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भाजी महाराज सहज योगी थे । वे हर वस्तु को द्रष्टाभाव से देखा करते। कभी कभी सहजता में निकली बात सूत्र बन जाती है । उसका भाष्य फिर बौद्धिक लोग करते हैं । एक दिन भाईजी महाराज विराजे थे । मैं पास ही बैठा था । वहीं एक चींटियों का बिल था । राजस्थानी भाषा में उसे कीड़ी नगरा कहते हैं । नगर और नगरा में केवल एक आ की मात्रा का ही तो अन्तर हैं । था आखिर नगर का नगर । हमने देखा चींटियां भागी जा रही थीं । सैकड़ों की संख्या में अनवरत आवागमन चालू था | चींटियां मिट्टी की ढुलाई कर रही थीं। कुछ आ रही थीं, कुछ जा रही थीं । एक तांता - सा लगा हुआ था । इतने में मैंने देखा एक चींटी को दस-बारह चींटियां घसीटकर ला रही थीं। चारों ओर घेरा बना हुआ था । मैंने पूछा- भाईजी महाराज ! और-और चींटियां तो मिट्टी ढो रही हैं और ये बेचारी इस जिन्दा चींटी टांगें खींचे ला रही हैं। क्या बात है ?
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कामचोर
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भाजी महाराज मुस्कराये और बोले—तुम नहीं समझे ? चींटियों के नगर में भी एक व्यवस्था होती है । सबको बराबर श्रम देना होता है । ये लोग संज्ञा प्रधान जीव हैं, इन्हें भी अपने कर्त्तव्यों और दायित्वों का बोध है । लगता है— इस चींटी ने श्रम से जी चुराकर काम करना बंद कर दिया होगा। इनके यहां कामचोर, आलसी को स्थान नहीं है । ये सब इसीलिए टांगें पकड़कर इसे बाहर छोड़ने आई हैं । इन्होंने इसे अपने संघ से बहिष्कृत कर दिया है । बहिष्कृत को — जो संघीय नियमों का उल्लंघन करता है- यों ही हटाया जाता है । जो बराबर सम-विभागीय श्रम नहीं करता, उसे मंडल में कौन रखेगा ? जो समूह में रहकर मिल-जुलकर काम नहीं करता, सुख-दुख में सहयोगी नहीं बनता, उसे कौन बरदास्त करेगा ?
'कड्यां भी कोनी करें, निःकरमा स्यूं नेह । पकड़ टांगड़ी फेंक दें, परली कानी पेह ॥"
३१६ आसीस
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