोदी । चम्पक मुनि से वे बहुधा विनोद किया करते-चम्पा ! तुम्हारे लाइन में क्या पड़ा है ?
उस दिन चांदमलजी स्वामी देरी से आए। शायद उस समय भी पंचमी समिति के स्थान की दुविधा ही थी। चातुर्मास में और भी संकडाई हो जाती हो। लाडनं यों ही ऊंचाई पर बसा है। वहां धोरे-रेत के टीले नहीं के बराबर हैं। चांदमलजी स्वामी को स्थान सुलभ नहीं हुआ होगा। देरी से आने पर संतों ने देरी का कारण पूछा। वे तो भरे हुए आये थे। आते ही उन्होंने कहा-लाडनूं में स्थान है कहां जो झट से आ जाता ?
नहिं कोई धोरा, नहीं कोई ओला, नहीं कोई बोझा-झाड यां। लाडनूं में काम निकालण, आगें पाछै बाडयां ।।
यह तो सीधा लाडनूं पर व्यंग्य था। भाईजी महाराज इसे नहीं सुन सके, वे गुनगुनाए और बोले-'महाराज ! लाडनूं जैसा साताकारी क्षेत्र है कहां ? आप देखो तो सही
धोरा तपै-ठरै कट, ज्यावै, ओला-बोझा-झाड्यां ।
बारह ही पून्यूं सुखदायी, (अँ) लाडनूं री बाड्यां।। अब चांदमुनि के पास इसका कोई जबाव नहीं था।
संस्मरण २२५
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कादापट्टी ? नहिं, नहिं, हरिसन-रोड
यों तो लाडनं का भौगोलिक ढांचा ही ऐसा है-वहां पानी रुकता नहीं। ढलाऊ जमीन के कारण बरसाती पानी बहकर निकल जाता है, पर चालू बारिस में जिधर से पानी का बहाव होता है वहां कीचड़ होना स्वाभाविक है । अक्सर बैंगानियों के रास्ते से गांव के ऊपरी भाग का सारा पानी निकलता है। वहां रास्ता मुश्किल से मिले, यह सहज बात है। आज चांदमलजी स्वामी का उधर जाना था। कीचड़ ज्यादा था । वे उकता गए । ज्योंही ठिकाने आये, आते ही उन्होंने चम्पक मुनि से कहा--'चम्पा!
सुन्दर हेल्यां रंग रंगील्यां, और गोचरी कटठी।
(पर) बैंगाण्यां रो रस्तो के है ? सागी कादापट्टी। भाईजी महाराज प्रारंभ से ही बैगानियों के महाराज कहलाते रहे हैं। कुछ जन्मगत संस्कार ही कहें। सेठ जीवणमलजी बैंगानी तो भाईजी महाराज को देखते ही झूम उठते थे । कभी-कभी तो वे भावावेश में चम्पक मुनि को बांहों में भरकर उठा लेते । सारे बैंगानी परिवार के बच्चे भाईजी महाराज के पास ही बैठते । उन्हीं से सीखते-नमोकार-तिक्खुतो, सामायिक-पाठ, पच्चीस बोल, चर्चा।
भला, भाईजी महाराज उस परिवार के मोहल्ले के संबंध में और फिर लाडनूं के एक प्रतिष्ठा प्राप्त घर-घराने के लिए ऐसी बात कैसे सुनते ? उन्होंने जवाबी पद्य में कहा
'पुन-सागर -सुमेर- जस्सू- रणजीतो- हनुमान, पेहर्या ओढ्या देवकुंवर-सा, औ टाबर पुनवान । बैंगाणी परिवार अनोखो, देखो! मन रो कोड। दगग-दगग रस्तो बेहवै है, जाणै हरिसन रोड ।
२२६ आसीस
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१६ राम-चारत्र, एक रहस्य, एक हेतु
वि० सं० १९८६ लाडनूं चातुर्मास में श्री भाईजी महाराज ने रामचरित्र कंठस्थ करना प्रारम्भ किया। वे रामायण सीखते तो थे पर सन्तों से छुपे-छुपे । उन दिनों सोहन मुनि (चूरू) और चम्पक मुनि में अच्छा खासा विनोद चला करता। दोनों मगनलालजी स्वामी (दीवान जी) के साझ-मंडल में पात्री-जोड़ी करने के काम में नियुक्त थे । सोहन मुनि को राम-रास सीखने की भनक लगी। पात्री जोड़ी करते-करते सोहन लाल जी स्वामी ने रहस्योद्घाटन करते हुए कहा-सन्तो! सुनो। सुनो। एक नयी बात । तुम्हें पता है, चम्पक मुनि राम-चरित्र क्यों सीख रहे हैं ? उन्होंने एक पद्य रचा और गाते हुए कहने लगे
'रामायण मुहड़े करस्यूं मैं आगेवाण . विचरस्यूं खांधे पर ओघो धरस्यूं कर अभिमान, मान-मान छांन , चम्पक मुनि रामायण सीखे जाण-जाण-जाण'।
यह व्यंग्य, चम्पक-मुनि को अच्छा नहीं लगा। न उनके मन में अग्रगण्य विचरने की हूंस थी, न अभिमान का भाव ही था, पर उस युग में रामचरित्र सीखने का सीधा कोण यही माना जाता रहा । सन्तों में नयी चर्चा छिड़ी, क्योंकि एक नया रहस्य संतों के हाथ लग गया था।
भाईजी महाराज ने भी एक उत्तर पद्य बनाया और दूसरे दिन जब सोहन मुनि ने वही पद्य फिर संत-मंडली में उथला, तो चम्पक मुनि बोल पड़े--
संस्मरण २२७
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संतां ! मैं रामायण इसलिए सीख रहा हूं
जद राम चरित्र मंडासी, गणिवर ढालां फरमासी। चम्पो भी कंठ मिलासी, मधरी तान, तान, तान। सोहन मुनि ! मत करो मसकरी,
संत सुजान जान जान । यह सुनते ही पूरा वातावरण मुखरित हो उठा।
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लाडनं की रेल
उन दिनों लाडनूं रेल की मुख्य लाइन से जुड़ा हुआ नहीं था। केवल सुजानगढ़ से लाडनूं तक एक टुकड़ा-अद्धा चला करता । वह भी टेम-बेटेम । न स्टेशन था, न सिगनल था। एक बार सुजानगढ़-लडनूं के बीच कविवर चांदमल जी स्वामी ने रेल देखी, वह धीरे-धीरे चल रही थी। उन्होंने चम्पक मुनि से कहा-चम्पा ! देख ! देख !
टूट्या भांग्या तीन डबलिया, इंजन बढ़ो बैल !
देख, सिसकती चाले चम्पा ! लाडनूं री रेल । सच, वह चलती तो ऐसे ही थी, जैसा चांद-मुनि ने कहा, पर लाडनूं की हर बात सदा चम्पक मुनि को सुहावनी ही लगती । मातृभूमि का गौरव उनकी नसनस में रमा हुआ था। ___ भाईजी महाराज ने कहा-महाराज ! आपका कहना तो सही है, पर यह लाडनं की रेल है। देखिये ! कैसी मस्ती से चलती है। मस्ती से चलना भी किसीकिसी को आता है। जरा दृष्टिकोण बदलकर देखो-सिसकती नहीं, मलकती कहो महाराज ! मलकती। साधन सामग्री के अभाव में भी जो संतुष्ट और मस्त रहता है, यही तो साधना का सार है, देखिये
. 'तार नहीं, टैम नहीं, नहिं दियै में तेल।
तो ही चाल मलकती चाल, म्हारै लाडनूं री रेल । है न इस रेल की भी विशेषता । क्योंकि यह लाडनूं की है, लाडनूं की।
संस्मरण २२६
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तीर्थभूमि लाडनूं
आचार्यश्री तुलसी ने अपने ज्येष्ठ बन्धु स्वर्गीय भाईजी महाराज को अंतिम श्रद्धांजलि चढ़ाते हुए कहा था
शहर लाडनूं रो तो बो हो सारां सिरे सपूत, जन्म-भूमि रो गौरव गातो दे दे बड़ी सबूत। इणने इण खातर मत छेड़ो, श्री काल फरमायोः आयो, चम्पक मुनिवर चांदज्यूं, हो चांद ज्यूं।'
यदा-कदा सन्त लाडनूं के बहाने चम्पक-मुनि से चुटकी लेते और उन्हें प्रतिवाद में लाडनूं की गौरव-गाथाएं सुनने को मिलतीं।
कभी-कभी विनोद, विवाद का रूप ले लेता तो श्रद्धेय कालगणी जी फरमाते-चम्पा ! तेरा क्या लेता है, कह लेने दे इन संतो को, तू क्यों बोलता है ? और भाईजी महाराज अर्ज करते--गुरुदेव ! आप ही फरमायें, लाडनूं है न विशेष सानी रखने वाला क्षेत्र ? इसकी जोड़ी का है कोई दूसरा गांव ? ___कालूगणी फरमाते-हां, हां, तेरे लाडनूं की होड़ कौन कर सकता है । लाडनूं तो लाडनूं है । सुनते ही चम्पक मुनि का सेर खून बढ़ जाता और वे कहते-देखो, सन्तों! पूजी महाराज ने क्या फरमाया-लाडनूं की बराबरी कोई नहीं कर सकता । यह तीर्थ-भूमि है, तीर्थ-भूमि । पुण्य भूमि, सिद्ध-भूमि । तपोभूमि, साधनाभूमि।
विवाद को विनोद में बदलते हुए श्रीमद् कालूगणी फरमाते--संतों! चम्पालाल को लाडनूं के लिए मत छेड़ा करो। इसके मन में मातृ-भूमि के लिए अगाध स्नेह है।
२३० आसीस
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एक बार ओघड़ कवि चांदमलजी स्वामी ने किसी ऐसे ही प्रसंग पर कहें दिया
'दूध-दही तो रह्यो कठे ही, मिले न पूरी रोटी। चाटां के चन्देरी री औ, हेल्या मोटी-मोटी।'
और चम्पक मुनि ने कहा, बताते हैं
द्रव्य घणा, दाता घणा, (पर) अंतराय अगवाणी,
ढंढण रिषि ने राजग्रही में, मिल्यो न भोजन-पाणी॥' यह दोष राजग्रही या लाडनूं का नहीं, करमों का है-महाराज ! चांदमल जी स्वामी को ढंढ़ण मुनि की उपमा बुरी लगी। वे नाराज हुए और कई दिनों तक अनबोल रहे।
संस्मरण २६
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सावधानी का संकेत
सर्व सम्पन्न ओसवाल समाज में श्रीसंघ और विलायती का एक विवाद बंगाल से उठा । इन्द्र बाबू दुधोड़िया विलायत जाकर आये । समाज ने उन्हें जाति- बहिष्कृत किया। सबसे पहली पंचायत वि० सं० १९४६ मिगसर शुक्ला १० दिनांक २-१२-१८८६ कलकत्ता में बैठी । विवाद ने तूल पकड़ा। भाई-भाई बंट गये । कितने सगपन टूटे। कितनी बेटियां मां-बाप के स्नेह से वंचित हुईं। गांव-गांव और घर-घर में दो पक्ष खड़े हो गये । आपसी खान-पान, लेन-देन और बेटी - व्यवहार बंद हो गया ।
श्री भाईजी महाराज के दादा राजरूपजी खटेड़ ने उसी प्रसंग पर नौकरी छोड़ी । वे नेमचन्द हरखचन्द दुधोड़िया - सिराजगंज के करतम-धरता मुनीम थे । राजरूपजी श्रीसंघी थे और मालिक दुधोड़िया जी विलायती जाति - बहिष्कृत |
वही झगड़ा थली में देशी - विलायती के नाम से उठा । चूरू उसका मुख - केन्द्र बना । सुराणा शुभकरण जी (तेजपाल वृद्धीचंद ) की बारात अजमेर लोढ़ों के यहां गयी । वहां राजा विजयसिंहजी ( विलायती ) पहुंचे । एक ओर चूरू के कोठारी दूसरी ओर सुराणा, दोनों ही दिग्गज । देशी - विलायती के नाम पर परचेबाजी चली । कितने विवाह मंडप उजड़े। कितने बिरादरी के भोज बिगड़े । बढ़ते-बढ़ते उस विवाद ने धर्म-संघ पर भी हाथ डालने का असफल प्रयत्न किया । श्रावक समाज के दो गुट धीरे-धीरे साधु-समाज को भी घेरने लगे । भीतर ही भीतर कुछ साधु देशी और कुछ विलायती माने जा रहे थे । उनका आपसी वार्तालाप भी एकदूसरे पक्ष को हीन श्रेष्ठ कहते नहीं चूक रहा था । यद्यपि आचार्य कालूगणी जी बहुत सजग और निष्पक्ष नीति से माध्यस्थ भाव बरतते रहे । स्थिति पर उनकी अच्छी नजर थी।
वि० सं० १९८६ पूज्य प्रवर राजलदेसर पधारे । व्याख्यान के बाद
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वींजराजजी वैद गुरुदेव की सेवा में पहुंचे। उन्होंने बड़े विनय से निवेदन कियाखमा घणी ! क्या सन्तों को भी देशी-विलायती के झंझट में पड़ना चाहिए? मैं शिकायत नहीं, संघीयता के नाते ध्यान खींचना चाहता हूं। अमुक अमुक साधु अमुक-अमुक पार्टी का पक्ष ले रहे हैं। कुछ मुनिजनों के पास परस्पर विरोधी छापे–पम्पलेट भी हैं। कहीं यह विष-बेल का अंकुर अहित न कर दे।
संत गोचरी गये हुए थे। मुनि शिवराज जी स्वामी (कोटवाल) को आदेश मिला। संतो के पुढे मंगवाये गये। निरीक्षण हुआ। बात सही निकली। पूज्य कालूगणी का रंग बदला । ज्यों-ज्यों संत गोचरी से आते गये, एक-एक कर पेशियां पड़ीं। उपालंभ तो मिलना ही था । पैम्पलेट रखने का प्रायश्चित्त दिया गया। मुख्यरूप से मुनि सकतमल जी, कानमल जी स्वामी, सोहनलाल जी स्वामी (चूरू) आदि सन्त उस में पात्र थे। उसी लपेट में श्री भाईजी महाराज भी आये । पूठे से एक छापा निकला। सबके बाद श्री कालूगणी ने फरमाया-चम्पा ! तू कहां उलझा? भाई ! यह काम हमारा नहीं है । आगे से सावधान रहना ! जाओ। __ इस सारी घटना को श्री भाईजी महाराज ने एक पद्य के माध्यम से हमें बताया
'किती कहूं कालू कपा, कृत-मुख करुणा-धाम। चम्पा ! तूं उलझ्यो कठे ?, (ओ) नहीं आपणों काम।'
संस्मरण २३३
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एक शब्द में पानी-पानी
गुरु गुरु होते हैं। वे अपनी गरिमा के धनी होते ही हैं, साथ-साथ वत्सलता के सागर भी होते हैं। उनकी उदारता उन्हीं में होती है। शिष्य की छोटी-बड़ी गलती की ओर वे नहीं देखते। वे देखते हैं जीवन-परिष्कार की मौलिकता।
श्री भाईजी महाराज ने अपने अनुभवों के बीच फरमाया
छापर की बात है । नाहटा रेवतमल जी की महफिल में पूज्य गुरुदेव कालूगणी का विराजना था। मंत्री-मुनि मगनलाल जी स्वामी के साथ मैं गोचरी जाया करता। उनकी गोचरी-कला, द्रव्यों की परख, खपत का अनुमान, दाता का अभिप्राय और समयज्ञता सीखने-धारने जैसी थी । दूसरी बार किसी छोड़े हुए द्रव्य को लाना उन दिनों मेरा काम था । मुझे भेजा गया । मैं चने की दाल अधिक ले आया। ले क्या आया, दाता ने भावावेश में अधिक डाल दी।
कालूगणी ने मुस्कराकर फरमाया-इतनी कैसे लाया ? मैंने निवेदन किया, लाया नहीं गुरुदेव ! बहराते समय ज्यादा डाल दी।
मगनमुनि बोले-'थारै तो गोबर ही न्हाख देई ? है भभेक ? मूरख कठई को, जा लेजा, आपां रै रीत है—'बत्ती ल्यावै बीन सूप देणी।'
उपालंभ के तेज-स्वरों में कही गई बात मुझे चुभ गयी । कुछ उन्मने भाव से मैं दाल की पात्री ले साझ-मंडल में आया। किसी को बिना कुछ कहे दाल पीने बैठ गया। संतों ने पूछा- क्या बात है ? मैं कुछ नहीं बोला । सोहन मुनि चूरू, तपस्वी सुखलाल जी स्वामी और मुनि जसकरण जी ने टोकते हुए कहा--करते क्या हो ? कोई खराबी हो गई तो? पर मैं कब सुनने वाला था । दाल पीता गया। जब संतों ने पात्री पकड़ी तो मैंने अपनी लय में कहा-नहीं-नहीं, कुछ नहीं होगा, मगनलाल जी स्वामी ने बख्शाइ है। मंत्री-मुनि आहार-मंडली में पधारे। संतों ने शिकायत की। मगन मुनि ने 'वज्र मूर्ख है' कहकर बात टाल दी।
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कालूगणी को पता चला-मुझे नजदीक बुलाकर वात्सल्य उंडेलते हुए फरमाया-चम्पालाल ! ऐसा नहीं करते, वह तुझे अकेले को थोड़े ही सौंपी थी। मगनलाल जी स्वामी तो तुम्हारी गंभीरता परखते थे। जाओ, आइन्दा ध्यान रखना। बस, एक शब्द में मेरा जहर उतर गया। मैंने मंत्री मुनि से सविनय क्षमा मांगी।
'गुरु की गुरुता गजब की, वत्सलता अनपार । एक शब्द में ही दियो, म्हारो जहर उतार ॥'
संस्मरण २३५
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जीवन का एक सौभाग्य : सेवा
सेवा सेवा है। उसमें विनिमय नहीं होता। तुम करो तो मैं करूं, यह तो गधा खाज है । एक गधा दूसरे गधे की खाज तब तक करता है, जब तक वह करे, एक छोड़ता है दूसरा भी छोड़ देता है । हम सेवाव्रती हैं । संघ हमारा है, हम संघ के हैं। संघ का हर सदस्य अपना है। छोटा-बड़ा. कामल-बेकाम, अपना-पराया-यह भेद संघीयता में खटता है। हमारा कलेजा सवा हाथ का हो। विचार उदार रहे । सेवा में न आदेश का इंतजार होता है और न विनय की प्रतीक्षा । जो कुछ भी हम करें निर्जरा के लिए करें। प्रशंसा लोकषणा-से परे हमारा हर सेवा-कार्य संघीय गौरव के लिए हो । इसी का नाम तेरापंथ है, जहां सबके लिए हम और हमारे लिए सब
वि० सं० १९८६ का मर्यादा-महोत्सव श्री डूंगरगढ़ में हुआ। होली बीदासर की फरमायी गयी। श्रद्धेय कालूगणी जी महाराज का ससंघ रीडीगांव से विहार हुआ। रीड़ी और धर्मास के बीच पांच कोस का लम्बा रास्ता था। रास्ता भी रेगिस्तानी धोरों का। मुनि सम्पतमल (डूंगरगढ़) नये-नये दीक्षित थे। उमर भी क्या थी ? कुल नौ वर्ष । पहला-पहला विहार। सर्दी का मौसम । नये मुनि ठिठुरा गये । शरीर कांपने लगा। बेचारे चले भी कब थे ? जब उनसे चला नहीं गया, वे बैठ गये । मैं (श्री भाईजी महाराज) पीछे से आया। देखा, बाल मुनि परेशान हैं। पांव ठर गये हैं।
मेरा कर्तव्य-बोध मुझे कुछ सहयोग करने को कह रहा था। और मैं क्या योग्य था जो कुछ कर सकू। मैंने सम्पत मुनि को अपने कंधे पर उठाया और लगभग तीन कोस सकुशल धर्मास पहुंचाया। बीच में मिलने वाले संतों ने मेरा सहयोग किया। उस दिन मेरे मन में एक अचिन्त्य खुशी थी। लगता था आज मैंने कुछ किया है।
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पूज्य गुरुदेव कालूगणीजी ने सब संतों के बीच संघीय भावना की शिक्षा देते हुए मुझे इक्कीस कल्याण से पुरस्कृत किया। संघपति सदा सेवा को प्रोत्साहन देते
- समय पर संघसेवा का ऐसा अवसर मिले यह जीवन का सौभाग्य होता है। संतों! अवसर मत चूको । उत्साहपूर्वक की गई सेवा निर्जरा-महाकल्याण का हेतु है। संघ का काम संघ से चलता है, संघ से बड़ा और कोई नहीं।
'संतां ! शासन में सदा, सेवाधर्म अतुल्य । श्रीकाल करुणा करी, आंक्यो सेवा-मुल्य ॥'
संस्मरण २३॥
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सुमिरन अचिन्त्य शक्ति है
भय आदमी के मन की संज्ञा ही है। उसे डर लगता है, पर डर कुछ है तो नहीं। सामान्यतया कोई किसी का कुछ बिगाड़ता नहीं जब तक सामने वाला हमसे आहत नहीं होता । हम भी डरते हैं और वह भी डरता है । कष्ट सबको अप्रिय है । जानवर भी प्रेम चाहता है, प्रेम करता है, यदि हम उसे अभय कर
भाईजी महाराज ने फरमाया-मैं प्रारम्भ से ही निडर था । आज भी आमनेसामने मुझे डर कम ही लगता है । हां, बहम से तो कई बार रात-रात भर मुझे भी नींद नहीं आती। किसी भी विषले जानवर को देख लेने के बाद मैं प्रायः नहीं डरता। सांप, बिच्छू और कांसलाव को मैं बिना झिझक के कपड़े से ही पकड़ लेता हूं । क्षुद्र जंतुओं से ग्लानि-सी होती है। ग्लानि, केवल यह कि बेचारा चिगदा न जाये, मर न जाये ।
वि० सं० १९६० की बात है। आचार्य कालूगणीजी महाराज ईडवा पधारे। पुराने उपाश्रय की चबूतरी पर अभयराज जी चोरडिया और मैं थोकड़े चितार रहे थे। बाल-मुनियों का अध्ययनशील-दल भीतर सीखने-चितारणे में व्यस्त था। मेरे पांव पैड़ियों पर लटके हुए थे। रात का समय था, अंधेर गुप्प । वह भी एक युग था। मेरे पैर पर कुछ गीला-गीला निकलता-सा प्रतीत हुआ। भिक्खू स्वाम। भिक्खू स्वाम, करता मैं क्षण भर स्थिर रहा । झटका देकर उठा कि चोरड़िया जी ने पूछा-क्यों। क्या बात है ? महाराज ! मैंने कहा-कोई जानवर-सा है। उन्होंने प्रकाश लाकर देखा तो दो-अढ़ाई हाथ लम्बा काला मोटा सांप था। जब तक मेरे
रों पर से वह पूरा नहीं निकल गया, मैं नहीं हिला । आज सोचता हूं, गुरुदेव की कृपा ही थी, मैं निडर होकर स्थिर रह सका। यदि हिला होता तो शायद वह भी डरता और छिड़ जाने के बाद मुझे काटता भी।
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सतों ! जब कभी ऐसा अवसर आये, स्वामाजी का स्मरण करा । वह नाम अचिन्त्यमहामंत्र है ।
सुमिरन शक्ति अचिन्त्य है, परखो धर अनुराग । निकल्यो निबियै ईडवें (जद) पैरां पर स्यूं नाग ॥
संस्मरण २३६
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सेवार्थी की पहचान
पूज्य-पाद श्रद्धेय कालगणी फरमाया करते थे-कठिन श्रमवाली सेवा औरों पर मत डालो । अकेले स्वयं से वह पार न पड़े तो किसी सहयोगी को चुनो,पर जीमत चुराओ, मुंह मत लुकाओ । 'अहं प्रथमः' का उत्साह ही सेवार्थी की असल पहचान है ।
__ श्रीभाई जी महाराज ने अपना एक उदाहरण देते हुए बताया, मुसालिया (मारवाड़) की बात है। भयंकर गरमी के दिन । मध्य दुपहरी में बाल-मुनि सम्पत, पंचमी समिति के लिए बाहर गये। सरदार नाहरसिंह साथ में था। अनजान संपत मुनि नदी में चले तो गये । वह गरम-गरम तपी हुई बालू । अब लगे पैर जलने । वे वापस नहीं आ सके । पैरों में फफोले पड़ गए। रोने लगे। सरदार नाहरसिंह ने दौड़-दौड़े ठिकाने आकर गुरुदेवसे निवेदन किया। उस समय कालूगणी महाराज की सेवा में मैं बैठा था। आचार्य देव ने फरमाया-चम्पा ! सुखलाल को बुला तो। मैंने निवेदन किया-क्यों गुरुदेव ? आचार्यवर ने कहा-नानक्या ने ल्याणों है रे?
मैंने निवेदन किया-सुखलाल जी स्वामी क्या करेंगे? मैं ही ले आता है।
श्री जी ने फरमाया-पर बहुत जलते हैं, तेरे से पार नहीं पड़ेगा। उसी को बुला।
मैंने गुरुदेव के चरण पकड़ लिये—'यह अवसर तो मुझे ही बख्शाइये, विश्वास कीजिए, आपकी दया से सब पार पड़ जाएगा।'
गुरुदेव ने कंबल साथ लेकर जाने का आदेश फरमाया। गुरु गुरु होते हैं । उनकी महानता उन्हीं में होती है। आचार्य हर समस्या का समाधान भी जानते हैं। यदि उस दिन कंबल लेकर नहीं गया होता, तो नदी की रेत पार कर आना मुश्किल था। संपत को उठाकर लाना पड़ा। उसके पैरों में छाले पड़ गये थे, उसके क्या मेरे पैरों में भी छाले पड़े। चेहरा लाल-लाल हो गया। ज्यों ही संपत को
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लेकर मैं आया, गुरुदेव ने मुझे शाबासी के साथ ३१ कल्याणक से पुरस्कृत किया। सन्तों ने मेरी हिम्मत सराई । मगन-मुनि ने दाद दी और मुनि जीवराज जी (संपत के संसार पक्षीय पिता) ने कृतज्ञता व्यक्त की।
आचार्य प्रवर ने फरमाया-सेवा भावना का पता ऐसे मौके पर लगता है । 'सेवा री शोख इंरो नांव' ।
'संतां! कठिन-कठिन सेवा को, अवसर जद कद आव। सब स्यूं आगे रह सेवार्थी, 'चम्पक' भाग्य सरावै ॥'
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वीरमती
बीकानेर लाल कोठरी से निकलते ही उनका पहला मकान है । वैसे तो वे जैन हैं, उन पर दिनों साम्प्रदायिक वैमनस्य के कारण आपस में खूब तनाव रहा करता था । वहां भी वही हाल था। पड़ोसी और विरोध में रस लेने वाला फिर तो क्या पूछना ? उस घर की माजीका असल नाम क्या था, मैं नहीं जानता पर साधारणतया सब लोग उन्हें 'वीरमती मां' कहा करते थे।
वीरमती आभानगरी के महाराजा चन्द की सौतेली मां थी। वह बड़ी कौतुककर्मी, जादू-टोनों में माहिर और कड़क स्वभावी थी। उसके चंड-स्वभाव से सभी कांपते थे। चंड-चरित्र की वह वीरमती कथा-प्राण थी । वही हाल हमारी इस मांजी का भी था। सारा परिवार कांपे, इसमें कोई बड़ी बात नहीं, पर पूरा मोहल्ला मांजी की धाक से धूजता था। कोई भी परिचित मांजी की प्रकृति से अपरिचित नहीं था। मांजी जब राजी होती, सात हाथ की सोड़ में सोवो, पर नाराज होने के बाद वह छींट नहीं छोड़ती। पर, न जाने क्यों ऐसे लोगों से भाईजी महाराज की खूब पटती थी।
वि० सं० २००२ के जेठ की बात है। उन दिनों वीरमती मांजी के घर कमठा (चुनाई का काम चल रहा था। पिरोल दरवाजे के ऊपर मालिया बन तो गया था, पर अभी लिपाई हो रही थी। बाहरी लिपाई के लिए ऊपर से एक खाट लटकाई। खाट के उस मंचान पर चढ़े कारीगर लिपाई कर रहे थे। तीन आदमी मंची पर बैठे काम कर रहे थे। ऊपर से एक व्यक्ति और उतरने लगा। संयोगवश भाई जी महाराज उसी समय उधर से निकले।
मुनिश्री ने मिस्तरी को आवाज देते हुए कहा-अरे भाई ! देखना जरा, हमें तो निकल जाने दो। कहीं ऊपर से दीवार न खिसक जाये?
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'गोली गार दिवार थे, चढ़ग्या लड़दा च्यार।
ढहण रा 'चम्पक' ढचक, ए साहमा आसार ॥' नयी चुनी हुई गीली दीवार है । तुम तीन तो इस मंची पर बैठे ही हो, चौथा और उतर रहा है। ____ उनमें से एक ने बीकानेरी बोली में कहा-'भीतो ढह्या करै है क्या? थों ढूंढिया क्या जाणो' ?
