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________________ .. १२ तिलचटा : एक उद्बोधन वि०सं० २००६ की बात है। हम दिल्ली नया बाजार वृद्धिचन्द जैन स्मृति भवन में बैठे थे। वहां एक तिलचटा निकल आया। श्री भाईजी महाराज आसण छोड़ उठ खड़े हुए। मैंने ऐसा पहले-पहल देखा। पास ही बैठे थे कोठारी सागरमलजी राखेचा (लाडनूं)। उन्हें एक पुरानी बचपन की स्मृति याद आ गई । वे बोले- क्यों भाईजी महाराज, याद है तिलचटा ? भाईजी महाराज ने फरमाया-हां, याद है। इसी तिलचटे ने ही तो लाडांजी का चहिया से पीछा छुड़ाया था। हमने जब जानना चाहा, यह तिलचटा फिर क्या बला है ? भाईजी महाराज ने स्मृतियों के बंडल में से एक गठड़ी खोली वि० सं० १९८० की बात है। मैं उन दिनों कलकत्ता में था। मामाजी हमीरमलजी कोठारी अपने समय के सम्मान्य व्यक्ति थे। बारह नम्बर पोचागली में निवास और गणेश भगत कटले में दुकान (गद्दी) थी। अब वे निवास स्थान का परिवर्तन कर क्लाइव स्ट्रीट विलायती कोठी में चले गए थे। पूजा की बिक्री सामने थी। उन्हें एक आदमी की और अपेक्षा थी, अतः उन्होंने मुझे पलासबाड़ी से कलकत्ता बुला लिया। मैं कलकत्ता पहुंचकर बहुत खुश इसलिए था-शहरी वातावरण, मौज, शौक, और मनोरंजन का वहां रंग ही न्यारा था। वहां मैंने पहले-पहल तिलचटा देखा । देश में तिलचटा होता नहीं । मैं घबराया। उसका आकार ही ऐसा था। मैं चिल्लाकर भागा। भाई सागरमल कोठारी के हाथ एक मसाला लग गया। हम दोनों एक ही उमर के थे। मुझे छकाने का दूसरा उपाय नहीं दीखता तो सागर तिलचठा पकड़ लाता और मैं दोनों हाथ ऊपर कर हार मान लिया करता। गणपत महाराज रसोई किया करते । मेरी आदत शुरू से ही इस माने में खराब थी। मैं रसोई में कमियां निकालता । खाना खाते समय कई नखरे करता। २१६ आसीस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003057
Book TitleAasis
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampalalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages372
LanguageMaravadi, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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