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मामाजी बड़े गम्भीर थे। उन्होंने देखा, अनदेखा कर दिया। मानो उन्हें पता ही न चला हो । मुझे पानी का गिलास लाने को कहा । मैं पानी लाया। वे पानी पीकर दुकान के काम में लग गये । मैं भी दुकान में आया तो सही, पर दिल धड़क रहा था। मन के भीतर चोर जो बैठा था। हर क्षण वही सन्देह था-मामाजी क्या कहेंगे? उनकी प्रकृति से मैं खूब वाकिफ था। जब वे कहने लगते, छींट नहीं छोड़ते । मैं मन ही मन सोच रहा था-चंपला ! आज खैरियत नहीं है । जब भी वे बोलते, मुझे वे ही स्वर फूटते नजर आते। आज क्या होगा? हे भगवान ! आज बच जाऊं तोलाखों पाये। दिन भर कोई चर्चा नहीं चली। मेरे में विश्वास हो गया-सचमुच मामाजी को पता ही नहीं चला। __सदा की भांति सायंकाल मजलिस जुड़ी । मैं भी वहीं बैठा,था। अड़ोसी-पड़ोसी सभी लोग जमा थे। बातें चल रही थीं-देश की, दिशावर की, बाजार की, समाज की। अब मैं तो बे-फिकर था। इतने में मामा नेमीचन्द जी ने मेरी ओर देख चुटकी भरते हुए कहा-'अबै बाबू पास हो गया है।' वे आगे कुछ नहीं बोले, केवल जमीन पर एक सांकेतिक लकीर खींची। दूसरे लोग तो कुछ नहीं समझे, पर मेरा चेहरा फक । काटो तो खून नहीं । मैं अवाक्, जैसा था वैसा ही रह गया। फटी-फटी आंखें । पसीना-पसीना । जाऊं तो जाऊं कहां? शर्म से सिर झुक गया। ऊपर आकाश, नीचे धरती, बीच में अधर झूलता मेरा मन । लगा वह लकीर मुझे कुछ कह रही थी।
मैंने भीतर ही भीतर दृढ़ संकल्प किया आज से बीड़ी पिऊ तो त्याग । मैंने भी जमीन कुरेदकर एक लकीर खींची। मामाजी समझ गये। बात का रुख बदल गया। दूसरी चर्चा छिड़ी और मैं निश्चिन्त हुआ । मामाजी की वह युक्ति आज भी मैं सोचता हूं, हम सभी लोग अपना लें तो सुधार का एक नया आयाम न खुल जाए? बस, उस दिन से सदा-सदा के लिए मेरी बीड़ी छूट गयी
'बाबू अबे पास होग्या, मामाजी मार्यो तीर। आई शरम, छोड़ दी बीड़ी, चम्पो खांच लकीर ॥'
संस्मरण २१५
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