__ भाई जी महाराज शीघ्र गति से लाल कोठड़ी के चौक में पहुंचे । अडडडड...। एक आवाज आई, मंचान पर बैठे लोग चिल्लाए । घूमकर देखा, एक ओर की दीवार खिसक गयी थी। मंचान का एक भाग झुक गया। एक आदमी लटक गया। दो जन कूदकर खिड़कियों के रास्ते से भीतर पहुंच गये । एक व्यक्ति बेचारा रस्सी के बल अब भी अधबिच में झूल रहा था। पर चोट किसी के नहीं आई। सभी बालबाल बचे । ___ आवाज सुनते ही मांजी वीरमती दौड़कर बाहर आई। चारों आदमियों को नीचे बुलाया। दो-पांच गालियां डांटी। उन्हें लेकर लाल कोठड़ी के चौक में आई
और भाईजी महाराज के चरणस्पर्श करवाकर बोली-रोंड़रा ! थों क्या जाणीस महारासा ने?'
मांजी उन्हें समझा रही थी-सन्तों का प्रताप था, आज तुम बच गये । सन्तों को अनुभव होता है। देखा ! भाईजी महारासा की बात कितनी सच निकली।
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२८ पाणी लारै लहताण
श्री भाईजी महाराज की २००६ की दिल्ली यात्रा में हरियाणा आया। सैकड़ोंसैकड़ों लोग पैदल यात्रा में साथ थे। हरियाणा का अग्रवाल समाज भक्ति-प्रधान और संघीय भावना से ओत-प्रोत है। भाईजी महाराज का अपना निर्णय थायथासंभव हर गांव को परसा जाए, जहां तक हो कोई खेड़ा भी न छूटे । तीन रात टौहाना बिराजकर 'लौन' के लिए विहार हुआ। २००५ चैत्र-कृष्णा त्रयोदशी का दिन था । वह हरियाणा का कच्चा मिट्टीदार रास्ता । धूप इतनी तेज निकली कि सन्तों को प्यास लग गई। रास्ते में 'धमताण' गांव आया। जमींदारों की बस्ती। छग्गु-बा बोले--मैं पानी ले आता हूं, आप रुको। वे पानी की गवेषणा में गए। एक जमींदार के घर गर्म उबला पानी मिला। छोगालाल जी स्वामी आधा पानी लाए, आधा छोड़ आए। यह सन्तों की विधि है। हमें आवश्यकता है पर गृहस्थ को भी आवश्यकता हो सकती है। सन्तों को देने के बाद पानी और बनाए, यह पश्चात् कर्मदोष है । उस गर्म पानी को ठंडा करने हमने गरणा (कपड़ा) लगाया, पानी ठर रहा था कि एक बूढ़ा जमींदार हाथ में लाठी लिये बकता-बकता आया—'कहां है वह सुसरी का साधु जो अभी-अभी पानी लाया है ? कहतेकहते उसने छग्गु-बा का हाथ पकड़ा और बोला-पानी तू लाया? बता! वह पानी कहां है? मुंह बांधकर लोगों को ठगता फिरता है ? बहुत देखे हैं तेरे जैसे मुंहपटिये ठगों को। छटांक पानी से, तेरा घोंटवा गीला होवै था । मैं जानता हूं तू मेरी बहू पर कामण (जादू-टोना) करके आया है ? बता-बता! वह पानी कहां है ? कहते-कहते उसने लकड़ी से पानी का पात्र उलटा कर दिया। वह उछलउछलकर लट्ठ तान रहा था। आज मैं नहीं छोड़ता। बहुत दिन हुए हैं तेरे को टोहते।
भाई लाजपतराय (टुहाना) और दुलीचंद (भिवानी) गर्म हो गये, बूढ़े से भिड़ २४४ आसीस
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पड़े। गांव के सैकड़ों और साथ के लोग बीच-बचाव कर रहे थे। वह बूढ़ा वेग में था। अंट-संट ग्रामीण भाषा में गालियां दे रहा था। आज मैं देख लूंगा, इन मोड़ों को। यह आधा पानी लाया और आधा क्यों छोड़ आया ? इसने टोणा किया है टोणा । मेरे में बीती है, मैं जानता हूं। मैं रोऊ तेरे उस बहनोइये को, जिसने मेरी गृहस्थी बरबाद कर दी। उसके हाथ-पांव पूरा शरीर गुस्से में थर-थर कांप रहे
थे।
श्री भाईजी महाराज कमरे से बाहर पधारे। सबको शांत किया और उससे पूछा-भाई पटेल ! क्या बात है ? पहले तुम्हें यह बताऊं। हम वे ढोंगी नहीं हैं। तेरापंथी साधु हैं । त्यागी हैं । इधर गांव के कुछ मुखिया आये। एक साधु के साथ अभद्र व्यवहार पर सबको खेद था। मुनिश्री ने कहा—पहले इसे अपने मन की बात कहने दो। हां, भाई बाबा ! बता, क्या हुआ ? हम नाराज नहीं हैं ? संत का लाया पानी ढोल देना अपराध है, पर मैं तुम्हें माफ करता हूं। पर तेरे हुवा क्या, यह तो बता?
वह अब थोड़ा ठंडा पड़ा । बोला-बैठ लेने दो तो बताऊं । भाईजी महाराज बाहर चबूतरे पर बिराजे । वह भी बैठा । लोगों का मजमा सुन रहा था। उसने कहा- तेरे जैसा ही एक मुंहपटिया आया था, दो साल पहले। वह भी इसी तरह पानी लाया था जैसे यह बूढ़लिया लाया। मैं नहीं जानता यही था कि और कोई। आधा पानी लाया, आधा पीछे छोड़ आया। उसने लाए हुए पानी में कुछ पढ़ा। मेरी बहू पर कामण-टूमण किया। मैंने न करने जितने इलाज कराए, पर वह ठीक नहीं हुई। मैं पैसों से बरबाद हुआ । वह भी नहीं बची। मेरी आत्मा रौ रही है ! बोल ! अब मैं के करूं? वैसा ही इसने भी किया ? मन्नै बता तो सही एक चूंट पानी से इसका के घींटवा (गला) गीला होवै था?
भाईजी महाराज ने कहा-ले बाबा ! अब मेरी भी सुन । अब तो तेरा बहम निकला न, तैने पानी ढोल दिया। अब तो इस पानी पर कोई कुछ नहीं पढ़ सकेगा? देख ! हम वे कामण पढ़ने वाले संत नहीं हैं। तू टोहाने के लाला रणजीतसिंह चौधरी को जानता है ? .
बूढ़ा बोला-हां-हां खूब, बड़ा मातवर आदमी है चौधरी, के पूछना उसका। भाई जी महाराज ने कहा--और भगत मानसिंह को ? बूढ़ा बोला- अरे वाह ! वो तो धर्मात्मा है, महाराज ! साक्षात् भगत, सांचा भगत। तुम उसती कैसे जाण दे हो? ___ भाईजी महाराज ने फरमाया-बाबा! हम चौधरी रणजीतसिंह और भगत मानसिंह के गुरु हैं । उन्हीं से पूछ लेना, हम कैसे हैं ? यह देख, ये रहा लाजपतराय, चौधरी रणजीत का बेटा है, बेटा । बूढ़े ने पैर पकड़ लिये। महाराज माफ करना, मैं तो तेरी इज्जत बिगाड़ने
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आया था। पर संत, तेरी शांति ने मेरा गुस्सा खा लिया । माफ करिए मेरा कसूर । चल ईब पानी गरम करवा दूं ? बूढ़े ने आग्रह किया ।
और मेरे जैसे लोग सोच रहे थे — हो गया पानी गरम ? गरम क्या होकर ठंडा भी हो गया ।
लगभग एक घंटे से ऊपर समय इसी झक-झोड़ में बीता । धूप तेज हो गई थी । संतों को प्यास सता रही थी । हमें अभी 'लोन' पहुंचना था। लोगों ने जय बोली । विहार हुआ । पर छग्गू - बा अभी तक कहे जा रहे थे— आसरे हैं क नीं ? ओ मूरखो ! म्हारैऊं ऊं करें, लकड़ीऊं डरावै मनै, ओरी म्हूं-पाणी । छग्गू बा को देख श्री भाईजी महाराज हंसे और बोले
छग्गू - बा ! आ के ल्याया, पाणी लारै लहताण । रह्या तिसाया, चढ्यो तावड़ो, वाह रे ! वाह ! धमताण ॥
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नये मकान और आज के जवान
वि० सं० २००६ में श्री भाईजी महाराज सर्वप्रथम दिल्ली यात्रा को पधारे। हरियाणा (पंजाब-पेपसू) का स्पर्श करते हुए हम नांगलोई पहुंचे । नांगलोई दिल्ली से कोई १० मील इधर है। सड़क के किनारे बनी एक पुरानी सराय में हम रुके । सराय बराये-नाम है । किसी युग में आने-जाने वाले यात्री-वाहन यहां विश्राम करते होंगे। वहां एक विशाल बरगद (बड़) का पुराना पेड़ है । उसके नीचे एक तिबारी
और साथ ही एक छोटी-सी कोठरी । पास ही एक कुआं। हम उसी सराय में ठहरे। सहवर्ती यात्री भी वहीं थे। आकाश बादलों से घिरा था। सायंकाल स्थानाभाव देख यात्री लोग आगे दिल्ली चले गए। हमें तो वहीं रहना था । हमारे पास रतन कहार (दिल्ली) और पूसाराम सेवग (राजलदेसर)-दो व्यक्ति रहे ।
कोई घंटा भर दिन रहा होगा, बारिस प्रारंभ हुई। अचानक तीव्र वेग से तूफान (बातूल) आया । एक साथ बिजली कड़की और जोर-से एक धमाका हुआ। हम सब जिस कोठरी में बैठे थे, उसी की छत पर बड़ की एक विशाल शाखा टूटकर गिरी। पूरा मकान हिल उठा, मानो कोई भूकम्प आया हो। धमाके के साथ ही कोठरी की छत और दीवार में एक मोटी तरेड़-दरार आ गयी।
श्री भाईजी महाराज दोनों कोनों में अंगुलियां दबाए, आंखें मूंदे-'भिक्खू स्वाम, भिक्खू स्वाम' 'शांतिनाथ प्रभो, शांतिनाथ प्रभो' रटे जा रहे थे। मुनिश्री को कड़कने और गर्जने का अतिशय भय लगता था । ज्यों ही मकान फटा कि आंखें खुलीं । हम सभी संत भयभीत थे। बाहर निकलने का रास्ता टूटी शाखा ने रोक लिया था।
रतन और पूसाराम तिबारी में से चिल्ला-चिल्लाकर कह रहे थे-क्या हुआ? महाराज ! क्या हुआ? श्री भाई जी महाराज ने फरमाया कुछ नहीं हुआ, डरो मत, जो होना था हो गया। अब कोई भय नहीं है । जो मकान पुराना है, उसकी नींव
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मजबूत है । गिरता तो अब तक गिर गया होता। यही तो हाल है, पुराने मकानों और पुराने आदमियों की नींवें मजबूत होती हैं। आज का नया मकान इतने में कब का गिर गया होता । न तो आज के मकानों की गहरी स्थिति है और न आज के जवानों की।
थोड़ी ही देर में वह चहका (तुफान) निकल गया। बारिश बन्द हुई। हम बड़ी कठिनता से बाहर निकले । देखा, चारों ओर वृक्षों के ढेर हो गए हैं। हमारे ऊपर जो बड़ की शाखा गिरी थी, वह कोई बाथ में भरे इतनी मोटी और कम-सेकम ४०-४५ फीट लंबी थी। छत पर चढ़कर जब देखा अभी वह कोठरी की छत पर अधर झूल रही थी।
श्री भाईजी महाराज ने फरमाया-आज का हमारा सही-सलामत रहना स्वामीजी का प्रताप है, आचार्यप्रवर की कृपा का फल है, संघ का प्रभाव है और बडेरों की पुण्याई है। भला, इतना बोझा गिरने के बाद भी मकान खड़ा रहे, बड़ा आजुबा और अनोखी बात है। पुरानी सभी चीजों की पुस्तें मजबूत होती हैंकहते-कहते मुनिश्री ने एक पद्य कहा
'पुस्त पुरांणा री पकी, मुचै न मिनख मकान। अस्थिर 'चम्पक' आजरा (ऐ) नुवां मकान जवान ।'
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चहके का चक्कर
प्रातःकाल ज्यों ही हम दिल्ली की ओर बढ़े, देखा सड़क अवरुद्ध है। सैकड़ों-सैकड़ों वृक्ष इस तरह छिन्न-भिन्न हुए पड़े हैं मानो कोई प्रलय का झोंका आया हो। पांच मील तक का रास्ता वृक्षों की टूटी डालियों ने रोक रखा है। जिधर देखो उधर वृक्षों का बेहाल है। कई-कई वृक्ष तो एकदम उलटे हो गये हैं, जड़ें ऊपर हैं और टहनियां नीचे। रात भर से दिल्ली रोहतक रोड ठप्प है। न कोई कार आ-जा सकती है और न कोई ट्रक । सुनसान वीरान-सी सड़क पर हम कभी चढ़ते हैं, कभी उतरते
एक पीपल के पेड़ को उलटा पड़ा देख श्री भाईजी महाराज के पांव बरबस थम गये। चिन्तन की मुद्रा में कुछ क्षण रुककर मुनिश्री ने फरमाया
जब चहका आता है ऐसा ही होता है। कौन उथल जाए, कौन खड़ा रहे, यह निर्णय करना कठिन है। उसी का खड़ा रहना, खड़ा रहना है, जो तूफानी झोंके में अडिग रहता है। कितने ऐसे आदमी हैं जो झोले में न डोले । भाई ! यह तो चक्कर ही ऐसा है-देखो ! इतना बड़ा देववृक्ष, जिसमें कोई कांटा नहीं, बांक नहीं, बुराई नहीं, कड़वाहट नहीं, शांत, कोमल, सुहावना, सर्वप्रिय और इतना विस्तृत । कोई चाहे कितना भी बड़ा हो, कितना भी विस्तृत हो, विद्वान हो, कितना ही लोकप्रिय हो, जिसने जड़ें छोड़ दो, वह उथल जाएगा। संघ धरती है। संघ में जो जितना गहरा और मजबूती से गड़ा हुआ है। वही खड़ा रहेगा। वातावरण के चहके में जिसके पांव उखड़ गए, वह गया समझो। बातूल का सहना कोई के वश की बात नहीं है जो उखड़ जाता है, उसकी यही गति होती है।
'चम्पक चहकै रो चकर, सह नहि सके हरेक । - टहण्यां तो नीचे टिकी ऊपर जड्यां उवेख ॥'
संस्मरण २४६
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मरख कोचवान
भाईजी महाराज का २००६ का वर्षावास पुरानी दिल्ली नया बाजार में था। उस वर्ष आचार्यप्रवर जयपुर विराज रहे थे । मुनिश्री का यह आचार्यप्रवर से अलग दूसरा चातुर्मास था। एक दिन सायंकाल तीस हजारी पुल उतरकर हम अजीतगढ़ जाने वाले राजपुर मार्ग की मोड़ पर मुड़े। एक तांगेवाला हमारे पास-पास निकल रहा था। हम देख रहे थे उसका घोड़ा बार-बार रुकता था। कोचवान चाबुक मारमारकर उसे आगे बढ़ने को बाध्य किए जा रहा था। भाईजी महाराज ने एक बार, दो बार, तीन बार देखा । घोड़ा हमसे आठ-दस कदम आगे निकलता है फिर रुक जाता है । उसका यों बार-बार मार्ग में आड़े आ-आकर रुकना मुनिश्री को सर्वथा असुहावना लग रहा था।
भाईजी महाराज के चेहरे पर करुणार्द्रता के भाव झलक उठे। ज्यों ही चौथी बार घोड़ा रुका, कोचवान ने चाबुक सड़काया कि घोड़े ने दुलत्ती चलाई । 'पड़ाक' तांगा बोला। भाईजी महाराज से न रहा गया। माथा ठोकते हुए मुनिश्री ने कहा-डफोल ! मेरे सिर पर ही आकर रोयेगा क्या? फिर रोयेगा तो पहले ही सोच ले।
मैंने पूछा-'क्यों? भाईजी महाराज ने फरमाया-क्यों क्या?
'कशा मार, खेंचे कुशा, ओ बे-अकल अजाण।
करमा नै रोसी कुशी! प्रोथी तजसी प्राण ॥' लगता है, घोड़े का पिशाब रुक गया है। यह बार-बार पिशाब करने की चेष्टा करता है। कोचवान अनभिज्ञ है। पहचानता नहीं। घोड़ा हांफ गया है। संभव है यह मूरख कोचवान घोड़े से हाथ धो बैठेगा, फिर रोएगा कर्म पर हाथ
२५०
आसीस
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धर कर ।
कोई दस ही कदम आगे चर्च की नुक्कड़ पर हटात् घोड़ा गिर पड़ा। लोगों की भीड़ जमा हो गयी । जब हम शौच निवृत्ति कर पुनः लौटे तो देखा, हट्टा-कट्टा मजबूत जवान घोड़ा मरा पड़ा है और एक ओर तांगे के पास खड़ा कोचवान रो रहा है।
संस्मरण २५१
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मैं ‘श्रमण-सागर' जैसा आज दिखता हूं, पहले नहीं था । प्रकृति में ऊफान इतना था -क्षण-भर में आपे से बाहर । मुझे सुधारने में भाईजी महाराज को बड़ी खेवट खानी पड़ी। वे, वे ही थे, जिन्होंने मेरा उचित, अनुचित सब कुछ सहा । मैं महीनोंमहीनों भाईजी महाराज से अनबोल रह जाता। हां, गुण मेरे में एक था मैंने कभी अपना स्थान नहीं छोड़ा। उनकी प्रकृति भी बड़ी कड़ी थी । यों स्वभाव सरल और स्नेहार्द्र भी हद से पार था, पर कड़ाई जब करते, वहां भी बेहद ।
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यह कैसा है, बताऊं ?
,
।
दिल्ली की बात है । एक दिन मेरा मूड बिगड़ा हुआ था । पटक-झटक उस समय सहज थी । जान-बूझकर नहीं किन्तु असावधानी से सफेद - पात्री सूखी करते हाथ से गिरी और टूट गयी । कोई लोहे का बर्तन तो था नहीं थी तो आखिर लकड़ी की पात्री ही । अब होश आया । भाईजी महाराज ने देख तो लिया पर कुछ नहीं बोले । मैं गया और असावधानीवश हुए प्रमाद की माफी मांगने लगा । उनकी उदारता भी उन्हीं में थी । मुस्कराकर फरमाने लगे – कुमाणस ! अब तो हुआ गुस्सा ठंडा ? 'पतली पाड़ पतली', अब तू बच्चा नहीं है, स्याणा हो गया है । तोड़ना था तो पात्री क्या, इस अहं को तोड़ता न ? इतने में आ गई साध्वी गौरांजी । उन्होंने आते ही कहा, भाईजी महाराज ! सागरमलजी स्वामी आपके बड़े विनीतसाताकारी संत हैं । इन्हें देखती हूं तो मेरा जी सोरा हो जाता है । ये मुझे अपने छोटे भाई-से लगते हैं ।
सुनते ही भाईजी महाराज ने फरमाया- हां-हां, तुम्हें तो ऐसा ही लगता है, पर मुझे लगे तब न । यह अक्कल का सागर कैसा है, बताऊं ?
'बड़ो कुमाणस सागरियो, गौरांजी ! थारो भाई, बाई ! ई नं समझाओ तो, मनै हुवै सुखदाई
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देखो, फोड़ी नुई पातरी, थोड़ो सो चिमठाओ
भले आदमी मैं कद आसी, अक्कल मनै बताओ?' साध्वी गौरांजी ने मेरी ओर से नरमाई करते हुए कहा-भाईजी महाराज ! ये टाबर है, टाबर तो गलती किया ही करते हैं । आप महान हैं, कृपा कर यह पात्री मुझे दिरावो। मैं सांध लाऊंगी। __साध्वी गौरांजी की विनम्रता और मेरे प्रति सहानुभूति तथा श्री भाईजी महाराज की वत्सलता और उदारता मुझे अभिभूत कर गयी। उस दिन से मेरे में एक परिवर्तन प्रारम्भ हुआ। श्री भाईजी महाराज उसी दिन से मुझे गौरांजी का भाई और साध्वी गौरांजी को मेरी बहन फरमाने लगे।
संस्मरण २५३.
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३३
रजपूती का रंग
वि० सं० २००६ का दिल्ली चातुर्मास सम्पन्न कर भाईजी महाराज जयपुर पधार रहे थे। मिगसर कृष्णा ६ को हम पन्द्रह मील का विहार कर मांडीखेड़ा पहुंचे। मांडीखेड़ा सड़क के एक ओर ५०-६० घरों की बस्ती है, चारों ओर जंगल, सुनसान । हम गांव के बाहर छोटे-से स्कूल में रुके ।
रात को कोई ६ बजे होंगे । गांव के ८-१० मुखिया आये और बोले- मुनिश्री आपके साथ बहनें-बच्चे हैं। यह स्थान जरा ऐसा ही है। चोरी-डकैती का भय रहता है । पीछे भी दो-तीन बार गांव लूटा गया है, अतः निवेदन है-महिलाओं को गांव में भेज दें, हमारी जिम्मेदारी है, ठीक रहेगा। उन्हें यह कहकर समझा दिया गया हमें क्या डर है, कौन-सी जोखिम है हमारे पास ? ठीक है, हम सावधान रहेंगे।
सुनते ही बहनें तो घबरा गयीं। पर भाईजी महाराज को गांव में बहनों का जाना नहीं जंचा। कमरे में बहनों की अपनी व्यवस्था थी। भाईजी महाराज ने बाहर बरामदे में अपना बिस्तर लगवाया। सर्दी तो थी पर मैं और भाईजी महाराज बाहर में सोये । संतों ने दूसरी कोठरी में बिस्तर जमाये । शेष लोग दूसरे कमरे में थे, पर ठाकुर प्रतापसिंहजी ने अपना बिस्तर बाहर लगाया और बन्दूक सिरहाने रखकर सो गये।
रात को एक बजे । अचानक बन्दूक का भड़ाका हुआ। एक के बाद दूसरा, तीसरा। गांव में हो-हल्ला मच गया। 'डाकू-डाकू' आवाजें सुन हम सभो सावधान हो गये । लोग भागे आ रहे थे। सड़क हमसे कोई २-३ फाग दूर है । वहां कुछ जलता-सा दीख रहा है । भड़ाके पर भड़ाके हो रहे हैं । प्रतापजी बन्दूक ताने रास्ते पर खड़े हैं। वे कह रहे हैं-डरो मत, आराम से अपने-अपने घरों में जाकर सोओ। यह राजपूत जब तक जिन्दा है और इसके हाथ में जब तक बन्दूक है, कोई
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डाकू नहीं आ सकता। पर, लोगों का जी कहां टिकता?
औरतें-बच्चे बिलबिला रहे हैं, इतने में तीन-चार आदमी आते दीखे । ठाकुर प्रतापजी ने बन्दूक ताने हुए ललकारा--'रुक जाओ, हाथ खड़े कर दो।'
प्रतापसिंहजी एक फौजी आदमी हैं। राजपूती उनके रग-रग में चू रही है। आने वाले रुके और बोले, हम यात्री हैं, हमारे ट्रक में आग लग गयी है, आश्रय चाहते हैं, सोने का स्थान दे दें तो बड़ी कृपा होगी। बहम निकला। लोग घरों को गये । प्रतापजी ने ट्रक वालों को अपने पास सुलाया।
सुबह बिहार करते समय हमने देखा, ट्रक जला पड़ा है । उसके पहिये एक-एक कर ज्यों फटे, गोली की-सी आवाजें आयीं, लोगों को डाकुओं के आने का बहम हो गया। दूध का जला छाछ को भी फूंककर पीता है । भाईजी महाराज ने फरमाया----
'मांडीखेड़ा ! तू बड़ो, बहमी भी बेढंग। (पर) दिखा दियो परतापजी, रजपूती रो रंग ।।
संस्मरण २५५
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हाथी टिचकारी से हांकते हैं ?
वनस्थली विद्या-पीठ, राजस्थान का प्रसिद्ध शिक्षा-संस्थान है । २००६ के जयपुर चातुर्मास के बाद आचार्यप्रवर ढूंडा यात्रा पर पधारे। भाईजी महाराज ने दिल्ली चातुर्मास सम्पन्न कर जयपुर में आचार्यवर के दर्शन किये। भाईजी महाराज को सवाई माधोपुर यात्रा में साथ रखा गया। पिछली बार डेढ़ वर्ष पहले भाईजी महाराज ने ढूंढाड़-यात्रा की थी। हर श्रद्धा के क्षेत्र को संभाला था। गांवगांव के जमींदारों में खूब काम किया था। इस इलाके में कोई पांच सौ से अधिक नयी गुरुधारणाएं करवायी थीं। आज यात्रा के बीच आचार्यप्रवर वनस्थली पधारे ।
वनस्थली विद्यापीठ के प्रिंसिपल श्री प्रवीणचंद जैन ने आचार्यप्रवर का हार्दिक स्वागत किया। शांति निकेतन में गुरुदेव का प्रवचन हुआ। दिन-भर स्थानीय शैक्षणिक कार्यक्रमों का अवलोकन चला। दूसरे दिन प्रातः विहार से पूर्व राजस्थान के मुख्यमंत्री श्री हीरालालजी शास्त्री तथा गृहमंत्री प्रेमनारायणजी माथुर पहुंचे । आधा घंटा आचार्यप्रवर से वार्तालाप हुआ । विहार में लगभग आधा-मील दोनों मंत्री साथ-साथ पैदल चले। जब वे लौट रहे थे, श्री भाईजी महाराज ने फरमाया
'शास्त्रीजी ! अबकी बार आपने यह क्या किया? आचार्यश्री जयपुर पधारे और आप बिना सोचे विरोधी-स्वर में मिल गये।
शास्त्रीजी जोबनेरी बोली मैं बोले-अजी! बाबाजी! आपने कांई केहवां म्हे तो जोबनेर की रोही में ऊंठ चराया छा ऊंठ । (महाराज ! आपसे क्या कहूं हमने तो जोबनरे के जंगलों में ऊंट चराये हैं) और भाईजी महाराज ने तपाक से कहाशास्त्रीजी!
'हाथी के हांक्यां करै, ऊंटां ज्यूं टिचकार । (आ) जाण एक गिवार भी (\) कियां चलाओ सरकार ?'
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यह तो एक गांवड़िये का गिवार भी जानता है कि क्या हाथी को ऊंटों की तरह टिचकारी मारकर हांका करते हैं ? आप सरकार ऐसे ही चलाते हैं ?
