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१७.
आयोडां रो आवर
सागर ! पायो सहज ही, सन्त मिलन संयोग। आगत-स्वागत अतिथि की, करणी दे उपयोग ॥१॥
पड्या कठे है पावणां, मिलै भाग्य बस जोग । सागर ! भगती-भाव स्यूं, कर उत्तम उद्योग ॥२॥ आयोडां री खातरी, करणी है कर्तव्य । भावां मै भालै जगत, सागर ! सभ्यासभ्य ॥३॥
आवो बैठो विनय स्यू, आसण दैणो धाम । आये. रो आव स्यूं, सागर ! करणो काम ॥४॥
व्यवहारिकता मै कदे, मत बणजे तूं मूक। अवसर ओ भपणत्व को, सागर ! तूं मत चूक ॥५॥
पञ्चक बत्तीसी ३१
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