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जीवन का एक सौभाग्य : सेवा
सेवा सेवा है। उसमें विनिमय नहीं होता। तुम करो तो मैं करूं, यह तो गधा खाज है । एक गधा दूसरे गधे की खाज तब तक करता है, जब तक वह करे, एक छोड़ता है दूसरा भी छोड़ देता है । हम सेवाव्रती हैं । संघ हमारा है, हम संघ के हैं। संघ का हर सदस्य अपना है। छोटा-बड़ा. कामल-बेकाम, अपना-पराया-यह भेद संघीयता में खटता है। हमारा कलेजा सवा हाथ का हो। विचार उदार रहे । सेवा में न आदेश का इंतजार होता है और न विनय की प्रतीक्षा । जो कुछ भी हम करें निर्जरा के लिए करें। प्रशंसा लोकषणा-से परे हमारा हर सेवा-कार्य संघीय गौरव के लिए हो । इसी का नाम तेरापंथ है, जहां सबके लिए हम और हमारे लिए सब
वि० सं० १९८६ का मर्यादा-महोत्सव श्री डूंगरगढ़ में हुआ। होली बीदासर की फरमायी गयी। श्रद्धेय कालूगणी जी महाराज का ससंघ रीडीगांव से विहार हुआ। रीड़ी और धर्मास के बीच पांच कोस का लम्बा रास्ता था। रास्ता भी रेगिस्तानी धोरों का। मुनि सम्पतमल (डूंगरगढ़) नये-नये दीक्षित थे। उमर भी क्या थी ? कुल नौ वर्ष । पहला-पहला विहार। सर्दी का मौसम । नये मुनि ठिठुरा गये । शरीर कांपने लगा। बेचारे चले भी कब थे ? जब उनसे चला नहीं गया, वे बैठ गये । मैं (श्री भाईजी महाराज) पीछे से आया। देखा, बाल मुनि परेशान हैं। पांव ठर गये हैं।
मेरा कर्तव्य-बोध मुझे कुछ सहयोग करने को कह रहा था। और मैं क्या योग्य था जो कुछ कर सकू। मैंने सम्पत मुनि को अपने कंधे पर उठाया और लगभग तीन कोस सकुशल धर्मास पहुंचाया। बीच में मिलने वाले संतों ने मेरा सहयोग किया। उस दिन मेरे मन में एक अचिन्त्य खुशी थी। लगता था आज मैंने कुछ किया है।
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