हम सब लोग देखते ही रह गये । शास्त्रीजी ठहाका मारकर हंसे और बोलेजो हुआ सो हुआ महाराज ! हमने आचार्यश्री जी से माफी मांग ली है। शास्त्रीजी क्षण भर रुके और कहने लगे-भाईजी महाराज ! चातुर्मास में आप जैसे फक्कड़, साफ कहने वाले संत यदि जयपुर में होते तो कितना अच्छा रहता।
छूटते ही भाईजी महाराज बोले-नहीं था, यही अच्छा रहा, शास्त्रीजी ! वरना आपसे तो मेरा जरूर-जरूर झगड़ा होता ही होता ।
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एक अबूझ पहेली
वि० सं० २००७ भिवानी चातुर्मास में एक आनुप्रासंगिक संस्मरण सुनाते हुए श्री भाईजी महाराज ने फरमाया, वह - पहला पहला दिन था, जिस दिन श्रद्धेय पूज्यपाद आचार्य कालूगणीजी ने मुनि तुलसी को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया । नया-नया माहौल, नया परिवेश, सारा संघ प्रमुदित था । मेरी खुशी का क्या ठिकाना ? सैकड़ों सैकड़ों गृहस्थ और साधु-सतियों ने मुझे बधाइयां दीं। मन करता था मैं भी इन्हें कुछ दूं, पर मेरे पास देने को था क्या ? मेरे पैर धरती पर नहीं टिक रहे थे । एक अलौकिक आनंद की अनुभूति में मैं जी रहा था। कल के मुनि तुलसी आज युवाचार्य श्री तुलसी हो गये थे । उनके सारे वस्त्र - पात्र बदल दिये गये । पुराने उपकरणों को कितने ही संतों ने स्मृति स्वरूप मांग-मांगकर बड़े चाव से लिया । जब मुनि तुलसी का सिरहाना ( तकिया) खोला गया, उसमें एक कागज की स्लिप (परची) निकली। उस पर लिखा था- 'मां वदना ।' मैं नहीं जानता था -- -यह क्या है ? क्यों है ? कई सन्तों ने मुझसे उसका रहस्य पूछा, पर मैं बताऊं भी तो क्या ? मुझे सबसे बड़ी हैरानी तो यह थी - 'मुनि तुलसी के पास और मेरी जानकारी के बिना यह चिट ।' अब तक मैं उनका संरक्षक रहा। मुझे पूछे बिना, न उन्होंने कुछ खाया-पिया, न पहना ओढ़ा, न कभी आज तक कहीं बैठे-सोये, न किसी से कुछ लिया- दिया, अनुशासन का पर्याय मेरा छोटा भाई, आंख की पलक के इशारे चलने वाला, उसके पास यह चिट और उसमें 'मां वदना का नाम ।' जान तो लूं मेरे से प्रच्छन्न यह कब से ? पर अब वे संघ- पति के दायित्व पर थे । मेरा संरक्षणत्व दबकर रह गया ।
२५८ आसीस
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मैं उस रहस्यमयी चिट के बारे में आज तक नहीं पूछ सका और शायद जिन्दगी भर न पूछ सकू। कभी-कभी मन करता है पूछे तो सही
'छानै सिरहाणे छिपा, चिट कद स्यं क्यं मेली ? तुलसी ! 'चम्पक' चिमठियो, बणी अबूझ पहेली॥'
संस्मरण २५६
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श्री भाईजी महाराज ने अपनी आपबीती बताते हुए कहा- -कल तक सांयकालीन प्रतिक्रमण के पश्चात् मुनि तुलसी मुझे नित्य वन्दना करने आते । हम भाई-भाई दो-चार मिनट बात भी करते । वे इतना संकोच रखते, कभी आंख उठाकर बोले भी हों, याद नहीं आता । मेरे जैसा कठोर अनुशासन करने वाला नहीं मिलेगा, तो तुलसी-मुनि जैसा विनीत आज्ञापालक भी इरला - बिरला ही होगा ।
आज वे युवाचार्य थे। रंगभवन (गंगापुर) के हाल की भीतरी कोठरी में युवाचार्यश्री का आसन लगा । सन्तों की भीड़ उनको घेरे हुए थी । मैं दूर खड़ा इंतजार कर रहा था, अपने प्रिय अनुज, नयनाभिराम युवाचार्यश्री से मिलने की। भीड़ छंटी, मैं पहुंचा । युवाचार्य तुलसी के सामने समस्या थी, अब वे क्या करें। इतने दिन मुझे देखते ही वे आसन छोड़ उठ खड़े होते थे । जितना सम्मान वे निकाल में मुझे दिया करते, क्या देगा कोई अनुज अग्रज को ? लाज - लिहाज, संकोच-शर्म, आदर सम्मान और कांण-कायदा उनकी विवेक-बुद्धि का नमूना था । काम-काज उनसे मैं कम ही करवाता । उनका पूरा समय ज्ञानार्जन के लिए था । आज सारी स्थितियां बदल गयी थीं । उनकी अवसरज्ञता और तत्काल समस्या का
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इसे कहते हैं भ्रातृत्व
निकाल लेने की क्षमता उस समय देखी, तत्काल युवाचार्य तुलसी थोड़े से पीछे ht ओर खिसके और अपना आधा आसन खाली कर, मुझे संकेत करते हुए बोलेपधारो, चम्पालालजी स्वामी ! बिराजो | मैं अभिभूत किन्तु किंकर्तव्यविमूढ था । निर्णय नहीं ले सका, अब मुझे क्या करना चाहिए। मैंने घुटने टेक, पंचाग मुद्रा मेंगुणानुवाद किये | नवीन युवाचार्यश्री ने वंदना के साथ मेरे पैर छूने का यत्न करते हुए पुनः बैठने का आग्रह किया । पर मैं
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विनय मान-सम्मान में, मैं स्नेहार्द्र अखूट । केठा भाई ! बैठणी' क नहीं, कह चल्यो ऊठ ॥
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पहला-पहला कविसम्मेलन
२००८ कार्तिक शुक्ला छठ को दिल्ली सब्जीमंडी घंटा-घर, चंद्रावल रोड में कठोतिया मोहनलालजी की कोठी पर एक कवि-सम्मेलन रखा गया। आचार्यप्रवर परिषद में विराजे थे। राजधानी के आमंत्रित कविजन कठोतियाजी के कमरे में आ-आकर बैठते गये । वे झिझक रहे थे, कहां आ गये । समय हो गया पर कोई भी कवि बाहर मंच पर नहीं आया। कहने पर भी कवि लोग बाहर आते टाल-मटोल कर रहे थे। भाईजी महाराज के निवेदन पर आचार्यप्रवर ने प्राग् वक्तव्य फरमाया। संतों की कविताएं प्रारम्भ हुई। जनकवि फिर भी बाहर नहीं पहुंचे। संयोजक देवेन्द्रजी करणावट भी हैरान थे। भाईजी महाराज से नहीं रहा गया। वे भीतर पधारे और कवियों से बोले
'बुरा न मानें, पूछ रहा हूं, झिझक है कि, कुछ उलझन ?
कवि बैठे कमरे के भीतर, (और) बाहर कवि-सम्मेलन ?' क्या यह भी कोई तरीका है ? कवि भी डरता है, वेश-भूषा देखकर ? ये संत साहित्यकार हैं, कवि हैं। सुना है कवि-बिरादरी अभेद होती है, फिर यह भेद कैसा? एक फक्कड़ संत की ललकार पर कवियों की हिचक टूटी। शरमाते-सकुचाते कुछेक कवि उठे, बाहर आये। संत-काव्य का रस भी कुछ भिन्न था। धीरे-धीरे एक-एक कर कवि परिषद् में आते गये। उस दिन लगभग बीस दिल्ली के मंजे हुए कवियों ने तेरापंथ साहित्य सृजन को परखा। कुछ कवि बोले, कुछ न बोले । अब जमा कविसम्मेलन । मन का संशय हटा। कवि लोग खुले । वाह ! वाह ! की कवि-दाद में तेरापंथ संत कवियों की कविताओं ने एक छाप जमायी। तेरापंथ संघ का यह शायद सबसे पहला कविसम्मेलन था। भाई देवेन्द्रजी ने भाईजी महाराज की युक्ति का लोहा माना।
संस्मरण २६१
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मुझसे नहीं, परिषद् से पूछो
२००८ पौष शुक्ला नवमी सरसा, पंजाब की बात है। संत-साहित्य परिषद की सांयकालीन गोष्ठी में श्री भाईजी महाराज को वक्तव्य देने के लिए कुछ संतों ने मिलकर निवेदन किया। मुनिश्री ने यह कहते हुए टाल दिया-भाई ! मैं क्या बोलूंगा। सुनो किसी साहित्यकार को। सन्तों ने आचार्य प्रवर से स्वीकृति ली और विज्ञप्ति प्रकाशित कर दी-'आज सांयकाल साढ़े सात बजे विचार गोष्ठी में श्रद्धेय भाईजी महाराज का शिक्षा और विनय पर विशेष उल्लेखनीय वक्तव्य होगा।' ___ साहित्य परिषद् के संयोजक मुनि सुखलालजी ने विचार गोष्ठी के विषय को छूते हुए भाईजी महाराज का परिचय देकर भाषण प्रारंभ करने की प्रार्थना की। ___ भाईजी महाराज ने मातृ-भाषा राजस्थानी में अपने पैंतालीस मिनट के भाषण में शिक्षा और विनय का बेजोड़ संबंध बताते हुए कुछ ऐतिहासिक उदाहरणों से विनय-अविनय की लाभ-हानि बताकर आज की शिक्षा में अविनय के प्रवेश की ओर संकेत किया तथा समय पर आचार्य के नाराज होने पर उन्हें रिझाने की कला, बड़ों के प्रति आदर और छोटों के प्रति वात्सल्य पर जोर दिया।
प्रश्नोत्तर काल में अनेकों प्रश्न आये-क्या विनय चापलूसी नहीं है ? स्वार्थयुक्त विनय से क्या अविनय अच्छा नहीं? एक मुंह पर कह देता है और एक जीहजरी करता है, दोनों में कौन-सा ठीक है ? आज अविनीत कहे जाने वाले विद्यार्थी भी उत्तीर्ण हो जाते हैं, तो फिर विनय से लाभ ? ऐसा विनय क्या काम का जहां पात्री ही फूट जाए ? एक बचपन में कसूर कर लेता है तो क्या बड़े को भी आंखें गरम करके बात करनी चाहिए ? विनय आखिर कहते किसे हैं ? क्या प्रतिदान में विनय मांगने वाला विद्या गुरु, अपने आपमें विनीत है ? यह विनय-संहिता छोटों के लिए ही है या बड़ों के लिए भी ? शिक्षा शिक्षा है, उसे विनय-अविनय के साथ क्यों जोड़ा जाता है ? क्रमश: भाईजी महाराज सबका उत्तर संक्षिप्त किन्तु गाम्भीर्ययुक्त २६२ आसीस
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फरमाते रहे। अंतिम एक प्रश्न व्यक्तिगत आक्षेप करने वाला भी आया। प्रश्नकर्ता ने पूछा-क्या आपने भी कभी किसी को विनीत कहा है ?
भाईजी महाराज ने विनोद में बात टालते हुए कहा- मेरे कहने से ही यदि कोई विनीत बन जाता हो, तो लो मैं तुम्हें 'परम-विनीत' का तुकमा दे दूं, पर मेरे कहने से कोई विनीत या अविनीत नहीं होता। वह तो होता है अपने व्यवहारों से, आचरणों से, आत्म-संवेदनाओं से । विनीत अविनीत की कसौटी तो है जनता। तुम कितने विनीत हो ,यह पूछो इस मजलिस से, अभी पता चल जाएगा है।
'म्हारै कहणे स्यूं हुवै, कद विनीत अविनीत । (इं) मजलिस ने पूछो जरा, तुम कितनेक विनीत ॥'
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इच्छा तो हमारी भी होती है
नौहर संतोष-निवास में पिछली रात्रि को विहार की मंजिलों पर चिन्तन चल रहा
था ।
आचार्यप्रवर ने बीच में ही फरमायाभेजें तो कितनी मंजिलों में पहुंच सकते हैं ?
भाजी महाराज ने अर्ज की - संत तो आपकी कृपा से पांच ही मंजिल में पहुंच जायेंगे ।
- अगर सरदारशहर संतों को पहले
आचार्यप्रवर ने फरमाया- तो आप ही चले जाओ न, मंत्रि मुनि आपको बुला रहे हैं ।
भाजी महाराज ने कहा - तहत ! यह तो मंत्री मुनि की कृपा है । जैसी आपकी मरजी हो मैं हाजिर हूं ।
आचार्यश्री ने निर्णय की भाषा में फरमाया - हीरालाल को छोड़कर आप सभी संत तैयार हो जाओ, आज ही विहार करना है । वयोवृद्ध मुनि चौथमलजी स्वामी खड़े होकर निवेदन करने लगे - हुजूर ! एक अर्ज है। भाईजी महाराज के साथ मुझे भी कृपा करायें, आज तक कभी मोटे पुरुषों के साथ जाने का काम ही नहीं पड़ा, बड़ी इच्छा होती है, कभी साथ रहने का अवसर आये, आप मेहरबानी फरमायें ।
आचार्यवर ने विनोद में मुस्कान बिखेरते हुए फरमाया - अजी ! आपकी ही क्या इच्छा होती है । इच्छा तो कभी-कभी हमारी भी होती है चम्पालालजी स्वामी के मधुर सहवास का आनन्द लेने को । पर क्या करें।
पिघलते - पिघलते से श्री भाईजी महाराज ने निवेदन किया - महाराज ! 'कृपा गुरांरी है जठै, वठै मधुर मधुमास । संघ गुणी, 'चम्पक' रिणी, कृपा-कृपा सहवास ॥
२६४ आसीस
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मेरे पास कोई उत्तर नहीं था
नोहर २००८ माघ कृष्णा ४ । भाईजी महाराज आहार-मंडल में विराजे ही थे। आहार प्रारम्भ किया कि एक सन्त ने आकर कहा-आचार्य प्रवर याद फरमा रहे हैं । मुनिश्री ने भोजन के बीच हाथ धोये और आचार्यश्री की सेवा में पधार गये । कुछ आवश्यक परामर्श के बाद ज्यों ही वापस पधार रहे थे, मार्ग में एक सन्त ने निवेदन किया-भाईजी महाराज ! औजार तैयार हैं, मेरा दांत...।
भाईजी महाराज ने 'हां भाई !' कहा और दांत निकालने पधार गये। पांच सात दिनों से उन्हें दांत की बड़ी तकलीफ थी। भाईजी महाराज का हाथ बहुत साफ और अनुभव डॉक्टरों जमे थे। सेवा के ऐसे अवसरों पर उनकी आत्मा बहुत प्रसन्न होती । मुझे तो वहां पहुंचना ही था। दांत निकाल, हाथ धो, अब पधारे भोजन मंडल पर । मैंने कहा-परोसा भोजन सब ठंडा हो गया। भाईजी महाराज ने जरा आंखें गर्म की और फरमाया-क्या कहा ? है तुम्हारे में अकल ? पहले गुरुदेव की आज्ञा है कि भोजन ? पगले ! आराम बीमार की सेवा में जो रस है वह खाने में नहीं है। खाना तो खाना है शरीर को निभाने। ठंडा गरम कुछ नहीं'उतरा घाटी हुवा माटी' । भीतर की जठराग्नि गरम चाहिए । बता ।
'अकलदार ! पहली बता, आज्ञा है कि आहार?
खाना प्रथम कि सेवा प्रथम, सागर! जरा विचार ।। अब मेरे पास तहत के सिवाय कोई उत्तर नहीं था।
संस्मरण २६५
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कविता कब से ?
२००८ माघ शुक्ला अष्टमी को सरदारशहर की विशाल जनसभा में 'धर्म और समाज' विषय पर वक्ताओं के भाषण हुए। मर्यादा - महोत्सव की वह भारी भीड़ । दूर-दूर से आने वाले हजारों-हजारों यात्री । आचार्यप्रवर के उपसंहारात्मक प्रवचन के तुरंत बाद भाईजी महाराज खड़े हुए और बोले एक बात मैं भी कह दूं । इन मंजे हुए विचारकों के चिन्तन के बाद मेरा बोलना है तो अटपटा-सा, पर जहां संघ मिलता है, विचार करता है, वहां हर सदस्य को अधिकार होता है अपनी बात कहने का । मैं ज्यादा कुछ नहीं जानता । मैंने तो इतना ही समझा है— धर्म के बिना समाज केवल भीड़ है और समाज के बिना धर्म केवल पुलिन्दा है । समाज शरीर है, तो धर्म प्राण है । प्राण के बिना शरीर सड़ जाता है और शरीर के बिना प्राण टिकते नहीं । जब धर्म और समाज दोनों मिलते हैं तब बनता है धर्म-समाज | धर्म-समाज में क्या होता है, क्या होना है, यह चिन्तन का विषय है आचार्यों का, धर्म-समाज के नेताओं का। मेरी तो सलाह है सभी वक्ताओं और श्रोताओं से, उलझो मत
'अणहोणी होसी नहीं, होसी जो होणी, मनमानी ताणों मती, सुगुरु दृष्टि जोणी ॥ धर्म-विहीन समाज के, ठप समाज बिनधर्म स्वर - व्यंजन-सी एकता, 'चम्पक' समझ्यो मर्म ॥
तत्काल छन्दों में बांधे हुए ये दो तुक्के तीर का सा काम कर गए। आचार्य प्रवर ने फरमाया सारे सिद्धान्तों का सार बता दिया चम्पालालजी स्वामी ने । अच्छा, आशु कविता भी करते हैं आप ? यह कब से ?
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मटकी पटकी
वि० सं० २०१० भाद्रव कृष्णा अमावस्या, जोधपुर का बात है। मुनि हीरालालजी (बीदासर) आचार्यश्री और नवदीक्षित बाल मुनियों के लिए पानी की व्यवस्था करते थे। उन्होंने सायंकाल पानी छानकर, खाली मटकी ऊपर रखने के लिए बाल मुनि मणिलालजी को दी। वे सिंधी भवन की सीढ़ियां चढ़ रहे थे। न जाने क्यों अचानक एक धमाका हुआ। हमने देखा मणिलाल जी जीने में बेहोश पड़े हैं। मटकी की ठीकरियां बिखर गयीं। हम दो-तीन संतों ने मिलकर उन्हें ऊपर पहुंचाया।
दिन थोड़ा रह गया था। बाल मुनि बेहोश थे। श्री भाईजी महाराज उन्हें सचेत करने में व्यस्त थे। अनेक उपाय किए । आवाजें दी । नांक बंद किया । पानी छिड़का । पर सब कुछ नाकाम । बिराजे-बिराजे भाईजी महाराज को न जाने क्या जंची, मणी-मुनि के दोनों कान पकड़कर ऊपर की ओर खींचे कि उन्होंने आंख खोली । चेतना आते ही मुनि मणिलाल जी ने अधहोशी में कहा--मटकी। श्री भाईजी महाराज मन ही मन मुस्कराए और बोले-भोले !
'बा मटकी पटकी बठे, अटकी अठ अजेस।
'चम्पक' चटकी पण दकी! भटकी मती मनेश!' भाईजी महाराज मुनि मणिलाल जी को परोक्ष में मुनेश ही फरमाया करते। यह प्यार का नाम था।
संस्मरण २६७
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अन्दाजा सही उतरा
स्वभावगत भाईजी महाराज के कुछ अंदाजे अलग ही थे । आदमी की पहचान में उन्होंने शायद ही कभी गलती खायी हो । अकसर चाल के आधार पर वे व्यक्ति की प्रकृति पहचाना करते थे। इस अर्थ में उनके अलग ही अनुभव थे। इसलिए कई लोगों से तो उनकी कभी पटी ही नहीं। वैसे सभी तरह के लोग उनके इर्द-गिर्द आते बैठते । किससे कितनी बात करना, यह भी उनका अपना एक ढंग था । वे मेलजोल सभी से रखते थे। गांव के उन नामी-नामी नम्बरी आदमियों से उनका अपनत्व घरेल-जैसा होता। वे फरमाया करते-'समाज में सब शक्तियों की आवश्यकता है । जहां नागाई काम आती है, वहां ये ही काम के हैं । शरीफी वहां क्या करेगी ? अनादर किसी का भी मत करो। दुश्मन को भी आदर से जीतो । रबाब से भी लिहाज ज्यादा काम करता है। ये कुछ आदर्श-सूत्र थे भाईजी महाराज की लोकप्रियता के।
वि० सं० २०१० सोजत रोड की बात है। आचार्यप्रवर की भोजन-व्यवस्था सम्पन्न कर भाईजी महाराज उठने लगे। आचार्यश्री ने फरमाया-चम्पालाल जी स्वामी ! मोहनलाल (लाडनूं) को थली भेजने का सोचा है।
भाईजी महाराज हाथ जोड़कर बोले-बड़ी कृपा की । साथ...? आचार्यश्री-साथ तो भै रुदान और चन्द्रकांत ।
भाईजी महाराज क्षण भर रुककर बोले-होगा तो वही जो आपकी मरजी होगी, पर मेरे नहीं जंची।
__ आचार्यश्री-क्यों ? मोहनलाल ठीक है । सयाना भी है । वह कहता है इन्हें साथ भेज दिया जाए तो मेरा मन लग जाएगा। अतः यह सोचा गया है । आप तो बहमी हो जी। विश्वास भी करना चाहिए आदमी का ।
भाईजी महाराज कुछ क्षण चिन्तन की मुद्रा में रहे और जब आचार्यश्री ने २६८ आसीस
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कहा, बोलो, तो मौन तोड़ते हुए बोले
'आछो सोच्यो आप पण, म्हारै जची न हाल।
(अ) तीन टाबर एक-सा, 'चम्पक' लागे चाल ॥ इतना स्पष्ट कोई बिरला ही कह सकेगा। यह कटु सत्य आचार्यश्री को भी अप्रिय लगा। बात समाप्त हुई। ससंघ गुरुदेव बम्बई पधारे।
चातुर्मास सानन्द पूरा हुआ। चर्च गेट आचार्यश्री बिराज रहे थे। रतनगढ़ से समाचार मिला । आचार्यश्री स्वयं स्तब्ध रह गये। अन्तर गोष्ठी बुलायी गयी। रहस्योद्घाटन किया। आचार्यश्री का आज जैसा खिन्न चेहरा हमने पहले नहीं देखा । एक अन्तर आघात के साथ निःश्वास फेंकते हुए आचार्यश्री ने फरमाया'अब बताओ! युवापीढ़ी का विश्वास कैसे हो ? रतनगढ़ से मोहनलाल, भैरुदान और चन्द्रकांत तीनों रात को लापता हो गये हैं । चम्पालालजी स्वामी की पहचान ठीक निकली । मेरे साथ ऐसा विश्वासघात पहली बार हुआ है।'
हमने सुना-भाईजी महाराज ने निवेदन किया। आप इतना क्या विचार करवाते हैं-उनकी गति, उनका कर्म । करेगा सो भरेगा । महाराज!
'कमी न राखी आपतो, कृपा करायी धाप । 'चम्पक' आगे आगलां रा अपणा पुन-पाप' ।
संस्मरण २६६
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गजब-जैसा क्या है
विक्रम सं० २०१२ का मर्यादा महोत्सव भीलवाड़ा (मेवाड़) में हुआ। वह तेरापंथ धर्म-संघ की परीक्षा का समय था। तेरापंथ का अनुशासन कसौटी पर कसा जा रहा था। कौन संघ में गड़ा हुआ है और कौन डिग्गू-पिच्चूं, लोग परख रहे थे । नयी और पुरानी विचारधारा की टक्कर में कई स्फुलिंग उछले । एक अन्तरद्वंद्व सभी को झकझोर गया । जिधर देखो मन को क्लान्त करने वाले संवाद उभार ले-लेकर आते । गृह-संघर्ष की-सी स्थिति । संघ में विघटन करने लगी। मानसिक दुराव, असंतोष और पकड़ ने दो पाले बना दिए । एक पांणा दूसरे पांणे को तोड़ने के चक्कर चला रहा था। कुछ बीच-बचाव वाले इस कार्य में दलाल थे। लोग अनुमान लगा रहे थे, अबकी बार तेरापंथ आधा-आधा बंट जाएगा। अफवाहों का जोर था। कभी हल्ला आता साधु गए, तो कभी आता पांच तैयार हैं। कोई कहता आचार्यश्री ने चार सन्तों को निकाल दिया है, तो कोई कहता, दस मुनियों ने मिलकर आचार्यजी को करारी चुनौती दे दी। कब क्या हो जाए, सभी संदिग्ध थे। कुछ शासन-भक्त श्रावक तो यहां तक कहने लगे-इन मोड़ों का कोई विश्वास नहीं, लिया झोलका और ये गए । कैसा जमाना आया है ?
भीलवाड़ा मर्यादा-पांडाल के सामने ही धर्मशाला थी, जहां आचार्यप्रवर का प्रवास था। धर्मशाला के बरामदे में व्याख्यान के तुरन्त बाद कुछ विपक्षी समर्थक भाईजी महाराज से बातें कर रहे थे । खड़े-खड़े चर्चा छिड़ गयी। किसी ने कहा-शिष्टता तो दोनों ओर से रखने पर ही रहेगी। एक भाई ने कहा तो टालोकर शब्द ऐसा क्या घटिया है ? इसी बीच भाई जीवणमल जी सुराणा (चूरू) जोश खा गए। उन्होंने कहा-कौन कहता है, वे साधु टालोकर हैं ? असाधुत्व का उन्होंने कौन-सा काम किया ? वे टालोकर कैसे हुए?
भाईजी महाराज ने फरमाया-कौन क्या कहता है, मैं कहता हूं। जीवणमल
२७० आसीस
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जी बोले, आपको टालोकर कहना नहीं कल्पता । कैसे कहते हैं आप ? उन्होंने तेरापंथ की कोई मर्यादा भंग नहीं की । भाईजी महाराज ने कहा- स्वामीजी ने फरमाया है जो आचार्य की आज्ञा का उल्लंघन करे, वह टालोकर । बोलो, वे किस की आज्ञा में हैं ?
I
भाजी महाराज का कहना हुआ - 'स्वामीजी फरमाते हैं कि इतने में एक (मैं उनका नाम मौजूदगी में लिखना नहीं चाहता ) । साधुजी अपना आपा खो बैठे। बड़ी उत्तेजनापूर्वक बोले- चुप, चुप, चुप, आपको बोलने का फहम ही नहीं है ? कैसे बोल रहे हैं बिना ।
भाईजी महाराज ने उन्हें बीच में ही टोकते हुए, बड़े शांत भाव से कहादेखो ! तुम अभी मत बोलो। थोड़े ठंडे पड़ जाओ । गरमी में गरमी बढ़ती है । जाओ, जरा सुस्ता लो, फिर हम बात करेंगे ।
सुनने वाले सोच रहे थे, आज इन मुनिजी ने अपने हाथों अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली है । अब तो काम कठिन है । भाईजी महाराज आचार्यश्री को कहेंगे । आचार्यश्री इसे बर्दास्त नहीं कर सकते, क्या जाने क्या होगा ?
1
उनका भी चेहरा उतर गया । कह तो गये, उस समय आवेश था, ज्वार उतरा पश्चात्ताप भी हुआ । डर भी था । अहं भी था । सन्तों ने उन्हें भाईजी महाराज के पास जाकर माफी मांग लेने को कहा । पर उनका साहस नहीं पड़ा । वे आचार्यश्री के पास जा सकते थे, पर भाईजी महाराज के पास आना टेढ़ी खीर थी । वे इंतजार में थे । आचार्यश्री के दरबार में पेशी पड़े और वहीं मामला सलटे । सायं प्रतिक्रमण के पश्चात् एक सन्त भाईजी महाराज के पास आये और बोले -- यह तो सरासर उद्दण्डता है। कोई भी संघ का साधु, किसी विशिष्ट सम्मान्य मुनि की यों अवहेलना करे, अक्षम्य अपराध है, संघीय शालीनता के विरुद्ध है । आपको यह घटना आचार्यश्री से निवेदन करनी चाहिए। आपकी मरजी हो तो मैं पहुंचा दूं ।
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भाईजी महाराज ने फरमाया - तुम्हारे कहे बिना ही मैं तो स्वयं ताती का असवार । पर इस मौके पर गम खाने में मजा है । उसका क्या बिगड़ेगा ? उसमें यदि इतना ही विवेक होता तो वह बोलता ही नहीं । मैं चाहूं तो अच्छी शिक्षा दे सकता हूं, पर उसने निर्विवेकता की, क्या मैं भी उसी के बराबर हो जाऊं ? फिर क्या फर्क रहेगा उसमें और मेरे में । आचार्यश्री को तो और भी बहुत संक्लेश है । झंझट में एक और झंझट उनके गले डालूं ? मेरा क्या बिगड़ गया ? उसने कह दिया - 'बे फहम' कह लेने दो। मैंने तो निर्णय लिया है, न तो आचार्यश्री तक जाऊंगा और अगर कहीं से आचार्यश्री तक बात गयी भी, तो मैं सारा दोष अपने पर ले लूंगा । आचार्यश्री को इस मौके चिंता मुक्त रखना हमारा धर्म है । भाई ! ये छोटे-छोटे बोलचाल के झगड़े उन तक मत पहुंचाओ।
रात को जीवणमलजी सुराणा आये । उन्होंने बड़ी नम्रतापूर्वक खमतखामणा
सस्मरण
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करते हुए कहा-भाई जी महाराज! आज मेरे कारण आपकी असाता हुई, आप बड़े हैं, बड़े ही बड़ी विचारते हैं। उनकी भयंकर भूल थी। ऐसे शब्द-व्यवहार तो हम गृहस्थ भी नहीं करते, पर आप महान् हैं। आपने जो गम खाई, किसी को आशा नहीं थी। बढ़ने को तो काम बढ़ा ही पड़ा था। महाराज ! इसी का नाम बड़प्पन है । मेरे जैसा व्यक्ति आपके प्रति इसीलिए श्रद्धानत है । मैं जैसा हूं आप जानते हैं । आपकी सरलता से तो मैं परिचित था, पर समय पर आप गम भी खा सकते हैं, यह आज देखा। यों जहर का चूंट निगल जाना आसान बात नहीं है, भाईजी महाराज! आपने तो गजब कर दिया, गजब । - भाईजी महाराज ने गंभीर होकर कहा-जीवण ! तुमने इसे जरूरत से अधिक
आंका है, ऐसी गजब जैसी कुछ भी बात नहीं है। विरोधी तो इससे भी कटु और अभद्र व्यवहार कर लेता है। क्या हम उससे लड़ते हैं ?
उस दिन के बाद जब भी जीवनमल जी सुराणा (चूरू वाले) मिलते 'गजब' कहकर घटना की याद दिलाते और साथ ही साथ यह दोहा भी सुनाते
'करे संघ-हित करणियां, प्राणार्पण प्रख्यात ! गम खालेणे में जिवण ! गजब जिसी के बात?'
