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थोड़ी देर बाद एक खंभे से उन्हें बांध दिया गया। मैं रोया, दादाजी को खोलने गया । क्या कहूं उस भोलेपन की बात?
बैकुंठी तैयार हुई। पूछने पर बताया गया-दादाजी को इसमें बिठाएंगे। खुशी हुई। दादाजी को नये कपड़े पहनाये । मैं भी नये कपड़े पहनने को अड़ा। बदले में एक चद्दर मेरे सिर पर लपेट दी गयी, 'पोतिया' कहा गया । मैं पोता था, पोतिया बांध लिया।
दादाजी को बैकुंठी में बिठाया गया। मैं अब इसलिए रोया-मैं भी दादाजी के साथ बैकुंठी में बैलूंगा । मुझे समझाया गया। पास ले जाकर दिखाया गया। इसमें बैठने को और जगह नहीं है, अपन आगे-आगे दंडोत करते चलेंगे, दादाजी राजी होंगे, चीजें दिलाएंगे।
'सोचूं आज हंसी आवै, वो भी हो कुछ टाबरपण।
रोयो, दादाजी रै साग, बैकुंठी में बैठण ॥' अंततः अन्त्येष्टि यात्रा-जुलूस सझा। आगे-आगे बाजे बज रहे थे । हम छोटेबड़े बहुत सारे लोग, बैकुंठी के सामने साष्टांग दंडवत करते जोगीदड़े (श्मशान) तक पहुंचे। मन में एक खुशी थी, दादाजी की बरनोली निकल रही है। लोगों के कंधों पर दादाजी चढ़े हुए हैं। झालर बज रही है। लोग पीछे-'अरिहंत नाम सत है-सत बोल्यां गत है', बोल रहे हैं । पैसे उछाले जा रहे हैं।
हम श्मशान घाट में रुके। लकड़ियां जंचायी गयीं। उस पर बैकुंठी धरी और ज्योंही आग लगायी कि मेरे होश-हवाश उड़ गये। मैं जोर-जोर से चिल्लायाअरे ! मेरे दादाजी को मत जलाओ रे ! पर मेरा वहां क्या बस चलता ! मैं रोरोकर थक गया।
मूथोसा (सदासुखजी वैद) ने मेरे सिर पर हाथ फेरकर कहा-'चम्पू ! लाड़ी! दादोजी चलग्या। इं मरे. शरीर री तो आही गति है' सुनकर मेरे मन में एक क्षणिक, अव्यक्त/अज्ञात/अपूर्व अनुभव हुआ।
हपड़-हपड़ कर चिता जली जद, पड्यो एक पलको-सो। 'चम्पक' चमक्यो चित्त, चेतना को अनुभव हलको-सो।।
२०२ आसीस
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