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१८ जीणे री जुगत
बणणो चावै तो बणी, सागर ! मीठी दाख । भीतर-बाहिर सरस रस, लोक भरैला साख ॥१॥ सागर ! यदि बणणो सरस, सीख ईख स्यं सीख । चूसणिय रै कालजै, बांधे रस री डीक ।।२॥ मत बणजे तूं बोरियो, ऊपर कोमल कोर। सागर ! सुन्दर रंग पर, भीतर महा कठोर ॥३॥
फिरण-फिरण मै फेर है, सागर ! तूं मत रूस । रेंठ फिरै ईखू सरस, चरखी लेवै चूस ॥४॥
सागर ! तूं रहिजे सदा, धोलो दूध समान । अभिरुचि रै अनुरूप ही, बण विविध पकवान ।।५।।
३२ आसीस
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