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.. ४५ कविता में दग्धाक्षर
आचार्यश्री तुलसी ने वि० सं० २०१२ का चातुर्मास उज्जैन में किया। वहां कार्तिक पूर्णिमा को मैंने एक कविता लिखी । कविता मन लगती बनी। मुझे बहुत पसन्द आयी। कविता को दूसरी-तीसरी बार पढ़कर मैं मन-ही-मन झूम उठा। शायद मेरी अब तक की कविताओं में वह सबसे पहली स्टेज की कविता थी। अनुप्रासों की झड़ी देखते ही बनती थी। अखरोट सहज आये थे । शब्दों की दृष्टि से, भावों की दृष्टि से और लय-छन्द-बन्ध की दृष्टि से भी उसे मेरी सर्वोत्तम कविता कहूं, तो में अत्युक्ति नहीं होगी। ___ मैंने भाई सोहनलाल सेठिया (सरदारशहर) के सामने वह अपनी कृति रखी। सोहन की काव्य-छटा निराली थी। वह स्वयं प्रांजल कवि था और हिन्द का आशु कवि भी । तत्काल दिये गये विषय पर वह मार्मिक भाषा में भावपूर्ण छन्द बोला करता। मेरी और उसकी पटड़ी भी खूब जमती थी। मैंने ज्योंही अपर्न कविता कवि सोहन के सामने रखी, उसने एक बार खिलखिलाकर दाद दी । काश आज वह कविता होती।
मुझे उसी दिन सायंकाल बुखार हो गया। तबियत धीरे-धीरे बीगड़ती गयी ज्वर कभी कम, कभी अधिक, बढ़ता-घटता गया। हम प्रवासी एक गांव से दूसरे गांव पर्यटन करते हुए बड़नगर पहुंचे। मुझे कमजोरी का अहसास होने लगा बड़नगर से हमारा पड़ाव जावरा हुआ। जावरा पहुंचते-पहुंचते मुझे बुखार १०६ डिग्री पहुंच गया। बेहोशी आ गयी। घण्टों उपचार के बाद चेतना लौटी।
___ भाईजी महाराज के सामने बड़ी समस्या थी। एक ओर बुखार, दूसरी ओ विहार । मुनिश्री मुझे पीछे छोड़ना भी नहीं चाहते थे और बुखार में यों साथ ले जाना भी उचित नहीं था। दुहरे विचार ले, भाईजी महाराज आचार्यश्री के पार पहुंचे। विचार-विमर्श हुआ। मुझे जावरा ही छोड़ देने का निर्णय आया। भाईज
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महाराज का जी बहुत टूटा । वे नहीं चाहते थे, मुझे अकेले पीछे छोड़ना और न ही चाहते थे आचार्यप्रवर से स्वयं पीछे रहना। मेरे प्रति उनका अगाध वात्सल्य था। विवश सेवाभावी मुनिश्री मेरे पास पधारे, विराजे। मेरी नब्ज देखी और पूछा, 'अब कैसे हो?' ___मैं कुछ बोलता इससे पहले ही मुनिश्री ने भूमिका बांधनी प्रारम्भ कर दी। मैं समझ गया, यह सब मुझे पीछे छोड़ने के उपक्रम हैं। मैं भी स्वयं अपने मन में निर्णय किये बैठा था-अब विहार करने की परिस्थिति नहीं है । मेरा अपना मनोबल टूट चुका था। शरीर का सामर्थ्य जवाब दे रहा था। मैंने भाईजी महाराज से अर्ज की-'आप तो सुखे-सुखे गुरुदेव की सेवा में पधारो। मैं यहां दो-पांच दिन रुककर, ठीक हो जाने पर आ जाऊंगा।'
__ भाईजी महाराज ने मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा-'भाई दो-पांच दिन से कुछ नहीं होगा। साफ-साफ बात है। डॉक्टर, वैद्यजी और जतीजी ने आंत्र-ज्वर बताया है। कम-से-कम २१ दिन तो टाइफायड लिया ही करता है । तेरे मोतीझरा उल्टा है। दाने पेट पर नजर आ रहे हैं। उलटा भाव सदा समय लिया करता है। तुम कोई विचार मत करना । तुम्हारे पास रहने के लिए सोहनलालजी (राजगढ़) और राजमलजी (आत्मा) को तो गुरुदेव ने आदेश फरमा दिया है । मेरी इच्छा है वसन्त या मणिलाल में से किसी एक को तुम्हारे पास और रख दूं। वे दोनों ही रहना चाहते हैं। जबसे सुना है दोनों ही आग्रह कर रहे हैं। वह कहता है, मुझे रख दो और वह कहता है नहीं, मैं रहूंगा। तुम्हें असुविधा न हो तो तुम मुनि मणिलाल को यहां रख लो। वह मन छोटा-छोटा करता है । तुम्हारे भी ठीक रहेगा।' अशक्ति अधिक थी । मैं कुछ बोलना चाहता था। इतने में भाईजी महाराज ने मुझे रोकते हुए कहा—'तुम बोलो मत । बोलने से जोर पड़ेगा । मैं जानता हूं तुम्हारी भावना। मेरा काम तो अकेले वसन्त से ही चल जाएगा। तुम मेरी फिकर छोड़ो।'
मुझे खूब-खूब आश्वासन दे, जतीजी को दवा-पानी की व्यवस्था सौंप, भाईजी महाराज ने विहार किया। हम चार सन्त जावरा रुके । जावरा जैनों का गढ़ है, पर तेरापंथ का कोई एक बच्चा भी नहीं है । जैनों की बस्ती जो है, लगभग विरोधप्रधान है। उन दिनों मुनि सुशीलकुमारजी भी वहीं थे। वह भी एक युग था। परस्पर में जहां आंख भी नहीं मिलती थी। हमें रहने के लिए जैनों के यहां कोई स्थान उपलब्ध नहीं हुआ। कई स्थान खाली पड़े थे, पर वे तो कबूतरों के लिए थे। भला वहां एक परदेशी बीमार जैन-मुनि के लिए स्थान कहां था? वैष्णव धर्मशाला में जहां हम रुके थे, उन पर भी बहुत दवाब आये। स्थान खाली करा लेने को कहा गया। पर उनसे तो हमारा कलकत्ता से सम्बन्ध था। वह धर्मशाला कलकतिया धर्मशाला कहलाती है । हम वहां रुके । रुके क्या, रुकना पड़ा । बड़ा अटपटा लगा, पर करते भी तो क्या?
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बखार में नित्य नये उतार-चढ़ाव आते । मानसिक अस्त-व्यस्तता और परेशानी बढ़ती। सन्त मेरा मन लगाने का यत्न करते । भाईजी महाराज का जी तो था जावरा और शरीर था आचार्यश्री के साथ यात्रा में। बार-बार आश्वासन के शब्द मिलते, पर मन नहीं लगा सो नहीं ही लगा । उद्विग्नता दिन-प्रति-दिन बढ़ती गयी। जैन युवक समरथमलजी आदि-जो सर्वोदयी विचारधारा के थे-घण्टों हमारे पास बैठते । वयोवृद्ध श्रावक जडावचन्दजी पगारिया बार-बार खबर लेते, पूछताछ करते। मुनि मणिलालजी एक तो छोटे थे, दूसरे शरीर-सम्पदा-सम्पन्न, अतः लोगों को उनसे बोलने का चाव रहता । भाई फकीरचन्दजी तो मणि-मुनि के पीछे लट्ट हो गये । गोचरी ले जाते । पानी को जाते तो वे साथ रहते।
एक दिन मैंने जाने की तैयारी कर ली। रात का समय था, अचानक बुखार १०५ से गिरा और ६५ आ गया। होश-हवाशगुम । हाथ-पांव ठण्डे बरफ-से । मुनि मणिलालजी दिलगीर हो गये । सत्तरह वर्ष के बच्चे तो थे ही । उस रात वे शायद मिनट-भर के लिए भी मुझे छोड़कर नहीं हटे। उन्हें बहम था कि मैं छोड़कर गया कि ये गये । रात को दस बजे के बाद वहां कहां डॉक्टर ? कहां वैद्य ? कौन संभाले? कासीद ख्यालीलाल गया। धर्मशाला के बाहर एक दांतों के डॉक्टर थे, सिन्धी भाई। वे पानी भरने भीतर आया-जाया करते थे। सन्तों ने उनसे परिचय बनाया था। बेचारे सज्जन थे। कभी कदाच दिन में आ जाया करते थे। सूचना मिलते ही वे आए । देखा, काम तो समाप्ति पर था । आखिर डॉक्टर तो थे ही। उन्होंने कहा-'जैन-मुनि रात को कुछ लेते नहीं, अब उपचार करूं भी तो क्या? एक काम करो सन्तो! कम्बल के टुकड़े से इनके हाथ-पैरों में गरमी पैदा करो।' वैसा ही किया। कोई दो घंटे बाद मुझे होश आया। उस रात मणिलालजी ने लगभग जागरण किया । सन्तों ने बहुत समझाया। जब मैं बोलने लायक हुआ, मैंने भी कहा-'मैं अब ठीक हूं, तुम सो जाओ। बात मणिमुनि के गले नहीं उतरी। पूरी रात उन्होंने मेरे बिछौने के पास बैठकर काटी। __मैं मरते-मरते बचा । अठारह दिन रुककर जब चलने-फिरने लायक हुआ, विहार किया। ज्यों-त्यों भीलवाड़ा-माघ-महोत्सव में हम सम्मिलित हो सके। स्वास्थ्य डिग-मिग डिग-मिग करता चला । सन्तों के सहयोग से मैं आचार्यप्रवर के साथ-साथ छापर पहुंचा।
सहसा रात को एक वॉमिट (कै) हुई । बेचैनी की परवाह न कर दूसरे दिन आठ मील 'रणधीसर' पहुंचे। दिन-भर जी घबराता रहा । लौंग-गोली के सहारे काम चलाया। सायंकाल चार-पांच बजे के बीच अचानक बेहोशी आ गयी। सन्तों ने सोचा, नींद आयी होगी । भाईजी महाराज आहार करने पधारे। मुझे आवाज दी। जवाब देता कौन? सन्त सोहनलालजी स्वामी (सरवालों) को भाईजी महाराज ने फरमाया-'जाओजी! उसे उठा लाओ।' 'कुमाणस अवार तो मिस
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कर्यां पड्यो है, रात्यूं मरतो मरसी नी।' सोहन 'सर' आये। मुझे हाथ पकड़कर बिठा दिया। ज्यों ही हाथ छोड़ा कि मैं लुढ़क गया। अब सबको पता चला। सेठ सुमेरमलजी दूगड़ आये । नब्ज देखी। स्थिति नाजुक थी। भाई को भेजकर पता लगाया पर दवा का बक्सा गाड़ी में चढ़ा दिया था। असूजती दवा काम नहीं आती, अब क्या किया जाए । सन्त गये कहीं से सत्य-जीवन और कुछ अर्क लाये । लौंगसौंठ का अर्क और सत्य-जीवन दुगुनी मात्रा में दिया गया। सूर्यास्त के आसपास मुझे चेत आया। सामने रात । वह जेठ की भयंकर गर्मी। सोहनलालजी स्वामी (चूरू) आदि सन्तों ने रात्रि-जागरण किया। सुबह तक मैं उठने लायक हुआ। काल-रात्रि को पार कर दूसरे दिन विहार हुआ । विहार केवल कहने मात्र का था। मैं दो सन्तों के कन्धों पर अपना पूरा शरीर का वजन डाले, घसीटते पैरों से वह रास्ता तय कर रहा था। बार-बार सत्य-जीवन और अर्क देते गये । आधी होशीबेहोशी में पड़िहारा ले लिया।
सेठ सुमेरमलजी दूगड़ अपने नुक्शे आजमा रहे थे। सबकी सब दी जाने वाली ओषधियां बेकार । फिर एक उल्टी हुई। मैं बेहोश हो गया। सन्तों ने उठाकर मुझे बिस्तर पर लिटाया । मकरध्वज की मात्रा दी गयी, पर कोई असर नहीं। उपचार करते दिन बीता। रात आयी । अब बदला दौर । सन्निपात प्रारम्भ हुआ। हाथपांवों में वांइटे (ऐंठन) शुरू हुए। आचार्यप्रवर दर्शन देने पधारे। छोटे सन्तों को भक्तामर का पाठ सुनाने का आदेश हुआ। कुछ मुनि पाठ सुनाने लगे।
श्रावकों ने अपनी तैयारी प्रारम्भ की। विचार-विमर्श चला। मनोकामना अन्त्येष्टि-क्रिया का खाखा जमाया। सेठजी नाड़ी हाथ में लिये बैठे थे। एक ठबका आया है, अगला देखें कितनी देर बाद आता है, देख रहे थे। बीसों लोगों ने रात जगाई । पर प्रकृति को जो मंजूर होता है, वही होता है। रात बीती । प्रातः हुआ, उपचार फिर चालू हुए। सेठ सुमेरमलजी अनुभवी थे। उन्होंने मकरध्वज की चौगुनी मात्रा एक साथ दिलवाई। मानो बुझते दीपक में तेल उड़ेल दिया हो, ज्योति जल उठी । मुझे लगभग बारह घण्टे बाद होश आया। धीरे-धीरे मैं ठीक होने लगा।
गुरुदेव के साथ-साथ हम रतनगढ़ पहुंचे। वैद्य भगवतीप्रसाद को दिखाया। निदान उनका यथार्थ हुआ करता था । नवोदित वैद्य गोस्वामी धनाधीशजी की दवा प्रारम्भ हुई। न चाहते हुए भी भाईजी महाराज ने मुझे रतनगढ़ रखा। आचार्यप्रवर सरदारशहर पधारे । एक महीने के लम्बे उपचार के बाद चलने-फिरने लायक हुआ।
हम तीनों संत-मैं, वसंत और मणिमुनि,सरदार शहर पहुंचे। वि० सं० २०१३ का चातुर्मास प्रारम्भ होने के दिन से फिर अस्वस्थ हुआ। लगभग तीन महीने मैं परेशान रहा। परिचारक साथी और वैद्य-डॉक्टर प्रयत्न कर-करके थक गये । सेठ
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भंवरलालजी दूगड़ ने लगभग सरदारशहर के सभी मान्य वैद्यों से परामर्श किया पर उपचार नहीं बैठा । बिगड़ते-बिगड़ते स्थिति नाजुक दौर पर चली गयी। एक रात मैं फिर पांच घण्टा बेहोश रहा। सभी ने आशा छोड़ दी। उस रात सेठ भंवरलालजी, वैद्य प्रभुदयालजी, पंच नेमीचन्दजी बोरड़ आदि दसों श्रावक, भाईजी महाराज के पास रात भर बैठे रहे। भिन्न-भिन्न चिंतन चले। सबसे खूबी की बात तो यह थी, अभी भाईजी महाराज ने आशा नहीं छोड़ी थी। उनका विश्वास था, यह भी एक झोंका है, निकल जाएगा।
मुझे होश आया। अब उठी पेट में शूल । वह स्थिति भी वही थी। मैं धरती पर टिक नहीं पा रहा था। उछल-उछलकर दर्द हैरान करता रहा । सभी साथी सन्त और दर्शक श्रावक द्रवित थे। भाईजी महाराज-भिक्षु स्वाम, भिक्षु स्वाम का जाप जप रहे थे। आचार्यप्रवर दर्शन देने पधारे। वयोवृद्ध मंत्रीमुनि मगनलालजी स्वामी 'कुरसी' में पधारे। रात बीती, अनुभवी उपचार चले। माजी महाराज, महासतियांजी लाडांजी तथा साध्वियां आयीं, सबने अपने-अपने उपचार बताए। ___आशुकवि सोहनलाल सेठिया आया। उसने भाईजी महाराज के कान में कुछ अर्ज की। मुनिश्री ने सन्त वसन्त को आवाज दी और वह कविता जिसे मैंने उज्जैन में बनाया था, निकालकर लाने को कहा। मुनि वसन्त मेरे पास आये और संकेत किया। मैंने आंख खोली। पूछा । कविता कहां है ?
मैं झेंप गया। अपनी पूरी शक्ति लगाकर भी मैं बोल नहीं पाया।
भाईजी महाराज ने फरमाया-उसे क्या पूछता है ? ले आ उसकी कापियांडायरियां।
वे कापियां ले गये । सोहन-सेठिया ने ढूंढकर वह कविता निकाली। भाईजी महाराज ने पढ़ा-उसकी पहली पंक्ति थी
'जीने से मैं ऊब गया हूं, मुझे मृत्यु से मिल लेने दो।' मुनिश्री को झुंझलाहट आयी बिना आगे की पंक्तियां पढ़े एक ही झटके में कविता फाड़ फेंकी।
मैं अभी भी अपने बिहोने पर पड़ा-पड़ा कह रहा था-मेरी कविता मत फाडिए। मेरे मरने के बाद भी यह कविता मेरा परिचय देगी। मेरा जी बहुत तिलमिलाया। मेरे देखते-देखते कागज के उन टुकड़ों को पानी से गलाकर मुनिश्री ने अपने हाथ से कुट्टा बनाया और गांव बाहर जाकर धोरों में उन्हें गाड़ देने (परठने) का आदेश दे, भाईजी महाराज मेरे पास पधारे । कवि सोहनलाल साथ था। मुनिश्री जी ने आते ही फरमाया-बस, अब,रोग कट गया। मुझे क्या पता
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तुमने रोग को तो भीतर बण्डल में बांधकर रख छोड़ा है। पगले ! एक बात कहं ? सागर भाई ! ऐसी कविता भविष्य में कभी मत बनाना।
कविता कुदरत की कला, सागर! मिल्यो सूयोग, (पर) आइन्दा अपशब्द रो, फेर न करी प्रयोग।
और वह कविता फाड़ देने के बाद मैं क्रमशः ठीक होता गया। सरदारशहर चातुर्मास उतरते ही आचार्यप्रवर के साथ दस दिन में २०० मील की पदयात्रा कर दिल्ली-यूनेस्को सम्मेलन में सम्मिलित हो गया।
२७८ आसीस
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वे भाईजी महाराज थे
वि० सं० २०१३ का मर्यादा महोत्सव ! तेरापंथ द्विशताब्दी समारोह की योजनाएं बन रही थीं। एक अन्तर गोष्ठी में कलात्मक-पक्ष उजागर करने तेरापंथ-संघ के कलाप्रिय साधु-साध्वियों को बुलाया गया। दो सौ साल के तेरापंथ इतिहास को चित्रांकित करना निश्चित हुआ। मुनि दुलीचंद जी (पचपदरा) और मुझे (श्रमणसागर) कार्य सौंपा। श्री भाईजी महाराज सहर्ष मुझे कार्य-मुक्त करने को राजी हए। प्रोत्साहन दिया। मैं २०१४ का चातुर्मास चूरू करने मुनिश्री चम्पालालजी (मीठिया) के साथ गया । हमने रात-दिन एक कर चित्रकार खेमराज रघुनाथ शर्मा (नाथद्वारा) के सहयोग में भिक्षु-चित्रावली बनायी। मंगलचन्दजी सेठिया (चूरू) ने इस कार्य में पूरी दिलचस्पी ली। कुछ कारणों से कार्यावरोध आया। मैं फिर आचार्यप्रवर की बंगाल-यात्रा में साथ चला गया।
हमारा अपना लक्ष्य चालू था । गति भले ही मंद रही हो, पर नयी-नयी कल्पनाएं उठ रही थीं। तेरापंथ संघ का 'कला दर्शन' प्राणवान् बने हमारा ध्येय था। सुजानगढ़ की बात है। मैं शौचार्थ गया। वहां एक विशाल काले सांप की साबत कांचली देखी। मन इहितास के झूले में झूम उठा । मेवाड़ केलवे की अंधेरी ओरी के मंदिर में तत्कालिक मुनि भारीमालजी स्वामी के पैरों में सांप ने आंटे लगाये थे । स्वामीजी ने मंगल-मंत्र सुनाया, सांप ओरी छोड़ चला गया। क्या उस दृश्य को चित्रांकित करते इस सांप की कांचली को भारीमालजी स्वामी के पैरों में सांप के आंटों की जगह उपयोग में लिया जा सकता है ? ऐसा हो सके तो एक जीवन्त दृश्य बन जायेगा। इसी परिकल्पना में मैं वह कांचली ले आया। छुपे-छुपे योजना की क्रियान्विति में उस सर्प-केंचुली में मैंने धीरे-धीरे सावधानीपूर्वक सूखा नरम-नरम घास भरा। फण में रुई जचायी। अब वह ठीक मोटे असली सांप कीसी शक्ल में दिखने लगा। मैंने कुतूहल-कलावश उसे एक काष्ठ-पात्र में कुंडली की
संस्मरण २७६
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मुद्रा में जचाया। सांप का फण जरा उठा-उठा-सा रखा और ऊपर एक पात्र उलटों ढंका।
आचार्यप्रवर भोजन-निवृत्त हो टहल रहे थे। दसों संत इर्द-गिर्द पर्युपासना में खड़े थे । मैं वह ढंका पात्र हाथ में लिये पहुंचा। नजदीक गया। श्री ने योंही सोचा होगा, गोचरी में आया हुआ द्रव्य दिखाने आया है । गुरुदेव ने पैर रोके । मैंने एक्टिग करते हुए पात्र का ढकन हटाया और थोड़ा-सा हाथ हिलाया। हाथ के कंपन से सांप हिलता-सा प्रतीत हुआ, सचमुच जैसे असली सांप हो । श्री समेत सभी दर्शक सहम गये । मैंने अपनी कला को मन ही मन दाद दी। गुरुदेव से कला-दर्शन पर शाबासी ले, मैं भाईजी महाराज के पास पहुंचा।
उस समय छग्गू-बा भाईजी महाराज के पास बैठे आहार कर रहे थे। उनकी पीठ मेरी ओर थी । मैं गया और पीछे से वह असली जैसा सांप छग्गू-बा के गले में डाल दिया। सुना तो यों था छग्गू-बा मजबूत छाती के हैं पर मेरी इस हरकत ने उन्हें दहला दिया। वे धुंघाए । थर-थर कांपने लगे। मैंने अपनी गलती को ढांकने में खूब फुरती की। सांप गले से निकाल लिया । छग्गू-बा, सांप नहीं है, यह उसकी उतरी हुई निर्जीव कांचली है। उन्हें थामा, पर उनका कलेजा हिल गया था। छाती धग्-धग् कर रही थी। उसके होश-हवाश उड़ गये। वे पसीना-पसीना हो गए। मुझे अपनी जादूगिरी पर मलाल था। श्री भाईजी महाराज ने स्थिति संभाली, अपने हाथों से उन्हें पानी पिलाया। छाती मसली, बातों में लगाया। भय भुलाने का प्रयत्न किया। ___ छग्गू-बा का तो कुछ नहीं बिगड़ा लेकिन मेरा बिगड़ना सामने था । मैं सोच रहा था आज खैरियत नहीं है । मुंह सफेद पड़ गया। आंखें रुंआई-सी हो गयीं। वे भाईजी महाराज थे। मुनिश्री ने फरमाया-पगले ! तूं क्यों डरता है ? हो गया सो हो गया। मैं तुझे डालूंगा थोड़ा ही, पर देख !
'आगेसर करणी नहीं, सागर ! इसी मजाक। धसके स्यूं फाटै हियो, हुवै अनर्थ हकनाक ।।
२६० आसीस
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४७
घाव से घृणा
वि० सं० २०१७ माघ कृष्णा ६ लावा सरदारगढ़ (मेवाड़) में भाईजी महाराज आहार करने विराजे थे। हम कुछ मुनि आसपास बैठे थे । मुनिश्री को अकेले भोजन करना पसन्द नहीं था । जब तक उनके अगल-बगल में दो-चार सन्त नहीं होते, उन्हें खाना अटपटा-सा लगता । वे औरों को खिलाकर बहुत राजी रहते । अपने भोजन में से जब तक वे दो-पांच कवल (ग्रास) औरों को नहीं दे देते तब तक उन्हें चैन नहीं पड़ता, भोजन नहीं भाता। आवाजें दे देकर मुनियों को बुलाते । बुलावा भेज-भेज कर आमंत्रित करते । जो कोई मेरे जैसा संकोची या आदतन 'नो' कह देता तो उसे अव्यावहारिकता का तुकमा मिलता। मुनि बालचंदजी (गंगाशहर) या मुनि हीरालालजी (बीदासर) जैसे कभी-कधी उपवास पचख कर भाईजी महाराज के पास आते तो अक्सर मुनिश्री फरमाते-'कुमाणसां! म्हारै कनै इं टेम उपवास पचख'र आया मत करो, मन्ने को सुहावै नी।'
कभी-कभी मुनि दुलहराजजी विनोद करते आते और कहते-'आज मैं प्रतिज्ञा करके आया हूं, आपके यहां से कोई चीज नहीं खाऊंगा। उन्हें भी दो-चार कड़वीमीठी सुननी पड़ती। पर उनकी प्रतिज्ञा तो विनोदी होती। दो-चार मिनट भाईजी महाराज मनुहारें करते और उनकी प्रतिज्ञा पूरी हो जाती । सेवाभावी मुनिश्री बड़े सरसजीवी व्यक्ति थे। इसीलिए तो आज भी सन्तों को आहार के समय भाईजी महाराज की याद खटकती है।
उस दिन सन्तों की मण्डली से घिरे भाईजी महाराज आहार कर रहे थे कि इतने में मुनि ताराचंदजी (चूरू) पहुंचे। उनके दायें हाथ की तर्जनी के नख की जड़ में फोड़ा था । फोड़ा फूट तो गया, पर फूटकर भी विस्तार खा गया। उफनकर मांस बाहर आ गया। अंगुली दुगुनी हो गयी । उन्होंने भाईजी महाराज को वन्दना कर हाथ दिखाते हुए कहा-मोटा पुरुषां ! अंगुली की जड़ में एक ओर फूणसी
संस्मरण २८१
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उठी है, अब के करस्यूं ?
हाथ के उस विकृत घाव को देखते ही मुझे घृणा-सी हुई । ग्लानि-भरी सिकुड़न के साथ मैंने कहा-'भाई ! जरा थोड़ी देर के लिए तुम इस घाव को ढक दो, आराम से बैठो, अभी आहार हो जाता है, बाद में दिखाना। भले आदमी ! यह भी कोई घाव दिखाने का समय है ?
यद्यपि मैंने शिष्टता से कहा था, पर मेरा यह कहना भाईजी महाराज को बुरा लगा। उन्होंने तुरन्त खाना बन्द कर दिया। पास पड़ी दूसरी पात्री में चुल्लू कर उठ खड़े हुए।
पास बैठे सभी सन्त सन्न थे, यह क्या ? पर मैं तो जानता था, मुनिश्री के स्वभाव को। मैं बिना कुछ बोले शूल, रुई, मलहम और पट्टी ले आया। मुनि मणिलाल को गरम पानी और डिटोल लेने भेजा। आहार बीच में ही धरा रहा। पहले उनका घाव धोया, साफ-सफाई की। थोड़ा-सा शूल का सहारा दे घाव को खोला कि सघन पीब बह पड़ी। कोई आधा छटांक मवाद निकली होगी । मलहमपट्टी कर हमने हाथ धोये । अब तक मुनिश्री मन ही मन गुनगुनाते रहे । ज्यों ही पुनः आहार की मंडली जुड़ी कि भाईजी महाराज ने फरमाया
घृणा न करणी घाव स्यूं, रोगी स्यूं अनुराग । सागर ! सेवा संत री, मिले पुरबले भाग ।।
२१२ आसीस
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४८
बीमार को पहले
पौष का महीना था। बहिर-विहारी सन्तों का एक मेला । सहज समागम । हम सब एक-दूसरे को देखकर प्रफुल्लित थे। सैकड़ों ठाणों की भीड़ में स्वस्थ-अस्वस्थ, रोगी-ग्लानी, बाल-वृद्ध सभी तरह के होते हैं । भाईजी महाराज सबके केन्द्र थे। अस्वस्थ उनसे स्वास्थ्य का परामर्श लेते, रोगी दवा-पानी, पथ्य-परहेज पूछते, ग्लान अशक्त स्वयं के निर्वाह की याचना करते, बाल मुनि स्नेह लेने आते तो वृद्ध स्थविर आदर भावना से खिचे पहुंचते। यही था भाईजी महाराज की जन-प्रियता का सूत्रवे सबके थे। सब उनके थे। सेवा के अवसर पर उनकी दृष्टि में अपने-पराये का भेद नहीं रहता । बहुत बार तो निकटवर्ती-अपने साथ रहने वालों से भी औरों पर विशेष ध्यान दिया जाता। ___ मुनि अगरचंदजी स्वामी उन दिनों रक्त-विकार की व्याधि से पीड़ित थे। उनके लिए पथ्य-दूध और रोटी के अतिरिक्त सब कुछ बंद था । बहुत सारे ठाणों (सन्त-सतियों) का सहवास, गांव की सीमित गोचरी, उन्हें दूध उपलब्ध नहीं हुआ। उनके सहवर्ती मुनि चौथमलजी स्वामी (सरादार शहर) खाली पात्री लेकर आये। पीठ पीछे छुपाई पात्री देख भाईजी महाराज ने फरमाया-'चोथू ! कियां आयो भाया ! के चाहिजै है ? बोल ।'
उस समय भाईजी महाराज आहार करने विराजे ही थे। चौथमलजी स्वामी जरा सकुचाये। उन्होंने दबी आवाज में कहा--नहीं-नहीं, देखता था, महाराज ! दूध आया हो तो उन्हें आहार करा देता । आज हमारे यहां दूध नहीं आया।
सेवाभावी मुनिश्री ने सन्त पृथ्वीराजजी से पूछा-पी) । पय आयो है के ?
