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सुधार का नया तरीका
लाडनूं की बात है। मामा नेमीचन्द कोठारी उन दिनों पलासबाड़ी (बंगाल) में रहा करते थे। उनकी दुकान (फर्म) का नाम सुखलाल नेमीचंद पड़ता था। वे अपनी बहन (मां वदना जी) से मिलने आये। बालक चम्पालाल से बातचीत हुई। उनका मन भर आया। वे चाहते थे, ऐसे योग्य लड़के को मैं अपने पास रखू । उन्होंने अपना अभिप्राय बहन को जताया। मांजी ने कहा- भाई ! मुणू (मोहनलाल) जाण । मामाजी ने भानेज मोहनलाल जी को पत्र दिया । स्वीकृति आई । कोठारीजी लाडनूं से भानेज चम्पालाल को पलासबाड़ी ले गये। पलासबाड़ी काम-धंधे के लिए अच्छा स्थान था । भाईजी महाराज का वहां खूब मन लगा। खुली छूट-खाओपीओ और काम के समय मन लगाकर काम करो। वहीं एक नयी आदत शुरू हुई। भाईजी महाराज फरमाया करते
मेरा उन दिनों बाबूगिरी का नया दौर प्रारम्भ हुआ। फिट-फाट कपड़े पहनना और धुआं निकालना । मैं नया बाबू था । मुझे सभी बंगाली, 'खोखा बाबू' कहते । खोखा वहां छोटे को कहते हैं। मैं अब 'खोखा बाबू' जो बन गया था, अतः बाबूगिरी के सभी लक्षण आवश्यक थे । मैं बीड़ी पीने लगा। पर पीता था छिपेछिपे । कभी-कभी बीड़ी पीकर धुआं फेंकता और शीशे में देखता, देखें, कैसा लगता हूं। अब मुझे बीड़ी का रस लग गया था। मामाजी का डर भी लगता था। एक दिन कोठे की खिड़की में बैठा मस्ती से बीड़ी पी रहा था। कोई आयेगा, यह बहम ही नहीं था। निश्चित धुआं फेंक रहा था। बाबूगिरी का अहं धुएं के साथ गोटे बना रहा था। मैं बस खींचकर ज्योंही धुआं फेंकने लगा कि अचानक मामाजी कोठे में आ गये। उन्हें देखते ही मैंने सुलगती बीड़ी फुर्ती से पांव तले दबा ली, पर धुआं कहां दबता ? बहुत मावधानी बरती । झट से, खिड़की बंद कर अंधेरा करने की नाकाम कोशिश की।
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