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________________ मुझे भी उस दिन एक अपूर्व अनुभव हुआ जन्म और मृत्यु के इन झूलते दो तारों के बीच लटकती जिन्दगी भी एक बड़ा आश्चर्य है । आदमी जब तक जीता है, कितनों से अपनत्व जोड़ता है। आगे-पीछे की सोचता है। किन-किन तमन्नाओं के संग्रह करता है। पर जब जाता है खाली हाथ/अनबोल/असहाय । सब कुछ यहीं धरा रहता है । अपने कहे जाने वाले, दोदस दिन रो लेते हैं। शेष रहती हैं व्यक्ति की स्मृतियां । वे भी कितने दिन ? समय बीतता है, स्मृतियां अनन्त में विलीन हो जाती हैं। सच पूछो तो जाने वाले को कोई नहीं रोता । रोते हैं हम अपने सुख को/स्वार्थ को। बचपन कितना भोला होता है। वह यह तो नहीं जानता, क्या हुआ? पर जब मृतक की चिता जलती है, उस लपट में प्रकाश के भीतर भी कुछ दिखता है। मेरे अपने स्नेही/प्यारे को क्यों जला दिया? वह अब कहां गया? क्या सभी यों ही जाएंगे? श्री भाईजी महाराज सुनाया करते थे--मुझे भी उस दिन एक अव्यक्त अनुभव मिला। दादा राजरूपजी का देहान्त वि० सं० १६७३ फाल्गुन कृष्णा चतुर्दशी को हुआ। तब तक मुझे यह पता ही नहीं था, मृत्यु क्या होती है । हम दादापोतों के कोई जन्म-जात संस्कार ही ऐसे थे, मेरे बिना उन्हें और उनके बिना मुझे चैन नहीं पड़ता। मेरा खाना-पीना/नहाना-धोना/सोना-उठना सब कुछ दादाजी के साथ होता । मेरी हर फरमाइश वे पूरी करते । करते भी खूब चाव-उच्छाव से। __दादाजी के तकलीफ थी । मैं भी पास बैठा था। सांस निकला। एक बार सब रोये । मैं भी रोया। और-और रोये थे कुछ दूसरे कारण से, मैं रोया था दादाजी की तकलीफ में सहभागी बनने। कुछ देर के बाद सब शान्त, मैं भी शांत । शायद इसलिए कि कपड़ा उठा दिया गया है, दादाजी को नींद आयी है। लम्बी नींद आ गयी है, यह मुझे क्या पता ? संस्मरण २०१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003057
Book TitleAasis
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampalalmuni
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1988
Total Pages372
LanguageMaravadi, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size10 MB
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