उन्होंने सिर हिलाते हुए उत्तर दिया-मत्थेण वन्दामि ! दूध तो आज कहीं गोचरी में नहीं धामा।
इतने में आहार लेकर मैं आया। भाईजी महाराज के लिए मैं आचार्यप्रवर के
संस्मरण २६३
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यहां से (समुच्चय की गोचरी में से) भोजन लाया करता था। गुरुदेव को आहार करवा कर फिर भाईजी महाराज आहार लेते । मुनिश्री के शब्दों में-'ठाकुरजी के भोग लाग्यां पछै ही पुजारां ने मिले।' मैं ज्यों ही आया भाईजी महाराज ने पूछा-दूध ल्यायो है ?
मैंने कहा-हां। 'तो चोथू ने दूध घाल दे' मुनिश्री ने आदेश दिया। मैंने ज्यों ही दूध की पात्री खोली मुनिश्री बोले, 'इत्तोई ल्यायो के ?' मैं बोला-समुच्चय में इतना ही था।
मैं चौथ मुनि के पात्र में दूध डाल रहा था। मेरे सामने समस्या थी। दूध थोड़ा था और अब लेने वाले मुनि तीन थे। मैं अनुपात से तीसरा हिस्सा रुक-रुक कर उनके पात्र में डाल रहा था। मेरे देने की प्रक्रिया देख, भाईजी महाराज ने तत्काल एक दोहा कहा
सागर ! मत कर सूमड़ा, कर काठो कंजूस।
दियां नहीं खूटे दरब, मत बण मक्खीचूस ॥ मैं धीमे से बोला-कंजूस नहीं। मैं सोचता हूं थोड़ा आपके उपयोग में आ जाये, थोड़ासन्त बसन्त के बुखार है, उन्हें दे दू और थोड़े से अगरचंदजी स्वामी का काम भी चल जाये। ____ भाईजी महाराज ने मेरे हाथ से पात्री ली और सारा दूध उनकी पात्री में उड़ेलते हुए कहा--'लेजा चोथू। मेरा क्या है मैं तो रोटी खाकर भी पेट भर लूंगा। वे बीमार हैं उन्हें तो और कुछ खाना ही नहीं है । जा-जा, ले जा, भाई ! बीमार को पहले।'
पास बैठे एक सन्त ने कहा-और बसन्तीलालजी को?
मुनिश्री ने हंसकर कहा- वाह ! वह तो जवान है और उसे बुखार भी है। बुखार को तो भूखा ही रखना चाहिए । अच्छा सागर ! एक काम करना, बन्सतीलाल को दुपहरे चाय मंगाकर पिला देना।
यह थी भाईजी महाराज की सेवा-भावना, आत्मीयता, अपना बनाने की कला और संघीय आर्तगवेषिणा।
२८४ आसीस
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४६
सेवा तप है
उन दिनों मुनि कुन्दनमलजी के हाथ में फोड़ा निकल आया था। वेदना भयंकर रूप ले चली । वे रात-रात भर जाग-जागकर निकालते। हाथ सूज गया। फोड़े के भीतर मवाद (रस्सी) कुलती । वे कराह-कराह कर सांसें लेते। क्षमता से अधिक बेचैनी थी। लूपरी, सेक और दवा नाना तरह से उपाय हो रहे थे, पर वह भी विष-कंटा था। उग्र रूप लेता ही गया। जलन बढ़ गयी। वे तो परेशान थे ही पर देखने वाले को भी सिहरन होती । फोड़ा ऊपर से गल गया था। उसमें छलनी की तरह अनेकों छोटे-छोटे छेद हो गये थे। भीतर की मवाद निकल सके, ऐसा कोई उपाय नहीं था । वह भीतर ही भीतर विस्तार खा रहा था।
श्रीभाईजी महाराज आहार (भोजन) करने विराजे ही थे। पहला ग्रास मुंह में था और दूसरा हाथ में । इतने में आये मुनि कुन्दनमलजी हाथ से हाथ को पकड़े। चेहरे पर खिन्नता। आंखों में तरलता। ओ भाईजी महाराज ! कोई उपाय करावो । अब पीड़ सहन कोनी हुवै।
मुनिश्री ने गरदन उठाकर उनकी ओर देखा । दयार्द्र हृदय पिघल गया । मुंह का कवल गले उतरना भारी हो गया। हाथ का ग्रास पुनः पात्र में छोड़ दिया। पानी का प्याला उठाया, हाथ धोये, पूरे हाथ पोंछे कि न पोंछे, हमने देखा-भाईजी महाराज का वात्सत्य भरा हाथ उनकी पीठ पर था । दूसरे हाथ से उनका सिर सहलाते हुए सेवाभावीजी ने कहा---'कुनणूं । घबरा मत भाया । मैं पेहली थारों काम करस्यूं । देख, अबार ठीक करूं' कहते-कहते उनका हाथ पकड़े, कच्चे चौक में जा पहुंचे।
भाईजी महाराज का हाथ लगते ही फोड़ा फूट गया। एक चिपकारी चली, कपड़े रस्सी के छीटों से भर गये । थोड़ा-सा दबाया कि दूसरी चिपकारी छूटी और सीधी चेहरे पर आकर गिरी । मुनि कुन्दनमलजी घबरा गये । सकपकाते हुए बोले
संस्मरण २८५
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-'महाराज ! आपरै छांटा लागग्या।' और भाईजी महाराज बिना छीटों को परवाह किए फरमा रहे थे-'तू सोच मत कर। कपड़ा को 'र शरीर को? ऐ तो धोया' र साफ। पण थारै ठीक होणो चाहिजे।'
मुझे (सागर) आवाज लगाई। मैं रुई, कपड़ा, पट्टी, पानी और डिटोल लेकर जब तक पहुंचा, इतने में तो न जाने कितने ही तुकमें मुझे मिल चुके थे। मैं पहुंचा, मैंने देखा-उनके फोड़े में से अच्छी-खासी मवाद, भाईजी महाराज पांच-पींचकर निकाल रहे थे और फरमा रहे थे--कुनणं । थोड़ी-सी हिम्मत राख भाया ! आज तन्ने आछीतरियां नींद आ ज्यासी।' धीरे-धीरे सारा भीतर का कचरा दबा-दबा कर निकाला। घाव धोया, मलहम लगाई, पट्टी बांधी और उन्हें यथास्थान सुलाया। भाईजी महाराज ने हाथों की सफाई की । 'सलफर' डाइजीन की एक टिकिया मंगाकर उन्हें खिलाई और फिर कपड़े बदले ।
मैंने कहा-सारा आहार ठंडा हो गया है, क्या ही अच्छा होता हम पन्द्रह मिनट में यहां का काम समेटकर फिर उस काम में निश्चितता से लगते?
भाईजी महाराज ने जरा-सी आंख लाल की? क्या कहा ? पहले खाना खाऊं? खबरदार! आज के बाद ऐसा कभी मत कहना । पहले सेवा है, बाद में खाना । वह बेचारा बीमार साधु तो कराहे और मैं आराम से गिढूं? तुम्हें मालूम होना चाहिए 'सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः' सेवा परम गहन धर्म है, उसे योगी भी मुश्किल से पा सकते हैं । यह सेवा बार-बार नहीं मिलती। रोगी का काम तो मानवता का तकाजा है। तेरापंथ धर्मशासन सेवा-प्रधान है। हमारे यहां की सेवा-चाकरी की एक अद्वितीय मिशाल है। सुन -
'सागर ! सोहक्यूं सुलभ है, दुर्लभ सेवा-धर्म । ओ तप 'चम्पक' गहनतम, मानवता रो मर्म ।।
२८६ आसीस
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छग्गू-बा
मुनि छोगालालजी स्वामी-बोराणा वाले सीधे-सादे पवित्र साधु थे, पुराणे युग की चाल-ढाल । यों कहना चाहिए वह मलीन-वस्त्रों में उज्ज्वल आत्मा थी। श्री भाईजी महाराज को ऐसे भले, भोले, स्नेहिल और सरल लोगों से बड़ा प्रेम था। उन्हें छग्गू-बा के नाम से हम संत लोग पुकारा करते थे। गांवड़ियों के निःस्वजनों से उन्हें लगाव था। वे सादे इतने थे--गांव के गरीब लोग के यहां की रोटी खाकर बहुत प्रसन्न रहते। स्वतंत्रता में उनकी तुलना किसके साथ करूं, समझ में नहीं आता । अपना काम औरों से करवाना उन्हें नहीं सुहाता था। औरों का काम वे बड़े चाव-भाव से किया करते। किसी को भी काम के लिए नाटना उन्हें आता ही नहीं था। वैराग्य उनकी वृत्ति में उतरा हुआ था। हमने बरसों से उन्हें दूध पीते नहीं देखा। उनका मनोज्ञ खाद्य था-मिरच, चटनी, लूखी-सूखी रोटी, छाछ, राबड़ी। गोचरी की शौख इतनी, वे तीसरे गांव जाते। वे तो ऐसे आदमी थे-बादाम की बरफी देकर बदले में लूखी रोटी लेना पसन्द करते। भाईजी महाराज के साझ-मंडल में आए बिना उन्हें रंगत नहीं होती। वे सचमुच ओलिये फकीर थे, आते और यों ही जमीन पर पसर जाते। हम कंबल देते पर वे नहीं लेते। कपड़े गंदे तो होने ही थे। इतने पर भी वे सबको प्यारे-प्यारे लगते । उनकी बोली भी अपने आप में निराली थी। सन्तजन जान-जानकर उन्हें बुलवाते । उनकी बोली के लहजे की प्रियता-आसरै 'यूं है क नी' औरी 'ऊं करे मती', 'मूरखो' आदि शब्द हर किसी को आकर्षित कर लेते । उनकी इस निश्छलता पर आचार्यश्री भी मुग्ध थे । तनाव, दुराव और खिचाव से दूर उनका जीवन रमझमता, मन-गमता-सा था।
वि० सं० २०१६ माघ कृष्णा दूसरी पांचम, दिनांक १५ जनवरी १६६३ की बात है। हम मेवाड़-गजपुर घाटा से आत्मा आ रहे थे। मध्याह्न का समय था। वह मेवाड़ी-पहाड़ी पथरीला रास्ता ! भाईजी महाराज के पैरों में दर्द । छग्गू-बा उस
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कंकरीले मार्ग पर हमें दो-तीन बार मिल गए। कभी पीछे से आगे निकलते तो कभी आगे से पीछे रह जाते । बार-बार यों आड़े-आड़े आते देख भाईजी महाराज ने फरमाया —— हमें तो अभी साठ भी नहीं आये हैं, जिसमें यह हाल है और बाबा चौरासी में भी गाडा गुड़का रहा है
'छग्ग-बा गमेती बावो, आवै आड़ो- आड़ो । 'चम्पक' बरस चौरासी आया, तोहि गुड़काव गाड़ो ।'
दिनांक १७ जनवरी को आत्मा गांव में आचार्यप्रवर की सन्निधि में एक चिंतन गोष्ठी हुई । श्री भाईजी महाराज ने विशेष तौर से निवेदन प्रस्तुत किया- 'जो संघीय सदस्य ८० वर्ष प्राप्त हो गए हैं उन्हें संघीय काम-काज से मुक्त किया जाना चाहिए । अस्सी वर्ष के बाद की उमर काम करने की नहीं होती। संघ के उन वयोवृद्धों का इतना सम्मान तो होना ही चाहिए । एक उमर के बाद हर क्षेत्र में कार्यं - मुक्ति (रिटायरमेंट) मिलती ही है । छग्गू बा का उदाहरण पेश करते हुए भाईजी महाराज ने जोर दिया। आचार्यप्रवर भाईजी महाराज की इस दयालुता पर पिघले और छग्गू - बा को आजीवन सामूहिक कार्य भार से मुक्त किया। श्री भाईजी महाराज आदरणीय वृद्धों के प्रति उदार, दयालु तो थे ही, पर समय पर शास्ता को उचित निवेदन करने से भी नहीं चूकते थे ।
२८८ आसीस
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पूज्यता तक पहुचाने वाले तो गुरु हैं
उदयपुर से बिहार कर श्री भाईजी महाराज राजनगर पधारे । मर्यादा-महोत्सव की व्यवस्थाओं का जायजा ले २०१९ पौष शुक्ला अष्टमी को बोरज होते हुए केलवा पहुंचे।
_केलवा से तेरापंथ का इतिहास जुड़ा पड़ा है। यहां का अन्धेरी ओरी वाला मंदिर तेरापंथ का उद्गम-स्थल है। आचार्य भिक्षु की कठोर, सत्य-परीक्षा और केलवा ठाकुर मोखमसिंहजी का प्रभावित होना जन-विश्रुत है। केलवा-ठिकाने की ख्यात-बही के अनुसार आचार्य भिक्षु का तेरापंथ भाव-दीक्षा के बाद पहला भोजन ग्रहण (गोचरी), तीन दिन के उपवास का पारणा भी रावले के अन्न से हुआ था । जयाचार्यश्री द्वारा अंकित लकड़ी की एक कामी (फुट) जिस पर लिखा है'भिक्षु छतारी छै' केलवे ठिकाने से ली गयी लकड़ी की है, जो आज भी लाडनं पुस्तक भंडार में सुरक्षित है । केलवा तब से अब तक तेरापंथ-संघ के लिए श्रद्धानत है। इसका जीता-जागता प्रमाण तेरापंथ द्विशताब्दी समारोह में हमने अपनी आंखों से देखा है। श्री भाईजी महाराज का पधारना केलवा के लिए अमित उल्लास लेकर हुआ। सैकड़ों-सैकड़ों छात्रों और महिलाओं के साथ जन-समूह ने स्वागत किया।
रावले के चौक में प्रधानाध्यापक श्री पुरी, केलवा ठाकुर श्री दौलतसिंहजी एवं चाचा ठाकुर रामसिंहजी के बाद कवि सेंसमलजी कोठारी ने कुछ प्रशस्ति पद्यों के बीच कहा
इक चम्पा हरि सिर चढ़े, इक मन हरत विकार।
मनहर चम्पालाल को, बन्दूं बारम्बार ॥ कवि की युक्तियुक्त बात से जनता मुखातिब हो उठी।
संस्मरण २८६
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श्री भाईजी महाराज ने प्रत्युत्तर में केलवे नगर की विशेषताएं, ठिकाने के अपने संघीय-संबंध बताते हुए फरमाया
बेशक चम्पा मंदिरों में चढ़ता है, भक्तों की भक्ति का माध्यम बनता है। मनोहर होता है। उसकी बन्दनीयता भी सही है। पर यह सब चम्पा की विशेषताएं नहीं हैं। महानत तो है माली की, कृति है वृक्ष की, कीर्तना है भक्तों की और आदरणीयता है सुगन्धित सफेदी की।
- पूज्यता तक पहुंचाने वाले गुरु होते हैं । महानता है पूज्य गुरुदेव कालूगणी की, जिन्होंने इस चम्पे को सींचा-रुखारा । प्रधानता है संघ-वृक्ष की तेरापंथ जैसे कल्पतरु की जिसने आश्रय दिया। प्रमुखता है भक्तों की, जिन्होंने ना-कुछ व्यक्ति को इतना आदर दिया, मान दिया और सबसे अधिक पूजनीयता है सुगन्ध-गुणयुक्त सफेद आचार की। इसलिए कविराजजी यों कहिये
'माली सींच्यो, तरु फिल्यो, चढयो भक्तजन हाथ। चम्पे री आ पूज्यता, सदा सफेदी साथ ।
२६० आसीस
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हमारी लक्ष्मण-रेखा
वि० सं० २०१६ उदयपुर चातुर्मास के बाद भी श्री भाईजी महाराज को वहीं रुकना पड़ा। पर मन नहीं लगा। थोड़ा-सा स्वास्थ्य सुधरा कि विहार किया। राजनगरकेलवा होते हुए हम दिनांक ७-२-६३ रीछेड़ पहुंचे । समग्र साधु संघ को साथ ले आचार्यश्री ज्येष्ठ बन्धु की अगवानी में पधारे । कोई डेढ़ मील दूर चारभुजा सड़क पर मिलन हुआ। समवसरण में पहुंचकर पुनः स्वागत वन्दना हुई । साध्वियों ने मंगल गीत गाये | आचार्य देव ने यात्रा संस्मरणों के साथ भाईजी महाराज के लिए अनेकों शब्द फरमाये । मिलन के अवसर पर आचार्यप्रवर ने एक छप्पय - छन्द के माध्यम से
फरमाया
उदयापुर से आप हम, चले मिले रीछेड़ सरल सड़क ली आपने, हमने ली भटभेड़ हमने ली भटभेड़, मोज-माणी मगरांरी, पग-पग दृश्य निभाल चाल धीमी डगरांरी । क्षेत्र-क्षेत्र संभाल मैं, लागी लम्बी गेड़, उदयापुर से आप हम, चले मिले रीछेड़ ॥
उस दिन वि० सं० २०१६ पौष शुक्ला त्रयोदशी थी । सैकड़ों सैकड़ों बहिरबिहारी साधु-साध्वियां एकत्रित थे । मध्याह्न में आचार्यप्रवर के सान्निध्य में एक साध्वी समाज की संगोष्ठी हुई । आचार्यश्री सैकड़ों साध्वियों से घिरे हुए विराज रहे थे। चारों ओर साध्वियां ही साध्वियां । कहीं रास्ता नहीं । भाईजी महाराज आचार्यश्री के पास जाना चाहते थे । देखा, सभी रास्ते रुके हुए हैं। इधर पधारे रास्ता बन्द, उधर पधारे रास्ता बन्द । मुनिश्री ने जोर से कहा - 'सगला ही रास्ता बन्द हैं, के म्हे भी आ सका हां ?"
संस्मरण २६१
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सबका ध्यान टूटा। आचार्यप्रवर ने जरा मुस्कराकर फरमाया-'आवो ! आवो ! सब रास्ते खुले हैं। भला ! आपके रास्ते कौन बन्द कर सकता है ?' भाईजी महाराज से नहीं रहा गया। वे बोले-'आपके सिवा और कौन बन्द कर सकता है ?' आचार्यप्रवर के इशारे की देर थी। साध्वियों ने इधर-उधर खिसककर रास्ता बना दिया। मुनिश्री आचार्यप्रवर तक पहुंचे। पहुंचते-पहुंचते आपने एक पद्य बनाया और तत्काल सभा के समक्ष सुनाते हुए कहा-खमाघणी !
सिवा आपरे कुण सके, रस्ता म्हारा रोक,
आज्ञा लिछमण-रेख आ, 'चंपक' चौड़े चोक।' आचार्य सहित पूरा साध्वी समाज हंस पड़ा। अवसर की वह सचोट बात और साथ-साथ शास्ता की आज्ञा का महत्त्व, समय की एक सूझ थी। __भाईजी महाराज ने अनायोजित ही एक लघु वक्तव्य देते हुए फरमाया-'मैं तो कुछ पढ़ा-लिखा नहीं हूं, पर इतना अवश्य जानता हूं कि आज्ञा हमारा परमधर्म है। 'जिन मारग में आज्ञा बड़ी' स्वामीजी का अमोघ वाक्य है। आज्ञा ही साधक का जीवन है। आज्ञा प्राण है। आज्ञा रक्षा है। आज्ञा त्राण है। आज्ञा ही हमारे लिए लक्ष्मण-रेखा है। जब तक सीता ने लक्ष्मण-रेखा का उल्लंघन नहीं किया, उसे कोई खतरा नहीं था। वह दुष्ट रावण की बातों में आ गयी। संन्यासी के धोखे में ज्योंही उसने रेखा को लांघा कि रावण का दांव लग गया। सीता को कितने कष्ट झेलने पड़े ? हमारे लिए यह आज्ञा ढाल है। सुरक्षा की इस सीमा-रेखा में रहकर हम परम-आनन्द का अनुभव करते हैं। सात हाथ की सोड़ में सोते हैं। कोई हड़का है न धड़का। खुल्लम-खुल्ला बात है-हम तो आज्ञा के पुजारी हैं । आचार्य की आज्ञा ही हमारे लिए लक्ष्मण-रेखा है। आपके द्वारा निकाली गयी निषेध-लकीर हमारे लिए दीवार है, समुद्र की-सी खाई है । हम उस निषेध,रेखा का लंघन नहीं कर सकते। अतः गुरुदेव ! मैंने कहने का साहस किया है।
सिवा आपरे कुण सके, रस्ता म्हारा रोक। आज्ञा लिछमण-रेख आ 'चम्पक' चौड़े चोक'
२६२ आसीस
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५३
यश भी भाग्य से मिलता है
२०१६ माघ कृष्णा चतुर्दशी की बात है। आचार्यप्रवर केलवा राज-महलों में विराजे थे। मुनि खूबचन्दजी की आंत उतर गयी । गोसा उतर जाने के बाद पट्टा लगा लेना भी तो गलती थी, पर हो गयी। कटिबन्ध के दबाव से रास्ता सिकुड़ गया। भरसक प्रयत्न किये, पर आंत ऊपर नहीं चढ़ी। बेचैनी बढ़ गयी। वह तो बढ़नी ही थी। खूब मुनि जैसा रांगड़, प्रौढ़, साहसी और छाती के ठड्डे वाला आदमी भी हताश हो गया। हाय-हाय की उस स्थिति में अनेक जानकार लोगों की सभी करामातें असफल रहीं।
कोई चार घंटे के बाद राजनगर के सरकारी डॉक्टर रेउ साहब पहुंचे। उन्होंने देखा, प्रयत्न किया, ज्यों-त्यों आंत चढ़ जाए, अन्त में वे बोले-'अब ऑपरेशन के अतिरिक्त और कोई इलाज नहीं है। इन्हें राजनगर भेजो । मैं शल्य-क्रिया करूंगा। बचने का एकमात्र यही उपाय है।।
श्री भाईजी महाराज आचार्यश्री जी की सेवा में पधारे । स्थिति निवेदन की. विचार-विमर्श हुआ, वापस लौटे और मुनि खूबचन्द जी से फरमाने लगे-'देखो, खूबचन्द जी! मरना तो सामने दीख रहा है। इसका कोई विचार भी नहीं है। अब दो रास्ते हैं—एक गृहस्थों का आश्रय लेना, यह शायद तुम्हें भी पसंद नहीं, मुझे भी पसन्द नहीं। दूसरा समभाव से कष्ट सहन करना। मैं भी इस वेदना की असह्यता को पहचानता हूं। इलाज विधि के अनुसार होगा, पर तुम्हें राजनगर जाना पड़ेगा, तुम पैदल जा सको संभव नहीं है। सन्त उठाकर पहुंचाएंगे । बोलो क्या इच्छा
__ वे बोले-'मैं कहूं भी तो क्या ? आप जैसी व्यवस्था करें, मुझे मंजूर है । गुरुदेव की जो मरजी हो । मरना तो है ही पर यों तड़प-तड़पकर मरना पड़ेगा यह नहीं जाना था। जो कुछ करना हो आप ही करें, मैं संघ की शरण में हूं।'
संस्मरण २६३
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श्री भाईजी महाराज आचार्य प्रवर से व्यवस्था देने का निवेदन करने पधारे । कोई दसेक कदम गये होंगे, स्वर देखा, वापस मुड़े।
डॉक्टर बोले-'क्यों साहब ! क्या सोचा?'
भाईजी महाराज ने कहा-'डॉक्टर ! मेरे मन में आया, इन सबने प्रयत्न कर लिया, मैं भी देखू तो सही यह आंत क्यों नहीं चढ़ती ?'
मुनिश्री विराजे । स्वामीजी का स्मरण किया और आंत पर हाथ का दबाव दिया। सहारा लगा कि आंत खट, ऊपर चढ़ गयी। मुनि खूबचन्द जी बोले'जिला दिया।'
___ डॉक्टर रेउ अचंभित थे। उन्होंने कहा-~भाईजी महाराज ! आप में तप का बल है। सन्तों ने कहा-पुन्यवान के हाथ में ही करामात होती है। भाईजी महाराज ! आपने क्या अटकल लगायी? और भाईजी महाराज कह रहे थे
'अटकल-पटकल कुछ नहीं, कल बाबैं को नांव ।
जस जद मिलणे रो हुए, (तो) 'चम्पक' लागें दांव' सनते ही आचार्यप्रवर स्वयं पधारे और फरमाया-चम्पालालजी स्वामी! 'यशः पुन्यैरवाप्यते'-'यश भी भाग्य से मिलता है।'
२६४ आसीस
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५४
भगत जीत गया
मेवाड़ में पहुंना के नजदीक ही ऊंचा एक छोटा-सा गांव है। वे लोग प्रार्थना कर रहे हैं पधारने की । पर श्री का मन कम-कम है । प्रातः पंचमी -समिति ( शौच - निवृत्ति) पधारते समय रास्ते में श्री भाईजी महाराज ने निवेदन किया - महामहिम ! जरा गौर फरमाओ न, बेचारे ऊंचा वालों का इतना मन है, फिर कब-कब पधारना होगा, करवा दो न कृपा, आप तो तरन तारन हैं ।
आचार्यश्री ने मुस्कराकर फरमाया- उनका मन क्या देखें, मन तो देखना पड़ता है आपका |
इतने में ऊंचा कुंवर साहब पहुंच गए। श्री भाईजी महाराज ने कहा, कुंवर - सा ! खूब मौके पर आए। उन्होंने पैर पकड़ लिये । भाईजी महाराज ने सहारा दिया । गुरुदेव ऊंचा पधारे ।
ऊंचा से पहुंना, मरोली, जाड़ाणा होकर भीमगढ़ प्रवेश हुआ । यहीं से लांगच गांव का रास्ता है। भाई मांगीलाल बहुत दिनों से प्रयत्न में हैं - आचार्यश्री का लांगच पदार्पण हो, पर गुरुदेव अभी टालने में हैं । आज मांगीलाल रास्ता रोक, पैर पकड़कर बैठ गया । लगभग सभी संतजन भी ना में हैं । शास्ता के नाते खीजबीज - भीज सब कुछ किया, पर वह बंदा टस से मस नहीं हुआ । अंत पसीजकर आचार्यवर रीझे और फरमाया - चम्पालालजी स्वामी ! बोलो, अब क्या करें ?
श्री भाईजी महाराज ने चुटकी लेते हुए कहा - महाराज ! यह भगत और भगवान का झगड़ा है, हम कौन होते हैं बीच में बोलने वाले, हम तो खड़े-खड़े देख रहे हैं, देखें ! आज कौन जीतता है-भगत या भगवान् ?
