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सुमिरन अचिन्त्य शक्ति है
भय आदमी के मन की संज्ञा ही है। उसे डर लगता है, पर डर कुछ है तो नहीं। सामान्यतया कोई किसी का कुछ बिगाड़ता नहीं जब तक सामने वाला हमसे आहत नहीं होता । हम भी डरते हैं और वह भी डरता है । कष्ट सबको अप्रिय है । जानवर भी प्रेम चाहता है, प्रेम करता है, यदि हम उसे अभय कर
भाईजी महाराज ने फरमाया-मैं प्रारम्भ से ही निडर था । आज भी आमनेसामने मुझे डर कम ही लगता है । हां, बहम से तो कई बार रात-रात भर मुझे भी नींद नहीं आती। किसी भी विषले जानवर को देख लेने के बाद मैं प्रायः नहीं डरता। सांप, बिच्छू और कांसलाव को मैं बिना झिझक के कपड़े से ही पकड़ लेता हूं । क्षुद्र जंतुओं से ग्लानि-सी होती है। ग्लानि, केवल यह कि बेचारा चिगदा न जाये, मर न जाये ।
वि० सं० १९६० की बात है। आचार्य कालूगणीजी महाराज ईडवा पधारे। पुराने उपाश्रय की चबूतरी पर अभयराज जी चोरडिया और मैं थोकड़े चितार रहे थे। बाल-मुनियों का अध्ययनशील-दल भीतर सीखने-चितारणे में व्यस्त था। मेरे पांव पैड़ियों पर लटके हुए थे। रात का समय था, अंधेर गुप्प । वह भी एक युग था। मेरे पैर पर कुछ गीला-गीला निकलता-सा प्रतीत हुआ। भिक्खू स्वाम। भिक्खू स्वाम, करता मैं क्षण भर स्थिर रहा । झटका देकर उठा कि चोरड़िया जी ने पूछा-क्यों। क्या बात है ? महाराज ! मैंने कहा-कोई जानवर-सा है। उन्होंने प्रकाश लाकर देखा तो दो-अढ़ाई हाथ लम्बा काला मोटा सांप था। जब तक मेरे
रों पर से वह पूरा नहीं निकल गया, मैं नहीं हिला । आज सोचता हूं, गुरुदेव की कृपा ही थी, मैं निडर होकर स्थिर रह सका। यदि हिला होता तो शायद वह भी डरता और छिड़ जाने के बाद मुझे काटता भी।
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