आचार्यश्री ने लांगच पधारने की घोषणा की और भाईजी महाराज ने कहा -- वाह ! वाह ! वाह ! आज तो भगत जीत गया, भगत जीत गया । वि० सं०
संस्मरण २६५
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२०१६ चैत्र कृष्णा तेरह को लांगच की ग्रामीण सभा में बोलते हुए भाईजी महाराज ने फरमाया
मांगी, मांग करी घणी, पर नहीं मानी एक पड्यो गुरां मैं पिघलणी, रही भगत की टेक. १ भगत बड़ो संसार मैं, सब ली इकमति ठान, (पर) भगता रै लारै झुकै, देखो यूं भगवान २ भगती मैं सगती विविध-जुगती करें विनीत, रीत प्रीत री देखल्यो, हुई भगत री जीत...३
२९६ आसीस
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पगडंडी का रास्ता
हमने एक गांव से विहार
।
गांव का नाम तो मैं भूल गया पर मेवाड़ की घटना है । किया । सड़क सड़क चल रहे थे। सड़क भी कच्ची थी रास्ता मगरी ( पहाड़ियों) का था। थोड़ी दूर चले कि एक घुमाव पर हमने अपने आगे चलने वाली मुनिमंडली को देखा । ऐसा लगा कि बहुत घुमाव है । इधर-उधर देखने पर एक पगडंडी दिख पड़ी । वह बहुत साफ तो नहीं थी, पर थी चालू । सन्तों ने भाईजी महाराज से कहा - मोटा पुरुषां ! सड़क तो बहुत घूम रही है । यह पगडंडी का रास्ता सीधा निकलेगा ।
दो क्षण रुककर मुनिश्री ने फरमाया - ना भाई ! ना, शकुन रोक रहे हैं, यह रास्ता गलत होना चाहिए। हम सड़क सड़क आगे बढ़े। कोई दस कदम भी नहीं चले होंगे, मुनिश्री ने फरमाया- लगता है पीछे वाले सन्त कहीं भटक जाएंगे, अतः पगडंडी पर निषेध चिह्न (क्रोस) तो कर दो। आपने अपने गेड़िये से क्रोस का चिह्न कर दिया । घुमाव के उस छोर पर जाकर हमने देखा तो पिछले सन्त हमारी उसी पगडंडी को देख रहे हैं । जो हमारे मन में आई उनके भी आई होगी । उन्होंने निषेध -चिह्न की परवाह न कर, पगडंडी ले ली । मुनिश्री ने दूर से बहुत संकेत किए पर वे उन्हें उलटा ही लेते गये ।
उनके कदम शीघ्र गति से मार्ग तय कर रहे थे। दो मिनट के बाद तो वे हमें दीखने से ही रहे । वे चाहते थे, हम भाईजी महाराज को पीछे छोड़, आगे पहुंच जाएं। उन्होंने गति को और बढ़ा दिया । जवानी के दिन थे, पैरों में ताकत थी । बिना इधर-उधर देखे, वे अपनी धुन में चलते ही गये । मीलों का रास्ता तय कर लिया पर अभी मूल सड़क नहीं आयी । आती कैसे ? सड़क उस पहाड़ी से पूर्व की ओर मुड़ गई । वे भले आदमी अपनी मस्ती में पगडंडी पर चलते ही चले । पगडंडी पश्चिम की ओर घूमती गई। अगली टेकरी पार करने पर उनके सामने एक सूखी
संस्मरण २६७
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बरसाती नदी आ गयी। बस, वहां जाकर पगडंडी समाप्त । अब जाएं भी तो किधर ? पूछे भी तो किसे ? वीरान जंगल । हिम्मत बहादुर वे दोनों सन्त उज्जड़ जंगल में रडभड़ते दुपहरी में जाते एक छोटे से आदिवासी गांव में पहुंचे। दो घंटा विश्राम किया। ढलती दुपहरी में वे अगले गांव का रास्ता पूछते-पूछते सायंकाल हमसे आकर मिले।
वे खुद खिन्न हो गये थे। भाई जी महाराज तो दस बजे से उनकी चिन्ता में थे। न जाने कितने लोगों से पूछा। कितनों ने ही खोज-खबर के प्रयत्न किए, पर कहीं अता-पता नहीं लगा। जब सन्त सही-सलामत पहुंचे तब जाकर मुनिश्री को चैन पड़ा । ज्यों ही सन्त आए, उन्हें आश्वस्त किया। कुछ विश्राम कराकर, पास में बैठ आहार करवाया। दिन थोड़ा था। आहार-पानी कर चुकने के बाद उन्हें सारा हाल पूछा। वे पश्चात्ताप के स्वरों में अपनी आप-बीती बता रहे थे। इसी बीच भाईजी महाराज ने मधुर हास्य बिखेरते हुए कहा
गफलत स्यूं गोता पडे, खेद खिन्न हो ज्याय। 'चम्पक' जो पथ चूकज्या, (वो) पग-पग पर पिछताय ॥'
२९८ आसीस
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यह कैसी बुद्धिमानी
२०१६ चैत्र कृष्णा चतुर्दशी को आचार्यप्रवर रशमी से विहार कर मान्यास पधार रहे थे ।। मुनि मांगीलाल जी सरदारशहर वाले आगे-आगे चल रहे थे। उनकी चाल यों ही ढीली-ढाली थी। तपत और मेवाड़ी रास्ता, भंडोपकरणों का अत्यधिक बोझ और शरीर भारी, वे परेशान हो, एक स्थान पर बैठ गए।
भाईजी महाराज दयालु हैं। किसी संत पर वे यों ही दयालु हो जाया करते। फिर असहाय और कमजोर पर तो वे प्राय: पिघल उठते थे। मुनि मांगीलाल जी शरीर से भारी, अपस, उट्ठाणा क्रिया में शिथिल, आलसी पर थे बहुश्रुत । बुद्धि तीव्र और याददास्त बजराट है । सात आगम उन्हें कंठस्थ हैं। हां, यदि थोड़ासा प्रमाद नहीं होता तो क्या कहना? वे अपने आपको 'मधुर' कहते थे। दोनों बाप-बेटों ने साथ दीक्षा ली थी। उनके पिताजी का नाम फूसराज जी स्वामी था। वे भी आगम-ज्ञाता, तत्त्वदर्शी सन्त थे। किसी साधु को बैठा देख दूर से भाईजी महाराज ने पूछा--यह कौन बैठा है ?
सन्तों ने कहा-आलस-निकाय मधुर मुनि । वे काम करने में ढीले थे। प्रतिलेखन, प्रतिक्रमण भी सबके बाद पूरा होता था । मन के सरल थे पर आलस के कारण सन्त उन्हें आलस-निकाय कह देते।
श्री भाईजी महाराज उस सन्त की ओर मुड़कर बोले-ना भाई ! ऐसा नहीं कहा करते। यह तो बहुश्रुत है। 'बहुश्रुत की आशातन मत करो।' भाईजी महाराज को नजदीक आते देख मुनि मांगीलाल जी स्वामी उठे। मुनिश्री ने हमदर्दी दिखायी। उनसे बोझ मांगा। थक गया क्या मांगू? ला! वजन दे दे, आराम से चला जाएगा। उनका झोलका बहुत भारी था, हाथ में उठाया तो पत्थर जैसा लगा। ठिकाने आकर मुनि हीरालाल जी से भाईजी महाराज ने फरमायाहीरा ! इसका बोझा कम कर दो भाई ! हम कुछ सन्त बैठे। उनकी नेश्राय का
संस्मरण २६६
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अपना वजन १८ सेर लगभग निकला। हमने दिन में दो घंटा लगाकर आवश्यकअनावश्यक पुस्तक पन्ने और कपड़ों-लत्तों को छांटा । पर उनका मन नहीं माना, एक-एक कर सांझ तक सभी उपकरण और पन्ने वापस ले गये। जब भाईजी महाराज के टोकने पर भी वे नहीं समझे, तो मुनिश्री ने फरमाया
'मांगीलाल मतंग ज्यूं चाल, फूसराज रा पूत। बिन मतलब ही खांधा तौड़ें, आ कुणासी आकृत ।।'
३०० आसीस
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५७
गंगापुर में दो संवत्
वि० सं० २०१६ का राजनगर मर्यादा- महोत्सव सम्पन्न कर गुरुदेव भाणा, जतपुरा होते हुए फाल्गुन शुक्ला १२ को गंगापुर पधारे। होली के बाद गंगापुर वालों का आग्रह था कि लम्बा विराजना हो । आचार्यप्रवर ने फरमाया - चम्पालाल जी स्वामी ( भाईजी महाराज) को राजी करो । इन्होंने पहूने वालों को लगा दिया है । गणेश कूकड़े का समर्थन भाईजी कर रहे हैं । गंगापुर वालों ने भाईजी महाराज से कहा । मुनिश्री ने फरमाया - मैं तुम्हारे अंतराय नहीं देता, पर ये तुम्हारे, अड़ोस-पड़ोस में बसने वाले भी तो तुम्हारे ही छोटे भाई हैं, बड़ा भाई, भाई को न देखे, क्या यह ठीक है ? कुछ संतोष करो, बांट-बांटकर खाना सीखो ।
गणेश कूकड़े की आंखें भर आईं । आचार्यश्री जी पसीजे । पुर पहुने पधारने का आदेश देते हुए फरमाया-'चम्पालालजी स्वामी जिसके पक्ष में खड़े हो जाते हैं, वह मुकदमा जीत जाता है। गणेश ने बड़ा वकील खड़ा कर लिया । मेरा मन बिलकुल नहीं था, पर विवशता भी एक होनहार है और सबकी बात टाल सकता हूं पर भाईजी महाराज का आग्रह तो मैं भी नहीं टाल सकता ।'
1
चैत बदी पंचमी को विहार हुआ । नांदसा, स्योरती, महेन्द्रगढ़, कारोई, पुर, गाडरमाला होकर पहुना पधारे । गणेशजी कूकड़ा ने अभिनन्दन पत्र में पढ़ा'इस अवसर पर हम ज्येष्ठ भ्राता सेवाभावी मुनिश्री चम्पालाल जी स्वामी का हार्दिक आभार मानते हैं जिनके अपूर्व सहयोग ने आपश्री के श्री चरणों को इस धरती की ओर आने के लिए बाध्य किया ।'
ऊंचा, मरोली, जाडाणा, भीमगढ़, लांगच, चड़ावड़ी, रास्मी, मान्यास, रेवाड़ा, स्योनाणा, लाखोला 'होकर चैत कृष्णा अमावस्या को पुनः गंगापुर पधारना हुआ । भाजी महाराज ने आते ही फरमाया
संस्मरण ३०१
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'गंगापूर स्यं गंगापुर तक, दिवस ग्यारह लाग्या,
पुर 'पहूंनो मिला, भाग अट्ठारह गांवा रा जाग्या।' आचार्यप्रवर ने प्रसन्नतापूर्वक फरमाया-चम्पालाल जी स्वामी ! आपका सुझाव ठीक रहा । थोड़े समय में बहुत सारे गांव फरसे गये।
आज चैत्र शुक्ला प्रतिपदा है। नया सम्वत् २०२० प्रारम्भ होते ही भाईजी महाराज ने गुरुदेव को नये वर्ष की शुभकामनाएं एक आगम वाक्य के साथ निवेदित की
'नाणेणं दसणेणं च, चरित्तेण तहेव य ।
खंतीए मुत्तीए, वडढ्माणो भवाहि य ॥' आर्य ! आपके लिए यह नया वर्ष ज्ञान से, दर्शन से, चरित्र से, क्षमा से, मुक्ति से प्रवर्धमान हो। ___ गंगापुर के लोगों ने कहा-भाईजी महाराज ने हमारे दिन कटवा दिए। मुनिश्री ने फरमाया-ऐसा नहीं, यों कहो
अमावसी पधरावणो, . एकम हुवै विहार ।
दोसम्वत् गंगापुरफरस्या, 'चम्पक' जय-जयकार ॥' भाई ! तुम्हें तो दो वर्ष मिले हैं २०१६ और २०२० । कम कहां है ? कम मत कहो, यों कहो-जय-जयकार कर दिया। दो वर्ष फरसे गए।
३०२ आसीस
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५८. ईमानदारी की बात कोई मानेगा?
२६ मार्च १९६३, चैत्र शुक्ला ४-५, वि० सं० २०१६ का दिन था। मध्याह्नोत्तर ३-३० सरदारगढ़लावा से विहार कर हम आगरिया पहुंचे। सायंकालीन गुरुवन्दना के बाद भाईजी महाराज प्रतिक्रमण कर रहे थे । एक भाई आया और कान में कुछ कह गया। कोई खास बात है । चेहरे की खिन्न रेखाएं बता रही थीं। एक के बाद दूसरा, तीसरा, चौथा यों प्रतिक्रमण के बीच कुछ लोगों का आना-जाना, घुस-पुस करना, स्पष्ट किसी स्हस्य का संकेत था। सभी लोग मनोमन अटकलें लगा रहे थे । कोई अपना अनुमान बता रहा था तो कोई किसी को पूछने के प्रयत्न में था।
प्रतिक्रमण पूरा होते ही भाईजी महाराज ने दो क्षण आचार्यश्री के कान में कुछ कहा और बिना किसी विचार-विमर्श के पुनः अपने आसन पर विराज गये। इधर-उधर देखकर मुझे नजदीक आने का संकेत किया । मैं ज्यों ही मुनिश्री के निकट पहुंचा कि बिना कोई भूमिका बांधे, कड़े रुख से आपने पूछा-साफ-साफ बताओ। वह कहां है ? घस-पस की जरूरत नहीं है। ___मैं भौंचक्का रह गया। धक्-धक कलेजा धड़कने लगा। हाथों-पांवों में कम्पन शुरू हो गया। चेहरे की हवा उड़ गयी। मैं दिग्-मूढ़ था । यह कैसा प्रश्न ? यह कैसी कड़ाई ?
भाईजी महाराज ने आगे फरमाया-घबराओ मत ? डरने की आवश्यकता नहीं है, जो होना था हो गया । यथार्थ को बिना छुपाए यह बताओ वह है कहां? जहां सन्तों ने सोने का स्थान निर्णय किया था, वह वहां नहीं है। यहां भी नहीं है ? वहां भी नहीं है । केवल उसकी नेत्राय का ओघा उस ठिकाने के दरवाजेपोली में पड़ा है। तुम दोनों घनिष्ठ साथी हो । तुम्हारे बीच आंतरिक सलाह-सूत भी होती है। जो कुछ भी है। साफ-साफ बता दो, ताकि ढूंढ़ने वालों को नाहक
संस्मरण ३०३
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परेशानी न हो। __ मैं अब तक मौन, नीचा सिर झुकाए, जमीन कुरेद रहा था । मुझे अनबोल देख, भाईजी महाराज ने मेरी पीठ पर हाथ रखा। प्रेम से सहलाते हुए फरमाया—यह कोई तुम्हारे पर आरोप थोड़ा ही है । तुम डर क्यों गए? जो होना होता है उसे कोई रोक नहीं सकता। तुम्हें जो पता हो वह बता दो । लगता है, उसके पैर उखड़ गए हैं। वह संघ छोड़कर भाग गया है, कायर' कहीं का।
मैं इस घटना से सर्वथा अनभिज्ञ था। रात-दिन साथ रहने वाले साथी के विषय में यह कल्पना भी नहीं की जा सकती। मैंने कांपते स्वरों में कहा-सच-सच तो यह है कि मुझे कोई पता नहीं है, पर मेरी इस ईमानदारी की बात को कोई मानेगा ? मैं बोलकर क्या करूं?' ।
भाईजी महाराज ने मुझे आश्वस्त करते हुए फरमाया--देख, औरों को विश्वास हो न हो, पर मुझे तो प्रतीत है। मेरे सामने तूने कभी गलत बात नहीं की। मैं मानता हूं तेरी चलती बात का लहजा ही कुछ और होता है । पर, यह हुआकैसे ? अकल्पनीय, अचिन्त्य'' 'कहते-कहते मुनिश्री गंभीर हो गए।
दीक्षित होकर प्रारम्भ से ही पुष्पराज जी भाईजी महाराज के पास ही रहे थे। उनका सारा संस्कार-निर्माण मुनिश्री के हाथों से हुआ था। अपने हाथ से पाले-पोसे पौधों को यों अप्रत्याशित जड़ें छोड़ते देख, मन में आना स्वाभाविक था । उसमें भी भाईजी महाराज जैसे वात्सल्य प्रधान, दयार्द्र-हृदयी के लिए और भी दुसह्य था।
बीस साल का हमारा अपना सान्निध्य, अन्तरंग एकत्व, आज अनबोले ही टूट गया था । टूट गया था या जान-बूझकर तोड़ दिया गया था । पर खेद तो इस बात का हो रहा था कि बिना किसी पूर्व सूचना, सन्देह के एक तूफान आया और सहसा सब कुछ उड़ाकर ले गया। प्रातः से सायंकाल तक एक साथ रहने, बैठने, बोलने और कार्य करने वालों को इतना-सा भी सुराख न लगे, यह अवश्य सन्देहास्पद था, पर जो यथार्थ था, वह सही था। मुझे किसी भी तरह का न तो पता ही था और न सन्देह । भाईजी महाराज के मन की प्रतिक्रिया एक दोहे के माध्यम से यों निकली-..
'ओ कांटो कदस्यूं उग्यो, अरे! फूटरा फूल !
'चम्पक' होकर चतुर क्यं, गई विधाता भूल ?' मन को खटकती हुई तीव्र वेदना शब्दावली में फूल के मिस उभरी । अक्सर भाईजी महाराज पुष्पराज के स्थान पर फूल का सम्बोधन करते थे। पुष्प और फूल एकार्थक जो हैं।
३०४ आसीस
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मन का कांटा
वि० सं० २०१६ वैशाख कृष्णा ४, १३ अप्रैल, १६६३, की बात है । रामसिंहजी के गुड़े से विहार कर हम राणावास जा रहे थे । मार्ग में एक बबूल का कांटा भाईजी महाराज के पैर के तलवे में चुभ गया। कांटा उसी स्थान पर चुभा जहां पहले से आइठाण (ऐठण) था । एक पांव भी आगे चलना कठिन हो गया। कांटा निकालने के लिए भरसक प्रयत्न किए पर वह नहीं निकला सो नहीं ही निकला ।
यह प्रदेश कांठा है । यहां के कांटे भी नामी हैं । परसों ही एक कांटा लगा था । - पूरी शूल पगथली में घुस गयी थी। बड़ी कठिनता से उसे पूरी ताकत के साथ खींचकर निकाला था । एक झटके में शूल तो निकल गयी पर साथ ही खून की धार भी बह निकाली। पैर में अच्छा-खासा दर्द हो गया । सेक आदि करने पर वह कुछ हलका पड़ ही रहा था कि आज उसी के पास दूसरा कांटा और लग गया । लंगड़ाते नीठ-नीठ राणावास लिया । कई सन्तों ने जो कांटा मास्टर थे. कोशिशें कीं पर वह भी तो पूरा जिद्दी ठहरा, निकालने वाले सारे हार गए । अन्त में झुंझलाकर भाईजी महाराज ने फरमाया-' छोड़ो अब मुझे दो' और देखतेही देखते शूल का एक गहरा सान्ता दिया और कांटे को ऊपर उठा लिया । अब क्या था कोई एक इंच लम्बा कांटा सपाक बाहर निकल आया । कांटे को देखकर मुनिश्री बोले
'कांटो पग से काढ़ दें, 'चम्पक' चतुर चकोर । (पर) मन रो कांटो मायलो, कहो कुण काढै कोर ? || '
सभी ने सन्तों को — जो वहां उपस्थित थे - भाईजी महाराज की इस मार्मिक पंक्ति ने गंभीर बना दिया। हम सभी बाह्य परिवेश को छोड़ भीतर को झांकने
लगे ।
संस्मरण ३०५
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मजदूर पेट भर सकता है, धन नहीं जोड़ सकता
१० अप्रैल, १९६३ जोजावर (मारवाड़) के बाहर एक नयी बस्ती बसी है। उसमें सांसी लोग रहते हैं । वहां उन्हें कंजर कहते हैं । पक्के मकान । अच्छे कपड़े, थोड़ासा ठाठिया। भाईजी महाराझ ने पैर थामकर देखा और पूछा यह बस्ती किसकी है? इतने में एक लड़की आती दिखाई दी। हम दो मिनट रुके । मुनिश्रीने उससे पूछा--- बाई ! तुम कौन लोग हो? वह हिन्दी बोल सकती थी। उसने हाथ जोड़कर उत्तर दिया-महाराज ! हम तो कंजर लोग हैं।
उसकी सभ्यता, पहनाव, बोली-चाली और नम्रता कंजरों जैसी नहीं थी। उसने बताया-हम लोग भी अब शहरी सभ्यता सीख रहे हैं। जैसा देश वैसा वेश। हमारी जाति के कुछ नयी पीढ़ी के बच्चे पढ़ने भी लगे हैं। जब उससे कामकाज के विषय में पूछा तो वह जरा ठिठक गयी। उसने ससंकोच सीधा-सादा उत्तर दिया---गांव में इधर-उधर का काम ही करते हैं, महाराज!
हम आगे बढ़े। हमारे साथ कुछ ग्वालों के बच्चे हो गए थे । वे भेड़-बकरी चराने जा रहे थे। उन्होंने हमारी बातें सुनी थीं। वह लड़की काफी दूर निकल गयी। हम भी कंजर बस्ती पार कर गये । गड़रिये भी हमारे साथ-साथ थे। वे फूल-फूलकर गुब्बारा हुए जा रहे थे । कुछ कहना चाहते थे। पर कहने की हिम्मत नहीं हो रही थी। एक कहता था-'तू कह' और दूसरा कहता था 'इतनी बलत है तो कह दे तू ही।' भाईजी महाराज ने फरमाया- क्यों भाई ! क्या कहना चाहते हो ? लो मैं पूछता हूं, तुम दोनों ही बता दो। __उनमें से एक ने कहा-सन्तो! आप जिससे बात कर रहे थे—वह कंजरों की छोरी थी। ये कंजर बड़े छाकटे होते हैं। आपने जब उससे पूछा-तुम क्या काम करते हो, तो वह बोली क्यों नहीं ? बोलती कैसे महाराज ! पानी मरता है, पानी। ये लोग चोर हैं, चोरी करते हैं। बिना चोरी के कभी पैसे इकट्ठे होते हैं ? ये
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पक्के मकान, बढ़िया-बढ़िया कपड़े और रहीसी ठाठ-बाट, सभी मजदूरी से थोड़ा ही होता है ? मजदूर पेट तो भर सकता है, पर धन नहीं जोड़ सकता । धन का ढेर तो चोरी से ही होता है, सन्तों! ___अनपढ़ भेड़-बकरी चराने चाले, बच्चों की बात भाईजी महाराज के खटोखट जंच गयी। बात सोलह आना सही थी और थी बिना किसी नमक-मिरच के। सीधेसादे शब्दों में मन की खुली बात भाईजी महाराज को खूब पसन्द थी। आज दिन में बहुत बार मुनिश्री ने उसी बात को दुहराया-'माठा ! छोरा भारी ज्ञान की बात कही ।' प्रातःकालीन व्याख्यान में भाईजी महाराज ने वही प्रसंग छेड़ा और कहा
'एक जग्यां दरड़ों पड़े, (जद) ढिगलो दूजो ठोर। 'चम्पक' धन चोरी बिना, भेलो हवै न भोर ॥'
संस्मरण ३०७
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जानवर का क्या ?
१० अप्रैल, १९६३ को वैसाख कृष्णा दूसरी प्रतिपदा थी। हम जोजावर के गढ़ में ठहरे थे । जोजावर ठाकुर साहब बड़े साहसी और सेवा-परायण हैं। उन्होंने भाईजी महाराज से निवेदन किया--जरा आप पिछबाड़े पधारो तो आपको एक शेर का बच्चा दिखाऊं। भाईजी महाराज ने श्लेषालंकार में फरमाया-ठाकरां ! शेर का बच्चा क्या, हम तो शेर को ही देख रहे हैं।
सेवाभावी मुनिश्री जी के साथ जोजावर ठिकाने का घनिष्ठ सम्बन्ध है। ठाकरों का भक्ति-भाव और मुनिश्री का वात्सल्य दोनो ही बेजोड़ हैं। भाईजी महाराज ने हंसकर कहा-ठाकरां! खुल्ला शेर देखने की तो मनसा रहती है, पर आपके शेर का बच्चा तो पिंजड़े में होगा? बन्द शेर को क्या देखें ? ठाकुर बोले, हक्म ! वही दिखाऊंगा जो आपकी मनसा है, जरा पधारो तो सही। मुनिश्री बाड़े में पधारे । ठाकुर-सा दौड़कर आगे चले गए।
हमने देखा ठाकरों के साथ कुत्ते की तरह जंजीर से बंधा एक शेर का बच्चा आ रहा है । उन्होंने उसे संकेतों के आधार पर लिटाया, उठाया और मुंह में अंगुली दी। वह शेर होकर भी पालतू जानवर बन गया था। भाईजी महाराज बड़े निर्भीक और साहसी थे। उनका राजपूती मानस अनोखा था। मुनिश्री जरा आगे बढ़े और शेर को ज्यों ही हाथ से छुआ कि वह गुर्राया। ठाकर ने बताया-भाईजी महाराज! अभी तक इसके मुंह पर खून नहीं लगा है। यह नहीं जानता खून का स्वाद कैसा होता है ? मैं इसे पास में बिठाकर सोता हूं। यह पल्यंक के चारों ओर चक्कर लगाता घूमता रहता है।
भाईजी महाराज जरा गम्भीर हो गए–ठाकरां ! ओ आसंगो आछो कोनी?
३०८
आसीस
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ओ जिनावर है, आज तो मिनखां रोइ विश्वास कोनी रह्यो, इंजिनावर को के ?'
ठीक नहीं है ठाकरां!, बेजां ओ विश्वास । अन्त जिनावर जात रो, चम्पक के इकलास ॥ चम्पक के इकलास, क आछो नहि आसंगो। बिना अरथ कोई वगत, अचानक बधै अडंगो।। खतरनाक खुंखार नै, रखणो घणो नजीक । नीपीतां री प्रीत आ, नहीं ठाकरां! ठीक ॥
संस्मरण .. ३०९
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मुंह कैसे निकलेगा?
बीकानेर, हमालों की बारी के बाहर, गंगाशहर-मार्ग की बात है । नाहटों की बगीची के पास हम आचार्यप्रवर के आगमन की राह देख रहे थे। भाईजी महाराज का ध्यान एक ओर पड़े घडे (मंगल) पर गया। एक कुत्ता बार-बार उसमें मुंह डालने का यत्न कर रहा था। अपना-अपना अन्दाजा है। प्रायः देखा गया है भाईजी महाराज का अन्दाजा शतप्रतिशत सही उतरता है। कुत्ते को देख मुनिश्री ने फरमाया-लगता है, इस घड़े में कोई न कोई खाने की चीज है। कुत्ता खाने के लोभ में प्रयत्न तो कर रहा है-किसी तरह मुंह भीतर तक पहुंच जाए ।और जोर लगाने पर मुंह भीतर चला भी जाएगा पर यह अज्ञानी इतना नहीं समझता, फंसा हुआ मुंह फिर निकलेगा कैसे ?
हम बात कर ही रहे थे कि वही हुआ, जो भाईजी महाराज का अन्दाजा था। कुत्ते ने जोर लगाया और मुंह घड़े में फंस गया। अब तो लेने के देने पड़ गये । कुत्ता घबरा गया । वह अंधेरे में भटके प्राणी की भांति दिग्मूढ़ हो गया। उसे कुछ दीख नहीं रहा था । वह पड़ोस के ढिस्से की ओर ऊपर चढ़ने लगा । वह चढ़ता है फिर लुढ़कता है, नीचे तक आ गिरता है। फिर चढ़ता है फिर गिरता है।
इतने में आचार्यश्री पधार गए । भाईजी महाराज ने संकेत करते हुए फरमाया, "खमा ! अन्दाता ! दिखाओ ! अज्ञानी कुत्ते की दशा। ओ लोभ ही मरावै है इं मिनख नै।"
आचार्यप्रवर ने कदम रोके और पूछा-अब यह कैसे निकलेगा ? पास खड़े एक गृहस्थ ने कहा--निकल जाएगा यों ही।
भाईजी महाराज ने अर्ज की-नहीं-नहीं, अन्दाता ! यों निकलने वाला नहीं है। यह गलवा इस कदर इसके गले में फंसा है कि घड़ा फूट जाने के बाद भी यह गलावड़ा तो संभवतः इसके गले में कई दिन रहेगा।
३१० आसीस
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देखते-देखते वह कुत्ता एक बार फिर चढाई में काफी ऊपर तक चढ़ा और फिर लुढ़क गया । जब तक चैं चैं करता नीचे आया, आचार्यश्री के साथ रहने वाले कासी हणूताराम जाट ने घड़े पर एक लकड़ी मारी। फटाक घड़ा फूटा घड़ा तो फूट गया, पर उसका गला कुत्ते के गले में ही रह गया । कुत्ता मुक्त होते ही इस कदर भागा मानो पिंजरे से पंछी छूटा हो । हमने कई दिनों तक देखा वह कुत्ता उस गलवे को अपने गले में लिये फिरता रहा । जब भी वह हमें दिखता भाईजी महाराज फरमाते वह रहा 'केदार कंगण ।'
" लाग्यो 'चम्पक' ' लोभ मैं, कुक्कर बिना विचार । कई दिनों तक खटकसी, ओ कंगण केदार ।। "
संस्मरण ३११
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जेट की जेट कच्ची
मुनि वसन्तलालजी (पेटलावद) श्री भाईजी महाराज के पास १७ वर्षों से थे। वैसे उनका स्वभाव भोला था। सेवा का गुण और प्रकृति मिलनसार थी। वे बालोतरा मर्यादा महोत्सव शताब्दी पर मुनिश्री के पास आये और रोने लगे। भाईजी महाराज ने पूछा-क्या बात है ? वे कुछ बोल नहीं पाये। इतने में उनके संसार पक्षीय पिता मुनि जड़ावचन्द जी पहुंचे । वे कहने लगे-भाईजी महाराज ! आपकी बडी कृपा रही है। आप बड़े हैं । आपके हाथ लम्बे हैं । मेरा निभाव किसी तरह हो जाए, आपको कृपा करानी पड़ेगी। बुढ़ापे में सहयोग के बिना कैसे पार पड़े ?
__ भाईजी महाराज ने फरमाया-जड़ावजी ! निश्चित रहो। संघ में सब का निभाव होगा। तुम्हारे निभाव के लिए ही तो गुरुदेव ने दया कर तुम्हारा सिंघाड़ा किया है। जबकि हम सब जानते हैं, सिंघाड़े की योग्यता तुम्हारे और मेरे में कितनी है ? निभाव सन्तों के सहयोग से होगा । संत निभाओ । प्रकृति को बस में करो।
वे बोले-निभाव के लिए ही तो आपसे अर्ज करता हूं।।
भाईजी महाराज ने फरमाया-निभाव तो गुरु देव करवायेंगे। रास्ते-रास्ते चलो, निभाव सबका हो रहा है, होगा।
वे बोले-वसन्तीलाल जी स्वामी को मेरे साथ भेजने की कृपा कराओ । इनके बिना मेरा निभाव नहीं होता। गुरुदेव ने फरमाया है-पहले चम्पालाल जी स्वामी से पूछो। __भाईजी महाराज ने कहा-यह तो आचार्य देव की कृपा है । वसन्तलाल मेरा नहीं है, गुरुदेव का है। उन्होंने मुझे दिया, मेरे पास है । तुम्हें दिलाये, तुम्हारे साथ हो जाएगा। पर इससे पूछा है ? इसका क्या मन है ? ___ वसन्तलालजी बोले—मेरा मन जाने का है । आखिर मेरे पिता हैं। ये कहते हैं-साथ चलो, वरना मेरा निभाव नहीं होगा । इनका मन कमजोर हो गया है । ३१२ आसीस
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महाराज ! मेरी गलती माफ करें, मैंने आपसे पूछे बिना ही गुरुदेव को अर्ज कर दी
मुनिश्री ने फरमाया-पूछे बिना अर्ज तो कर दी, पर यह सलाह किसने दी तेरे को। देख, बुरा तो तेरे को भी लगेगा और इनको भी लगेगा, पर ये लक्षण बाप के नहीं पाप के हैं। कहीं तुझे न डुबो दे, ध्यान रखना।
अरे ! बाप रो मोह ओ, आछो नहिं है अन्त ।
'चम्पक' फोड़ा पड़ेला, सुणाले सन्त वसन्त ।। वे जड़ावचन्दजी के साथ गए और वही हुआ जो मुनिश्री की धारणा थी । बाप तो गया सो गया, बेटे को भी ले गया । जब ये समाचार सुने तो अफसोस के साथ भाईजी महाराज ने फरमाया
'मालव री काची रही, ठेट जेट की जेट । गा, गलावड़ो ले गयी, खेलो मटियामेट ।।
संस्मरण ३१६
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पेट्रोल भभक जाय तो
दिल्ली फंवारा रोड की परली नुक्कड़ पर एक पेट्रोल पम्प था । गाड़ी में तेल भर देने के बाद ड्राइवर एक कनस्तर में तेल भर रहा था। हमने देखा एक सज्जन वहीं पास खड़े सिगरेट पी रहे थे। भाईजी महाराज का ध्यान गया। मुनिश्री ने फरमाया, आदमी तो पढ़ा-लिखा सभ्य-सा लगता है पर संयम की कमी है। सिगरेट कहां पीना, कहां न पीना इसे इतना ही ध्यान नहीं है । पेट्रोल भभक जाए तो?
हम अभी कम्पनी बाग का फाटक पार ही नहीं कर पाये थे कि अचानक आग भभक गयी। वे सज्जन, जो सिगरेट पी रहे थे, चपेट में आ गये। उनके पांव में तथा हाथ में दो चार फफोले फूटे । आग शीघ्र ही शान्त हो गई। खास नुकसान नहीं हुआ।
भाईजी महाराज स्वयं पुनः वहां पधारे । उस भाई को दर्शन दिए और पूछाक्यों घबराहट तो नहीं है ? तुम्हारा भाग्य तेज था, देखो, थोड़े में ही सर गया। भाई ! शूली की सजा कांटे में ही टल गयी। अभी-अभी मेरे मन में आया ही थाआदमी तो सभ्य और सज्जन लगते हैं, पढ़े-लिखे होकर भी संयम की कमी है। सिगरेट कहां पीना, कहां न पीना, जानते हुए भी प्रमाद कर रहे हैं । भाई ! सिगरेट काम की नहीं है । देखो, अभी कितना अनर्थ हो जाता?
'छोटी-सी गलती बण, 'चम्पक' भारी भूल ।
सारहीन सिगरेट ने, मानो अनरथ मूल ॥' भाईजी महाराज के साफ हृदय की सच्ची बात चोट कर गयी। उस भाई के मन में ग्लानि हुई और उसने मुनिश्री के चरण छूकर सदा-सदा के लिए सिगरेट छोड़ दी।
भाईजी महाराज ने आशीर्वाद के रूप में मांगलिक फरमायी और उसे प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहने का उपदेश दिया।
३१४ आसीस
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नाभि हमारी जड़ है
Care कीबात है | दडीवे का एक ग्रामीण आया । कुंभार - प्रजापति । बूढ़ा आदमी । पर था रसीला रंगीला । पहुंचा हुआ। बात ही बात में उसने पूछा - सन्तो ! पेड़पौधे, घास-फूस सबके जड़ होती है। जड़ के बिना कोई नहीं पनपता । बताओ देखें, इस शरीर की जड़ क्या है, कहां है ?
बड़ा विचित्र प्रश्न था । मैं हैरान था । शरीर की जड़ कहां बताऊं ? पैर ? नहीं-नहीं - पेट ? बूढ़े ने उलझा दिया । वह गांव का अनपढ़ | ऊंची धोती, फटा अंगरखा, पुरानी-सी पगड़ी। मैंने सहज उत्तर दिया- बाबा, समझ में नहीं आया, भला शरीर के भी कोई जड़ होती है ? हां, शरीर स्वयं जड़ है, यह तो ठीक है ? मेरा उत्तर सुन भाईजी महाराज को झुंझलाहट आयी । उन्होंने फरमाया
गई अकल गावन्तरे, सागरिया ! कीं सोच, नाभि जड़ नर-देह री कहदै निःसंकोच ॥"
कहां उलझ गया ! क्या नाभि हमारे शरीर की जड़ नहीं है ? जब हमारे शरीर के अवयव भी नहीं फूटे थे, क्या हम नाभि से शक्ति नहीं पा रहे थे ? मां के पेट में नाल ही हमारे पोषक तत्त्वों का स्रोत था । उनका सहज सात्विक उत्तर मेरे लिए प्रकाश बन गया ।
संस्मरण
३१५
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भाजी महाराज सहज योगी थे । वे हर वस्तु को द्रष्टाभाव से देखा करते। कभी कभी सहजता में निकली बात सूत्र बन जाती है । उसका भाष्य फिर बौद्धिक लोग करते हैं । एक दिन भाईजी महाराज विराजे थे । मैं पास ही बैठा था । वहीं एक चींटियों का बिल था । राजस्थानी भाषा में उसे कीड़ी नगरा कहते हैं । नगर और नगरा में केवल एक आ की मात्रा का ही तो अन्तर हैं । था आखिर नगर का नगर । हमने देखा चींटियां भागी जा रही थीं । सैकड़ों की संख्या में अनवरत आवागमन चालू था | चींटियां मिट्टी की ढुलाई कर रही थीं। कुछ आ रही थीं, कुछ जा रही थीं । एक तांता - सा लगा हुआ था । इतने में मैंने देखा एक चींटी को दस-बारह चींटियां घसीटकर ला रही थीं। चारों ओर घेरा बना हुआ था । मैंने पूछा- भाईजी महाराज ! और-और चींटियां तो मिट्टी ढो रही हैं और ये बेचारी इस जिन्दा चींटी टांगें खींचे ला रही हैं। क्या बात है ?
,
६६
कामचोर
।
भाजी महाराज मुस्कराये और बोले—तुम नहीं समझे ? चींटियों के नगर में भी एक व्यवस्था होती है । सबको बराबर श्रम देना होता है । ये लोग संज्ञा प्रधान जीव हैं, इन्हें भी अपने कर्त्तव्यों और दायित्वों का बोध है । लगता है— इस चींटी ने श्रम से जी चुराकर काम करना बंद कर दिया होगा। इनके यहां कामचोर, आलसी को स्थान नहीं है । ये सब इसीलिए टांगें पकड़कर इसे बाहर छोड़ने आई हैं । इन्होंने इसे अपने संघ से बहिष्कृत कर दिया है । बहिष्कृत को — जो संघीय नियमों का उल्लंघन करता है- यों ही हटाया जाता है । जो बराबर सम-विभागीय श्रम नहीं करता, उसे मंडल में कौन रखेगा ? जो समूह में रहकर मिल-जुलकर काम नहीं करता, सुख-दुख में सहयोगी नहीं बनता, उसे कौन बरदास्त करेगा ?
'कड्यां भी कोनी करें, निःकरमा स्यूं नेह । पकड़ टांगड़ी फेंक दें, परली कानी पेह ॥"
३१६ आसीस
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तब का हमारा साथ है
सुजानगढ़ में भाईजी महाराज के तकलीफ हुई । डाक्टर व्यासजी का इलाज चला। डॉक्टरों को हार्ट पर दबाव का बहम था । इ० सी० जी० भी इसी बहम की पुष्टि करता था। हंस महल में विश्राम किया गया। सरदार शहर के लोग दर्शन करने आये। उन्होंने भाइजी महाराज को सरदार शहर पधारने की प्रार्थना की। विशेषकर वाणिदा-वास वालों का जोर इसलिए था क्योंकि उनके वहां एक संथारा चल रहा था। सूरजमल जी दुगड़ की बहू धर्म-परायण महिला थीं । उनका जीवन ही धर्म-ध्यान, सामायिक संवर साधु-सन्तों की सेवा और स्वाध्याय-चिंतन में सफल हुआ। उनकी वंदना करने की विधि भी निराली थी। लाखों-लाखों श्रावकों में उनकी वन्दना नहीं मिलती। वे जमे-जमाये मुंह लगे पाठ । कृतज्ञता और लोमहर्षक उल्लास । भाईजी महाराज उन्हें 'मद् का बड़ियाजी' कहकर जीकारा देते। उन्होंने आचार्यप्रवर के श्रीमुख से अनशन पचखा। उनकी आखिरी अभिलाषा थी-भाईजी महाराज के चरणों में मेरा अनशन पूरा हो (संथारा-सीझे) हनुमानमल जी दुगड़ आये, अर्ज की और भाईजी महाराज ने सरदारशहर पधारने की स्वीकृति दे दी। डॉक्टर अभी विश्राम देना चाहते थे । इच्छा कम-कम होते हुए भी डॉक्टर व्यासजी ने विहार की हां भरी। डॉक्टर व्यासजी भाईजी महाराज के परम भक्त हैं। समर्पित डॉक्टर मुनिश्री का वचन टाल नहीं सकते थे। अनचाहे हां भरनी पड़ी। सुजानगढ़ से विहार हुआ।
सरदारशहर की सहल-समिति ने दोनों ओर की (लाने और पहुंचाने की) सेवा की। इधर वे भर गरमी के दिन, उधर सहल-समिति के अमीर सदस्य । किसी तरह मेल नहीं था। ऐसे दिनों में कोई भी घर से बाहर निकलना नहीं चाहता, वहां वे अमीरजादे छोटे-छोटे गावड़ियों के झूपों में दिन काटते, भाईजी महाराज के लिए। सहल-समिति का नामकरण भी भाईजी महाराज का अपना किया हुआ था । यों तो
संस्मरण ३१७
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प्रतिदिन सैकड़ों लोग आते-जाते पर सहल-पमिति ने स्थायी डेरा जमाया। छोटे बड़े सभी समिति के सदस्य एक सरीखे, हंसते-खिलते, रलते-मिलते और रंगीले-रसीले थे । घंटों-घंटों भाईजी महाराज के पास बैठते । कभी ज्ञान-चर्चा करते तो कभी अनुभवों का आदान-प्रदान । जिज्ञासाएं चलती। कभी-कभी बीच मीठा-मीठा विनोद भी होता । एक-सी उम्र के संगी-साथी। भाईजी महाराज का मन बढ़ता गया। सहल-समिति थोड़े ही दिनों में भाईजी महाराज के मुंहलगी समिति बन गयी। बीच-बीच में कुछ लोग यह भी कहने लगे-भाईजी महाराज ने इस सबको इतार दिया है। कुल मिलाकर उन समिति के युवकों ने भाईजी महाराज का मन लगा दिया।
भंवरलाल जी बरडिया जरा कोमल प्रकृति के हैं। कष्ट में कमजोर और जल्दी ही घबरा जाने वाले । साथ-साथ शरीर भी श्रम को कम बर्दास्त करता है। आज वे विहार में पैदल साथ हो गये । रारता ज्यादा लंबा तो नहीं था, पर गरमी से वे आते (आतंकित) हो गये। उनका लाल सुरख मुंह देख, भाईजी महाराज ने चाल धीमी की । बार-बार पूछते चले–'क्यूं भंवरू । के सल्ला? और धीरे चालू ?'
मैंने पूछा-'महाराज । आपके भंवरू से इतना क्या है ?'
भाईजी महाराज ने फरमाया-रिश्ता तो कुछ नहीं है पर भंवरू के पिता जयचन्दलालजी मेरे साथी हैं। ओलंभे के भी और शाबासी के भी।
मालवा यात्रा में इन्दौर-उज्जैन के बीच एक 'तिराणा' नाम का गांव आया। उन दिनों वहां आठ घर थे। सात गुसाइयों के और एक राजपूतों का। आचार्य कालूगणी महाराज राजपूतों की कोटड़ी में विराजे । हम कुछ सन्तों ने गुसाइयों की तिबारी में जगह धारी । यात्री लोग अगले गांव चले गये। सेठ गणेशदासजी गधैया यात्रा में साथ थे। जयचन्दलालजी (वरडिया) ने गधयाजी से पूछा-आप कहे तो आज रात को यहीं सेवा करने की मनस्या है। वे रह गये । हमने दिन में ही सलाहसूत कर ली थी-यदि आज रहो तो रात में रागे (देशियां) चितारेंगे । प्रतिक्रमण के बाद हमारी गोष्ठी जमी । हम सोच रहे थे आज एकान्त है। गुरुदेव से बहुत दूर हैं। खुलकर गायेंगे। निःसंकोच भाव से हम गाने में तल्लीन हो गये। वह ठंडी रात । वह उमर, गले में जोर, मन में जोश, छोटा गांव, भिन्न-भिन्न रागरागनियों का प्रत्यावर्तन, प्रहर रात गये तक हमारी गोष्ठी चली। गाने वालों में चार-पांच मुनि थे और श्रावक जयचन्दलाल बरडिया थे । गांव के दस-पांच लोग आ गये। हमारा मजमा खूब जमा । उस रात हमने-'चन्द-चरित्र' तथा राजस्थानी लोकगीतों की धुनें दुहराई।। ____ प्रातःकाल विहार कर 'सामेर' पहुंचे । गुरुदेव एक बड़े हाल में विराजे । उसी में लकड़ी की पैडियां चढ़कर ऊपर कमरे में हम संत बैठे थे। तुलसी मुनि ने जयचन्दलाल जी को सेवा करने को कहा । वे वहां बैठे थे। अकस्मात् गुरुदेव ने
३१८ आसीस
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पूछा-रात को कौन-कौन सन्त गा रहे थे । बुलाओ उन्हें । पूछने का ढंग जरा कड़ा था। तपस्वी सुखलालजी स्वामी पता लगाने आये। हम संत सहम गये। मुनि सुखलालजी ने संतों के साथ-साथ जयचन्दलाल जी से भी कहा-जयचन्द ! इय कियां सुनों-सुनों बैठ्यों है ? गुरुदेव याद फरमावै है नी ? हम सब गुरुदेव के श्रीचरणे में उपस्थित हुए । आचार्यदेव ने जरा आंख तेज कर फरमाया-रात को वह कौन-कौन थे? ___ अब बोले कौन ? हम सबके कलेजे हाथ में आ रहे थे । गधया गणेशदासजी ने बात साहरी, 'गुरुदेव ! आप कृपा कराओ। आप बिना टांबरां री गलत्यां कुण निकाले ।"
हम सबको तो पसीना छूट रहा था। कालूगणीराज जब कड़ाई करवाते उनका वह सिंह रूप देखते ही थर कांपने लगते । जयचन्दलाल जी ने हिम्मत कर कहा- चम्पालाल जी स्वामी थे, अब मैं कहां छुपता ? मैंने साहम बटोरा और कहा- हम थे गुरुदेव ! अमुक-अमुक-अमुक ।
कृपालु कालूगणीजी जरा मुस्कराये और फरमाया-ऐसे गाया करते हैं ?
बस, अब क्या था । हम सबके जी के जी आ गया । पुनः अमृत झरती गुरुदेव की आंखों ने हमें अभय दे दिया। सबके चेहरों पर खुशहाली दौड़ आयी। पासा पलट गया । वातावरण में नया रंग आया। अब लगे गुरुदेव एक-एक कर रात को गायी गयी रागों को पूछने । कई रागों में अन्तर था, वह फर्क निकाला। कहीं तोड़ ठीक नहीं थे, उन्हें सुधारने को फरमाया । सब गायकों में मेरी देशी पास रही । आचार्य देव ने मुझसे-जल्लो, करवो, करेलो, कुरज्यां और कीया सुनी। ये रागें एक तो कड़ी बहुत हैं, दूसरे गुरुदेव के सामने अच्छे-अच्छे गायक भी घबरा जाते हैं, उनका अतिशय ही ऐसा होता है। जयचन्दलालजी ने जैसे उपालम्भ में सहयोग दिया, वैसे ही शाबाशी में भी साथ निभाया। जब-जब गाते-गाते मेरा गला भर जाता, या मैं आगे की पंक्ति भूल जाता तो जयचंदलालजी ने उस जोड़-तोड़ में टेरिये की भूमिका निभाई।
श्री भाईजी महाराज ने अपना संस्मरण समेटते हुए कहा-भाई तब से जयचन्दलालजी का हमारा साथ है । भला, भंवरू की रखू इसमें क्या बड़ी बात है ?
ये फूल से टाबर, इस गरमी में सेवा जो कर रहे हैं, कौन निकले इस लाय में ? सोने का टक्का देने पर भी ये आने वाले नहीं हैं। इन सहल-समिति के युवकों की लगन और भक्ति-भाव है, अतः मेरे लिए इन्होंने इतना कष्ट उठाया है । मैं तो उस सिद्धान्त का आदमी हूं।
'मतलब स्यूं 'चम्पक' मिल ज्याणो, बता ! बड़ो के बात? एकर साथ निभावै बी रो, सदा निभाणो साथ।'
संस्मरण ३१६
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इतने में ही टल गया
अणवत-विहार (दिल्ली) के फाटक पर भाईजी महाराज खड़े मेरे आने का इन्तजार कर रहे थे। पास में कुछ लोग थे। मन्नालालजी बरडिया (सरदार-शहर) भी वहीं थे । एक अवस्था प्राप्त सज्जन स्कूटर पर निकले। पीछे बैठी थी उनकी श्रीमतीजी। स्कूटर जरूरत से अधिक तेज था। उन्हें देख, भाईजी महाराज ने कहा-'मिन्नू ! देख, बुढ़ापो भड़काव है। औ कठेई भुवाली खायला भलो।'
धड़ाम आवाज आई। देखा अगली मोड़ पर मुड़ते हुए वृद्ध दम्पति का स्कूटर फिसल गया । श्रीमतीजी दो-तीन गुलेटी खा, एक ओर जा गिरौं । स्कूटर एक ओर था और श्रीमानजी एक ओर । लोग भाग कर गये। उन्हें उठाया। बहुत थोड़े में सर गया था। - हमने बहुत बार देखा ऐसे अवसर पर भाईजी महाराज चकते नहीं थे। मुनिश्री घटना स्थल पर पधारे। उनसे पूछा-चोट ज्यादा तो नहीं लगी? भाई साहब ! स्कूटर चलाने में भी संयम की अपेक्षा है। दो मिनट के लोभ का परिणाम जीवन को खतरा होता है । पर, किसे कहें ? किसी को भी फुरसत नहीं है। समय की जितनी तंगी आज के लोगों को है, शायद पहले वालों को नहीं थी।
'संयम सुध-बुध विसर कर, भाजड़-भाजी जाय। 'चम्पक' चेतो बापरे, (जद) फल प्रमाद रा पाय ॥'
और वे सज्जन हाथ जोड़े कह रहे थे-'सत्य वचन' सन्तों के दर्शन भले हए, इतने में ही टल गया।
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प्रेम की एक कड़ी
पराये का अनादर सह लेना आसान है, पर अपने वाले का जरा-सा भी अनुचित व्यवहार पहाड़ बन जाता है । २५वीं भगवान महावीर-निर्वाण-शताब्दी का अवसर था। आचार्यप्रवर दिल्ली पधारे । व्यवस्था समिति के सदस्य व्यवस्था में जुटे । एक दिन अर्थ-संग्रह करते कुछ वरिष्ठ सदस्य एक दुकान पर पहुंचे। वह भाई पहले ही उफणा हुआ था। समाज के सदस्यों को देख भड़क उठा। आदर-सत्कार तो गया कहीं । वह उलटा-पुलटा बोल पड़ा। चले जाओ यहां से, भिखारी। जो शब्द नहीं बोलने चाहिए थे, बोल गया । बोला ही नहीं उन्हें दुकान से उतार दिया।
खिन्न होकर आये सदस्यों ने जब भाईजी महाराज के दर्शन किए तो उन्हें उदास-उदास देख मुनिश्री ने पूछा-आज ऐसे कैसे?
एक भाई ने बीती बात बताते हुए कहा-मत पूछो मुनिश्री ! ऐसा अपमान तो शायद एक विरोधी-शत्रु भी अपने घर आए का न करे, वैसा किया आपके भगत ने। उन्होंने सारी घटना बतायी। सुनकर भाईजी महाराज के मन पर प्रतिक्रिया हुई । सामने वाला आदमी समझदार था। कट्टर तेरापंथी, आज का नहीं पीढ़ियों का । वह भी मुखिया परिवार का । रोज आने वाला, लगनशील । इतना ही नहीं, कहना तो यों चाहिए, खुद व्यवस्था करने वाला। फिर भी यह सब क्यों हुआ? बात जची नहीं।
वह भाई आया । मुनिश्री को तो पूछना ही पूछना था। वहां तो नगद व्यापार था, उधार का क्या काम ? बेचारा बोले भी तो क्या ?
भाईजी महाराज ने फरमाया-भोले! समाज के भाई का तिरस्कार ? अनादर ? अपशब्द ? कल कौन आएगा तेरे घर ? समाज के बिना सामाजिक प्राणी का काम चलता है ? भूल का प्रायश्चित्त केवल अनुताप से नहीं होता। व्यवहार परिष्कार मांगता है। तुमने यह गलती की तो कैसे की? सुन !
संस्मरण ३२१
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जो देणे जोगो हवै, उणनै ही बतलावै । 'चम्पक' मांगण नै भलां ! कुण किणरै घर जावै ॥'
समय की चोट लगी। सुनते ही उसकी आंखें नम हो गयीं। वह नीचे गया। कार्यालय में जा माफी के साथ पुनः तशरीफ लाने का आमंत्रण दिया । लोग जाना नहीं चाहते थे। भाईजी महाराज ने द्वेष-रोस को प्रेम में बदलने का सुझाव दिया। लोग गए। उसने जो आतिथ्य किया, जाने वाले कल की बात भूल गए। चेक-बुक सामने धर दिया-जो मरजी हो लिख लो। जो प्रेम उभरा। बात लेने-देने की नहीं होती । प्रेम के सामने लेन-देन छोटा पड़ता है। पुनः भाई-भाई जुड़ गए। तोड़ना आसान है पर जोड़ने में तप चाहिए, प्रभाव चाहिए । श्री भाईजी महाराज को टूटते हुए दिलों को जोड़ना आता था। वे समाज में प्रेम की एक सशक्त कड़ी थे।
३२२ आसीस
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७०
मर्ख से मौन
आचार्यप्रवर का वि० सं० २०३१ में बहुत लम्बा दिल्ली-प्रवास हुआ। एक दिन अणुव्रत-विहार की दूसरी मंजिल पर मैं एक भाई से बातें कर रहा था। वह नामधारी तेरापंथी हमारे संघ और संघपति के विपरीत कुछ अंट-संट शिकायतें लाया था।
___ मैं उसे वस्तुस्थिति समझा रहा था। हमारी चर्चा लंबी होती गयी । हम दोनों डटकर तर्के प्रस्तुत करते रहे। चलते-चलते वह गंदी, भद्दी और अश्लील बातों पर उतर आया। मैं उसे किसी भी एक बात को सप्रमाण सिद्ध करने को कह रहा था। मैं भी अड़ गया, वह भी अड़ गया। वह कह रहा था-आप मुझे घुमाफिरा कर भूल-भुलैया में डालना चाहते हैं और मैं कह रहा था—तुम्हारी इन गंवारू और बाजारू बातों का जनता पर कोई असर होने वाला नहीं है । यदि इनमें से एक भी सत्य है तो प्रमाणित करो।
वह उत्तेजित होकर किसी एक बात को सिद्ध करने के बदले दसों और-और अंट-संट बातें उछालने लगा।
यह सब श्रीभाईजी महाराज को कब पसन्द पड़ने वाला था। उन्होंने मुझे एक बार खंखारकर संकेत किया, पर मैं नहीं समझा । समझा तो क्या नहीं, पर यों ही कहना चाहिए ध्यान नहीं दिया। हमारी चर्चा बादा-बादी चलती रही। दूसरी बार फिर पास पड़े लकड़ी के तख्ते को हिलाने के बहाने संकेत आया। फिर भी मैं नहीं उठा।
इतने में वह हिसार चातुर्मास का हवाला देते हुए एक अधमतम घटना कह गया, जो सर्वथा अश्राव्य थी। श्रीभाईजी महाराज का जी तिलमिला उठा। उन्होंने मुझे टोकते हुए फरमाया-सागरिया ।
संस्मरण ३२३
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कालै' स्यं कयानै करै, मरख ! माथाकूट
कुओ कबूतर नै दिसै, झूठ नै सो झूठ' वह बेचारा देखता ही रह गया । हमारे दोनों के होंठ चिपक गये। वह बिना कुछ आगे बोले सपाक चलता बना। मैं सोच रहा था-आज भड़ाके उड़ेंगे। पर मुनिश्री ने मुझे एक बात के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं कहा । केवल एक प्रश्न पूछा-सागर ! मूरख से काम पड़े तो क्या करना चाहिए? मैंने नीची नजर टिकाये कहा-- मौन । श्रीभाईजी महाराज प्रसन्नचित्त से जरा मुस्कराए और मैं निश्चिन्त भाव से अपने काम में लग गया।
१. बे-समझ, कलुषित, मन के मैले या कुमाणस को राजस्थानी भाषा में 'काला'
कहते हैं।
३२४ आसीस
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बोलो मत, काम बढ़ेगा
श्री डूंगरगढ़ मर्यादा-महोत्सव पर श्री भाईजी महाराज दीपचंदजी सेठिया के मकान में विराज रहे थे। धनराजजी पुगलिया आए। उन्होंने बीडीओ कैसेट दिखाने की योजना बनायी। आचार्यप्रवर के कुछ कार्यक्रम तथा लन्दन की कुछ स्मृतियां-जहां वे रहते हैं-दिखाना चाहते थे। कुछ भाई-बहनों के साथ हम भी वहां थे। हमारा वैसे बैठने का स्थान भी वही हाल था। धनराजजी कैसेट-चित्र दर्शन के साथ-साथ लन्दन के स्थान विशेष के परिचय बता रहे थे। बीच में कुछ राजस्थानी वैवाहिक रीति-रिवाज के चित्र भी आए।
किसी कारणवश कोई भाई बाहर गया। रास्ता खुला कि धक्का मारकर चन्दनमल चंडालिया (सरदारशहर) भीतर घुस आया। बिना इजाजत भीतर आना सबको अखरा । वह पूछकर भी आ सकता था। वह निरवद्य आग्रही संघ का सदस्य है। आग्रही भी नाम के अनुरूप ही है । वह आया, इसमें न हमने एतराज किया, न किसी भाई ने। थोड़ी देर बाद वह अंट-संट बोलने लगा-'क्या यही है साधु की संयम-साधना? कल्पता है सिनेमा देखना? चौमासिक प्रायश्चित्त आता है। तेरापंथ और आचार्य भिक्षु के नाम पर बट्टा लगा दिया आप लोगों ने । ये श्रावक साधुओं को डुबोने वाले हैं ! महापाप ! महापाप ।'
कुछ लोग उबल पड़े। वह चिल्लाकर कहे जा रहा था- 'अभी कालूगणी होते तो?'
दुतरफी उत्तेजना बढ़ती देख भाईजी महाराज ने फरमाया-चन" ! उत्तेजना तो पाप है ही । अब ज्यादा बोलने से काम बढ़ेगा। जात जताने से फायदा ? (उसकी जात चंडालिया है। चंडाल-क्रोध) मसाला प्रचार करने को तेरे हाथ लग गया है, अब क्यों बोलता है ?
संस्मरण ३२५
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'चम्पक' काम बढ़ेला चनणं, जग मैं जता न जात ।
लवै अबै क्यूं लागगी, खरची थारै हाथ ॥' उसकी बोलती बंद हो गयी। हम सब हंस पड़े।
३२६ आसीस
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सामाजिक एकता का रूप
सालासर — जयपुर मूल सड़क से तीन किलोमीटर भीतर जूटवाड़ा कोल्ड स्टोरेज है । सुजानगढ़ का सेठिया परिवार, सर्व-सम्पन्नता के साथ शालीन, सामाजिक भावनाओं से ओत-प्रोत, आस्थाशील और धर्मानुरागी रहा है । सेठिया रूपचंदजी तो अपनी कोटि के एक ही श्रावक थे । उनका त्याग, वैराग्य, विनय, विवेक और व्यवहार जीवित आदर्श था । उनके परिवार में धार्मिक लगन कोई आश्चर्य जैसा नहीं है । विमलजी की मां (धर्मपत्नी तनसुखलालजी सेठिया), कोठारी जुगराजजी चूरू तथा श्री सायर कोठारी का अत्यन्त आग्रह था । आचार्यप्रवर का एक दिवसीय प्रवास उनके यहां हो । श्री भाईजी महाराज उनकी ओर से वकालत कर रहे थे । भला, जिस काम को भाईजी महाराज हाथ में ले लें उसे तो पूरा होना ही था ।
ससंघ आचार्यप्रवर झूठवाड़ा पधारे। संघ के आगमन पर हर्ष-विभोर सेठिया परिवार फूला नहीं समा रहा था । आचार्यश्री के दर्शनार्थ आए बिरादरी के भाईयों की आव-भगत चित चाव से हुई । भोजन-व्यवस्था के साथ-साथ तीनों समय नाश्ता - चाय और यथेच्छ ठंडा पेय भी दिया ।
तो झूठबाड़ा जयपुर का ही एक उपनगर है । पर जहां हम कोल्ड स्टोरेज में ठहरे हैं यह बस्ती के अंतिम छोर पर है । स्थान बहुत सुरम्य है । यहां से आगे केवल खुला मैदान है । कल फिर हमें सालासर सड़क चौराहे तक पुनः जाना पड़ेगा । सड़क बहुत खराब है । कहना तो यों चाहिए सड़क केवल नाम मात्र के लिए है । केवल कंकरीट, वह भी ऊबड़-खाबड़ ।
आने वाले जयपुर के नागरिकों तथा आगुन्तक यात्रियों के मनों में आज की आवभगत का बड़ा असर रहा। अब तक जो संघीय भाईचारे का अभाव अखरता रहा । दर्शनार्थी भाई-बहनों ने बार-बार यही चर्चा चलायी, भातृत्व भाव का
संस्मरण ३२७
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विकास अपेक्षित है। आज हमें एक दिशा-दर्शन मिला है। मुनिश्री ।
फरमाया
'भाई भाई रै घरै, आवै मोटे भाग । 'चम्पक' भगती-भाव स्यूं, बधै धर्म-अनुराग॥'
३२८ आसीस
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जैन एकता का एक नमूना
मोती डूंगरी पर शौचादि कार्य से निवृत्त हो हम पुन: राजस्थान होटल पहुंचे। बिहार की तैयारियां हैं। आज नगर-प्रवेश है। शोभायात्रा और नागरिक अभिनन्दन में लोग बड़े चाव से लगे हुए हैं। स्थान-स्थान पर तोरण-द्वार सजे हैं। व्यक्तिगत द्वारों पर व्यक्तिशः अभिनन्दन पट्ट लगे हैं। संस्थागत तोरणों पर संस्थाओं के पट्ट अकित हैं। अनेक स्थानों पर प्रतिष्ठानों के द्वारा अभिनन्दन लिखित पट्ट हैं।
शोभा-यात्रा में भजन मंडलियां बड़ी तन्मयता से स्वागत गीत गा रही हैं। छात्र-छात्राएं, कन्या-मंडल, किशोर-मंडल, महिला-मंडल और युवक-मंडल अपनेअपने गणवेश में पंक्तिबद्ध चल रहे हैं।
त्रिपोलिया होकर ज्यों ही हम बड़ी चोपड़ पर पहुंचे। देखा, जोहरी बाजार का भव्य दृश्य सामने था। ऐसा लगता था जन-जनार्दन उमड़ पड़ा है। भीड़ में केवल आदमी ही आदमी नजर आ रहे थे। जौहरी बाजार के छज्जे, छत्तों और गोखे. झरोखे दर्शनोत्सुक महिलाएं और बच्चों से झुके जा रहे हैं। जीया बैंड अपनी छत पर पूरी मंडली के साथ स्वागत-धुन प्रस्तुत कर रहा है । पूरा बाजार जुलूसमय बन गया है। हजारों-हजारों जैन बन्धु आज साम्प्रदायिक भेदभाव भूलकर एक जैनाचार्य का अभिनन्दन करने एकरस हो रहे हैं।
बापू-बाजार तो हद ले गया। वे लाल-सुरख स्वागत पट्ट (बैनर्स) बाजार भर में लहरा रहे हैं। सभी का मिला-जुला उत्साह जयपुर के पूरे वातावरण को प्रभावित कर रहा है। शोभा-यात्रा रामलीला मैदान के पंडाल में जनसभा बन गयी। मंच पर आचार्यप्रवर आसीन हुए। एक ओर श्रमण-श्रमणी परिवार विराजमान है। जननेताओं और राजनेताओं के साथ-साथ जयपुर नगर की ओर से भूतपूर्व नरेश करनल सवाई भवानीसिंह स्वयं उपस्थित हैं ।
संस्मरण ३२६
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श्री भाईजी महाराज को इन सामूहिक कार्यक्रमों में बड़ा रस है । वे जैन समाज को यों एक मंच पर खड़ा देख फूले नहीं समाए। उन्होंने एक पद्य के माध्यम से अपने समर्थन को व्यक्त किया
'चम्पक' जैन समाज को, गंजे गौरव गान। पड्यो सामने प्रेम रो, फल चौड़े चौगान ॥'
३३० आसीस
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क्या दुःखता है ?
आचार्यप्रवर का प्रवास सौराष्ट्र-गलीचे वालों की हवेली (मोती सिंह भोमिये का रास्ता) में हुआ है । गोलछा परिवार जयपुर का मान्य घराना है। हमारे संघ के साथ इस परिवार का अच्छा-खासा सम्बन्ध है। अवश्य ये तेरापंथी नहीं हैं, पर बहनों, बेटियों और सगे-संबंधियों के सम्पर्क ने एक-दूसरे को इतना नजदीक ला दिया है, पता नहीं चलता। कुछ संत हवेली के ऊपरी कक्षों में बैठे हैं। हम दरवाजे के दाहिने हाल में और आचार्यप्रवर बांये हाथ के कमरों में विराजते हैं । पंडाल दरवाजे की ऊपर वाली छत पर है। आचार्यप्रवर का रात्रिकालीन विश्राम भी पंडाल में ऊपर ही रहा । मौसम एकदम बदल गया है, यों तो अभी चैत्र का महीना है पर गरमी जेठ जैसी है।
कल का अवशिष्ट स्वागत कार्यक्रम आज पुनः वहीं रामलीला मैदान में रख दिया है। भाईजी महाराज वहां नहीं पधार सके । मोतीडूंगरी तक घूमकर आने के बाद थकान आ गयी है। शरीर में दर्द काफी है । कुछ देर उदास-से किसी चिन्तन की गहराई में विराजे रहे। सोने की इच्छा हुई। मुझे (श्रमण सागर को) आवाज दी। मैं तकिया लेकर गया। बिछौना लगाकर मैंने सहजभाव से पूछा-क्यों भाईजी महाराज ! क्या दुःखता है ? ___ मुझे क्या पता दुःखन कहां से कहां पहुंच जायेगी। श्री भाईजी महाराज ने फरमाया-'दुःखता क्या है ? क्या बताऊं? यह दिल दुःखता है । यह दिन दुःखता है। अफसोस है, सैकड़ों मील साथ-साथ चलकर आया और पंडाल तक भी नहीं जा सका। बस, यही कमजोरी दुःखती है।'
'ताकत राखी काल तक, थांभण नभ भुज-थंभ। पडूं पडू चम्पक पड्यो (ओ) दुखे देहरो दंभ।
संस्मरण ३३१
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पक्षीय उफाण
महावीर जयन्ती समारोह में सम्मिलित होने वाले यात्रियों का आगमन प्रारम्भ हो गया है । निवास आदि के लिए स्थान जयपुर शहर देखते हुए तो ठीक ही है पर मच्छर और गंदगी से भी अधिक परेशानी है संकीर्णता की। अभी से यात्रीगण उकता गये हैं। यहां की आवास व्यवस्था समिति ने प्रति व्यक्ति एक रुपया रोज किराया लगाया है। एक-एक कमरे में पचास-पचास आदमी ठहरे हैं । आखिर शहर है । स्थान की दिक्कतें तो हैं ही। शहरों में स्थान खाली मिलते कहां है ?
आने वाला हर यात्री भाईजी महाराज के पास पहुंचता है। सुख-दुःख की शिकायत का महकमा भी तो यही है । हम सुन रहे हैं, श्री भाईजी महाराज यात्रियों को आश्वासन देते हैं । शहरी कठिनाइयां बताते हैं । संयम से काम लेने को कहते हैं, और समझाते हैं-भाई ! हमारा तो मार्ग ही संकडाई का है ।
आज कुछ लोग सबरे - सबरे आये और कहने लगे - गरीबनवाज ! आपके राज में जयपुर वालों ने लूट मचा रखी है । व्यवस्था के नाम पर व्यापार खोल लिया है । वे कमरे, जहां हमें उतारा गया है, तीन-तीन रुपया रोज पर किराये लिए गये हैं और हमसे पचास-पचास, चालीस-चालीस और किसी-किसी से तीसतीस लिये जा रहे हैं । यह तो सरासर अन्याय है । यदि इतनी ही क्षमता नहीं थी तो ये क्यों लाये आचार्य श्री को ? भाईजी महाराज ! ऊपर से ये लोग हमें शहरी धौंस और दिखाते हैं और कहते हैं— क्यों आये आप ? किसने पीले चावल दिये थे । दुःख भरे शब्दों में, जो आया, वे बोलते गये ।
श्री भाईजी महाराज ने फरमाया- भाई ! यात्रा की खिन्नता के बाद यहां आते ही परेशानी हो तो मन में आये बिना नहीं रहती । वे भी तुम्हारे ही भाई हैं । व्यवस्था करने वाले विचार कर रहे हैं। जरा तुम भी धीरज से काम लो । धीरेधीरे जमते - जमते सब व्यवस्थाएं जमा करती हैं ।
३३२ आसीस
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एक व्यवस्था कार्यकर्ता से बात कर मुनिश्री ने उन्हें धीरज तथा सहानुभूति से काम लेने को कहा। उसने उसे उलटा माना । वे महाशय उबल पड़े। बोलते-बोलते यहां तक कह गये---आप लोगों का हस्तक्षेप ही तो सारा काम बिगाड़ता है। यात्रियों को आप सिर चढ़ा रहे हो । मैं जानता हूं, आप अमुक-अमुक व्यक्तियों का पक्ष ले रहे हैं। वे हमारी सारी व्यवस्था बिगाड़ने पर तुले हुए हैं।
यात्रीगण कह रहे थे-भाईजी महाराज ! आप पधारकर मुलायजा फरमाओ। ८-१० फीट के कमरे में हम ५० आदमियों का सामान भी नहीं रखा जाता। हम सारे बाहर पड़े हैं। नापसन्द स्थान, इतना भारी किराया और ऊपर से इतनी हुकूमत । संतोष कर तो लें, पर हो कैसे ? कहीं हद भी तो होती है। ये जब आपसे यों बोलते हैं, हमारी तो चिकारी ही क्या है ? मेवाड़ी भाई की आंखें गीली हो गयीं। ___ भाईजी महाराज के मन पर थोड़ा-सा असर आया । असर आना सहज था । वह कार्यकर्ता अविवेक से बोले ही जा रहा था। मुनिश्री ने कहा-मैं तो तुम्हारी बदनामी न हो, इसलिए कहता हूं, तुम भले मुझे सुराणाजी का मानो या दूगड़जी का, मैं तो सबका हूं। ये आने वाले यात्री गांव-गांव में तुम्हारी व्यवस्था भांडेंगे । तुम अपनी धारणा बदल दो। मैं किसी पक्ष से नहीं, हित की दृष्टि से तुम्हें कह रहा हूं। यदि तुम्हारी यही इच्छा है कि मैं न बोलूं तो कोई बात नहीं, आइन्दा नहीं कहूंगा, पर आने वाले लोग बात बताते कैसे रुकेगे । ये अपना दुःख-दर्द सन्तों से नहीं कहेंगे तो और कहां कहेंगे ? सुनने वाले तो तुम्हारे जैसे होंगे? पर एक बात कह दूंतुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ेगा इस पाररपरिक मनमुटाव में, बेचारे यात्रियों का खवं गाल है
'पख रो 'चंपक' पादरो, उफणे इयां उफांण ।
(थां) मोटोडां रे झोड़ में,(आं) नान्हा रो नुकसाण ॥ २२ अप्रैल १९७५ जयपुर
संस्मरण ३३३
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कहां वे ? कहां हम?
जयपुर नगर में आज महावीर जयन्ती की धूम-धाम है। प्रभात जागरिका गलीगली में घूम-घूमकर जयन्ती का उद्घोष कर रही है। भगवान महावीर का सन्देश स्थान-स्थान पर दुहराया जा रहा है । सामूहिक कार्यक्रम रामलीला मैदान में है।
जैन समाज ने जयन्ती-यात्रा का आयोजन किया है । विविध वाद्यों, साजोंहायी-घोड़ों-रथों के साथ-साथ नानां झाकियां सजाई गयी हैं जिनमें भगवान महावीर के जीवन-वृत्त प्रदर्शित किये हैं । इस मील भर लम्बे भव्य जयन्ती-जुलूस में हजारों-हजारों जैन श्रावक सम्मिलित हुए हैं । सभी साम्प्रदायिक मतभेदों को भुलाकर लोग कंधे से कंधा मिलाकर एक जुट हो गये हैं। स्थान-स्थान पर स्वागत के विभिन्न आयोजन हैं। ठंडे पेय पदार्थों से आवभगत कर भाई-चारे को मूर्तरूप दिया जा रहा है। आचार्यश्री ठीक समय पर पंडाल में पधारे । अभी जयन्ती-जुलूस जवेरी बाजार में है। पूरे बापू बाजार को भगवान महावीर के संदेश-पट्टों से छा दिया है। घर-घर दुकान-दुकान पर पंचरंगे जैन-ध्वज लहरा रहे हैं।
कार्यक्रम पंडाल में प्रारम्भ हो गया है। अभी शोभा-यात्रा का पिछला छोर जवेरी बाजार में है । पंडाल खचा-खच भर गया है। बैठने को स्थान नहीं है। चारों ओर की कनातें खोल दी गईं। फिर भी जनता धूप में खड़ी है । श्रमण भगवान महावीर को सभीभावभीनी श्रद्धा अर्पित करने के लिए उत्सुक हैं। राजस्थान प्रांतीय महावीर २५वीं निर्वाण शताब्दी समिति की ओर से आज का आयोजन है। संयोजन संपतजी गधैया ने किया। कार्यक्रम खूब लम्बा हो गया है। १२ बजने को हैं । जब हम पंडाल से बाहर आये तब जमीन पैरों को सेकने लगी। सन्त धूप से बच-बचकर चल रहे थे और भाईजी महाराज ने फरमाया-कहां वे? कहां हम?
३३४ आसीस
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तपी तपस्या तीव्रतम, महामना महावीर । तपग्यो 'चम्पक' तावड़ो, ओ मन बण्यों अधीर।
संस्मरण ३३५
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पोथी क्या पढ़
१०-११ बज गये हैं। कमरा नं० ११० हमें साफ सफाई के बाद मिल गया है। धर्मचन्द सुराणा (चूरू) सुबह से हमारे यहां बैठे हैं । वे पूरी व्यवस्थाएं बिठाकर ही जाना चाहते हैं । भाईजी महाराज का बिस्तर लगा दिया है। डॉक्टरों ने पुनः शारीरिक जांच की। रक्तचाप, नाड़ी का दबाव, गरमी और फेफड़ों का परीक्षण किया। शल्यक्रिया पसलियों पर पसवाड़े में होनी है, अतः सीने और बगल के बाल निकाल कर सफाई करने को कहा है।
धर्मचन्द सुराणा की उपस्थिति में हमने सारा काम किया । अब मुझे (श्रमण) आहार करने मार्बल-भवन जाना है। भाईजी महाराज अकेले ही यहां बिराजेंगे। मैंने एक पुस्तक और चश्मा निवेदन किया और कहा-आप पुस्तक पढ़ें इतने में मैं वहां जाकर आ रहा हूं। मैं चला गया। लौटकर आया तो देखा, भाईजी महाराज गुमसुम किसी चिन्तन में बैठे हैं । मैंने सोचा मन नहीं लगा होगा। क्योंकि सदा चलह-पहल में रहने वाले को एकान्त अटपटा-सा लगता है। मैंने पूछा-क्यों, पुस्तक नहीं पढ़ी आपने? भाईजी महाराज ने फरमाया
पोथी सागर ! के पढूं। समझ लियो मैं सार ।। प्रेम भाव रा पाधरा, 'चम्पक' अक्खर च्यार ॥
२८ अप्रैल, १९७५
३३६ आसीस
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७८
अर्थं अपने-अपने
जयपुर का चातुर्मास सम्पन्न कर पूज्य गुरुदेव फतहपुर पधारे । भाईजी महाराज के जन्मदिन पर आचार्यप्रवर ने सबसे पहली बार बधाई दी । कौन जानता था कि यह भाईजी से मिलने वाली अंतिम बधाई होगी । न जाने क्यों आचार्यवर ने फरमा दिया 'यशोविलाश का पुनरावलोकन पूरा हो गया है, अब 'लाडांजी' का जीवन चरित्र लिखकर 'माजी' का व्याख्यान बनाना है । फिर आपकी भी तो तैयारी करनी हो होगी ।' यह कौन जानता था, सहज निकला शब्द यों चरितार्थ हो जाएगा ।
श्री भाईजी महाराज ने कृतज्ञता ज्ञापन के बाद कहा—आज विहार तो करना है पर शनिवार है, करूं कि न करूं ? दुविधा है ।
आचार्यप्रवर ने फरमाया- - आप भी बहमी हो गये । सुखे सुखे विहार करो, हम भी आ रहे हैं पीछे के पीछे !
ज्योंही हमने विहार किया, शकुन ठीक नहीं हुए । भाईजी महाराज पुनः आजाद भवन में पधार गये । दुबारा प्रस्थान किया पर शकुन इनकार कर रहे थे । इतने में गुरुदेव पधारे । चलो, हम भी आपको पहुंचाने चल रहे हैं । हम रवाना हुए। बहुत सारे संत और संस्था की बहनें तो कोई दो किलोमीटर तक साथ आईं । रामपुरा के पास संतों को सीख दी । उस दिन वीरमपुर रुककर हम दूसरे दिन सायंकल धानणी पहुंचे । रात को लाडनूं के कार्यकर्ता आए । व्यवस्था सम्बन्धी चर्चा भाईजी महाराज ने बाहर बरामदे में बैठकर की । शयन से पहले मुनि मोहन लालजी (आमेट) ने टिप्पणी की। भाईजी महाराज को वह असुहावनी लगी । सुबह प्रतिलेखन के समय मोहन मुनि आये और खमत - खामणा करते हुए माफी मांगी ।
लाडनूं - व्यवस्था पर तीखी
अनायास ही भाईजी महाराज ने फरमाया - सागर ! आज का मेरा सपना
संस्मरण ३३७
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सत्य है। उसका एक प्रामाणिक फलित है, मोहन के खमत खामणा।
हम सालासर के लिए चले। रास्ते में हर मील के पत्थर पर बैठ-बैठकर विश्राम लिया। एक आध जगह उजले धोरे पर भी बैठे। हर बार आज कुछ न कुछ नया निर्देश आता रहा । कुछ पुराने संस्मरण और कुछ करणीय कार्यों की हिदायतें दीं। एक बार मुझे वचनबद्ध कर शिक्षा फरमाई। ___ इस अवधि में मैंने स्वप्न को जानने का प्रयत्न किया। पर एक ही जमाजमाया उत्तर रहा, तुम्हें नहीं, आचार्यश्री से मिलने पर अर्ज करूंगा।
मृगसर शुक्ला द्वादशी सोमवार को हम सालासर रहे। भाईजी महाराज ने दाढ़ी का लुंचन करवाया । दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए कहा-'सालासर के बाबा ! तेरी संकलाई सही, अब लोच नहीं आयेगा।' उन दिनों नाक पर एक फुसी थीभाईजी महाराज ने मूंछ का बाल खींचते हुए कहा- लगता है यह फँसी मुझे लेकर ही जायेगी ! हम सबको लोच करा लेने का आदेश हुआ। सबके लुंचन हुए, केवल शान्ति मुनि बाकी रहे। मैंने कहा-हाथ दुःखने लग गये हैं, इनका लोच भी बड़ा है, कल कर लें तो कैसा रहे ? मुनिश्री ने फरमाया-थोड़ा समझो ! कल तुम्हें फुर्सत नहीं मिलेगी। पर हम नहीं समझे यह सब क्यों चेताया जा रहा था। शान्ति मुनि का लुंचन हुआ, वन्दना की। भाईजी महाराज जरा मुलक कर बोले-अच्छा किया, देखो! तुम्हें मेहनत तो पड़ी पर कल समय नहीं मिलेगा, मैं ठीक कहता हूं।
रात को रक्तचाप बढ़ा । तबीयत खराब हुई । सन्तों ने सालासर ही रुकने का निवेदन किया। भाईजी महाराज बोले- नहीं, मुझे आचार्यश्री से पहले लाडनूं पहुंचना है। चलना ही होगा।
लाडनूं के स्वयंसेवक आये । पूरी धर्मशाला का स्थान निरीक्षण किया। व्यवस्था समझाई । सन्त यहां रुक सकेंगे। आचार्यप्रवर का विराजना यहां ठीक जमेगा । जनता के बैठने का स्थान यहां उपयुक्त बैठेगा। स्वयंसेवकों से बात करते-करते भाईजी महाराज धर्मशाला के दरवाजे के बाहर पधार गये और आवाज दी--सन्तों ! मैं तो चलता हूं। तुम उपकरण लेकर आ जाना।
हमने विहार किया। अभी सालासर पानी की टंकी तक ही नहीं पहुंचे थे कि सांस फूल गया । दुकान की बेंच पर बैठे, फिर चले । पर चला नहीं जा रहा था। समुद्र के किनारे तक धरती नापने वाले पांव आज पांच मील का रास्ता काटते जवाब दे गये । कलकत्ता से बम्बई और पंजाब से मद्रास तक चलने वाले कदम आज क्यों थके, पता नहीं। जो साहस दंडकारण्य और विध्य की घाटियां पार करते नहीं टूटा, वह आज विश्वास छोड़ने लगा । ऊटी जैसे आठ हजार फीट की ऊंचाई चढ़ते तो दम नहीं फूला, वह आज अपनी जन्मभूमि की कांकड में आकर फूलने लगा। भाईजी महाराज दस-बीस कदम चलते-बैठते फिर चलते फिर बैठते । बार
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बार सड़क पर चलते, रुकते, सोते, बैठते, रास्ता काट रहे थे।
मंगलवार हनुमान बाबे का दिन । आचार्यप्रवर का सालासर पधारना। सैकड़ो-सैकड़ों लोगों का आवागमन । कारों, बसों और मोटरों के यात्री उतर-उतर कर दर्शन करते । स्थिति पूछते । परामर्श देते । सालासर जाते और आचार्यश्री से निवेदन करते।
हमने पांच मील का रास्ता पांच घण्टे में पार कर प्याऊ में विश्राम लिया। वहीं रुकने का आदेश आया। आचार्यश्री ने मिलने का निर्णय लिया। भाईजी महाराज ने पुनः निवेदन करवाया-आप अपना कार्यक्रम यथावत् ही रखायें। मैं यहां से डेढे किलो मीटर धां गांव सायंकाल जाना चाहता हूं, कल लाडनूं पहुंचना आसान रहेगा।
- आज दिन में सैकड़ों आते-जाते यात्रियों ने दर्शन किये । सेवा कराई। बातचीत की। विश्राम लेकर उठते ही मुझसे कहा गया—एक कागज-कलम देना तो। मैंने कहा-क्यों भाईजी महाराज ? उन्होंने फरमाया-तू दे तो सही। मैंने एक कागज की स्लीप और डॉट पेन निवेदन किया। उन्होंने कुछ लिखा, कागज समेट, मोड़कर अपने चादर के पल्ले बांध लिया।
विहार किया। वह एक मील का रास्ता सो कोस बन गया। एक ओर मणि मुनि और दूसरी ओर मैं दोनों के कंधों का सहारा लिये 'धां' पहुंचे। चबूतरे पर विराजे । अब कुछ नहीं था। सर्व सामान्य । रोजमर्रा की तरह बातें हो रही थीं। थानमलजी बाफणा (सुजानगढ़) पास बैठे चर्चा कर रहे थे । डॉ० व्यास ने जब सुना, भाईजी महाराज के आज असाता है, वे सुजानगढ़ से आये। पूरी चेकिंग की सब कुछ सामान्य था। ___ भाईजी महाराज ने डॉ० व्यास का हाथ पकड़ कर कहा-डॉक्टर ! जैसे-तैसे मुझे लाडनूं पहुंचा दो। ___डॉक्टर व्यासजी हैरान थे । आज यह वज्र-सा मनोबल ढीला क्यों पड़ा? उन्होंने कहा-भाईजी महाराज ! आज यह कमजोरी की बात आपके मुंह से कैसे ? विश्वास कीजिये, मैं लाडनूं पहुंचा दूंगा। पर एक इन्जेक्शन ले लीजिये।
भाईजी महाराज ने कहा-डॉक्टर ! अभी तो सूर्यास्त का समय हो गया है, मैं इन्जेक्शन नहीं ले सकता। ___ बात कल सुबह पर रही । रात को साढ़े आठ बजे डॉक्टर गुहिराला लाडनूं से आये। सब कुछ ठीक-ठीक था । केवल कलेजे पर जलन महसूस हो रही थी। शायद एसिडिटी बढ़ी हो।
शयन के समय फतहपुर वाले सोहन लालजी रायजादा अचानक झुंझलाकर बड़बड़ाते हुए उठे-'हे देवी-देवताओ ! आज के हो गयो थार? आके सूझे है?' हमने पूछा क्या बात है? वे यह कहते हुए बाहर चले गये-नहीं, नहीं, महाराज !
संस्मरण ३३६
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आप तो सुखे सुखे पोढ़ो ।
और सुबह ६-१० बजते-बजते श्री भाईजी महाराज का हार्ट बन्द हो गया । पौ फट गई। सुबह होते-होते अंधेरा छा गया। जिसने भी सुना, विश्वास नहीं हुआ | राजस्थान रेडियो ने बार-बार प्रसारण किया। दिल्ली ऑल इंडिया रेडियो ने समाचारों के बीच सूचना दी -- 'भाईजी महाराज नहीं रहे ।'
दाह-संस्कार उनकी जन्मभूमि लाडनूं में करना तय हुआ। जिसने भी सुना, जिसे जो साधन मिला, रात भर में हजारों लोग कलकत्ता, बम्बई, अहमदाबाद, पंजाब और मद्रास व बैंगलोर दूर-दूर से पहुंचे । लाडनूं की भीड़ भरी हर गली और हर जबान सूनी-सूनी थी । प्रत्येक मिलने वाला भीगी आंखों से बात करता था । बाजार बन्द हो गये । संस्थाओं ने स्मृति सभा के बाद अवकाश घोषित किया। झंडे झुका दिये गये । ठेले वालों ने ठेले नहीं लगाये । सब्जी वालों ने सब्जी नहीं बेची। यहां तक उस दिन मुसलमान भाइयों ने ( सिलावटों ने) पत्थर पर छेनी हथोड़ी नहीं चलाई ।
श्री भाईजी महाराज का पार्थिव शरीर लाडनूं पहुंचा। पूज्य गुरुदेव सुजानगढ़ रुककर दूसरे दिन मध्याह्न लाडनूं पधारे। सैकड़ों सैकड़ों बहिर-विहारी साधुः साध्वियों के परिवार में स्मृति सभा के बाद जैन विश्व भारती के प्रांगण में दाहसंस्कार सम्पन्न हुआ ।
उनके वस्त्रों को बदलते समय श्री सागर मलजी कोठारी (भाईजी महाराज के मामा के लड़के-भाई) को वह चिट्ट चद्दर के पल्ले बंधी मिली । उसमें लिखा
था-
'चम्पक' चवदस च्यानणी, याद रहेला रोज । सालासर की साखस्यूं, जा सागर ! कर मोज ॥'
अर्थ अपने-अपने हैं । यह उस सागर से कहा गया या इस सागर से ? हम दोनों एक ही परिवार से जो हैं ।
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